Original Article
INDIAN FAMILIES IN THE ERA OF ECONOMIC LIBERALIZATION AND GLOBALIZATION: A SOCIOLOGICAL ANALYSIS OF STRUCTURAL, FUNCTIONAL AND EMOTIONAL CHANGES
आर्थिक
उदारीकरण और
वैश्वीकरण के
दौर में भारतीय
परिवार:
संरचनात्मक, कार्यात्मक
और भावनात्मक
बदलाव का
समाजशास्त्रीय
विश्लेषण
|
1 Assistant Professor,
Department of Sociology, Rajendra Mishra College, Saharsa, Bihar, India |
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ABSTRACT |
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English: This Paper Presents a Detailed Sociological Analysis of The Multifaceted Sociocultural Changes that hve Occurred in the Traditional Institution of the Indian Family Due to the Economic Liberalization of 1991 and Subsequent Globalization. Using a Combination of Qualitative and Quantitative (Secondary) Data, the Study Focuses on Three Key Areas: Structural, Functional, and Emotional Dynamics. at the Structural Level, Urbanization and Migration Induced by Globalization have Accelerated the Disintegration of the Joint Family System Toward the Nuclear Family and Given Rise to the Concept of Transnational Families. at the Functional Level, Education and Economic Opportunities have Increased Women's Economic Autonomy and Decision-Making Power, Leading to Changes in Traditional Gender Roles. Additionally, the Role of Digital Media has Become Important in the Socialization of Children. at the Emotional Level, the Rise of Individualism has Challenged Traditional Collectivist Values, Leading To Changes in the Institution of Marriage (Such as the Acceptance of Love Marriages and Increased Divorce Rates) and Intergenerational Value Conflicts. The Research Concludes that the Indian Family is Going Through a Complex Transitional Phase, Where it is Localizing Global Ideals Rather than Fully Adopting them, Thereby Posing New Challenges for Social Policymakers. Hindi: यह
शोध पत्र 1991 के
आर्थिक
उदारीकरण और
उसके बाद के
वैश्वीकरण
के कारण
भारतीय
परिवार की
पारंपरिक
संस्था में
आए बहुआयामी
सामाजिक-सांस्कृतिक
परिवर्तनों
का एक
विस्तृत
समाजशास्त्रीय
विश्लेषण
प्रस्तुत
करता है।
गुणात्मक और
मात्रात्मक
(द्वितीयक)
आँकड़ों के
संयोजन का
उपयोग करते
हुए, यह
अध्ययन तीन
प्रमुख
क्षेत्रों
पर केंद्रित
है:
संरचनात्मक,
कार्यात्मक
और
भावनात्मक
गतिशीलता।
संरचनात्मक
स्तर पर, वैश्वीकरण
के कारण
उत्पन्न
शहरीकरण और
प्रवासन ने
संयुक्त
परिवार
प्रणाली के
विघटन को एकात्मक
परिवार की ओर
तेज़ किया है
और प्रवासी परिवार
(Transnational Families) की
अवधारणा को
जन्म दिया
है।
कार्यात्मक
स्तर पर, शिक्षा
और आर्थिक
अवसरों के
कारण
महिलाओं की आर्थिक
स्वायत्तता
और निर्णय
लेने की
शक्ति में
वृद्धि हुई
है, जिससे
पारंपरिक
लिंग
भूमिकाओं
में बदलाव आया
है। इसके
अतिरिक्त,
बच्चों
के समाजीकरण
में डिजिटल
मीडिया की भूमिका
महत्वपूर्ण
हो गई है।
भावनात्मक
स्तर पर, व्यक्तिवाद (Individualism) के
उदय ने
पारंपरिक
सामूहिक
मूल्यों को
चुनौती दी है,
जिससे
विवाह
संस्था में
परिवर्तन
(जैसे कि प्रेम
विवाह की
स्वीकृति,
और
तलाक दर में
वृद्धि) तथा
अंतर-पीढ़ी
मूल्यों का
संघर्ष देखा
गया है। यह
शोध
निष्कर्ष
निकालता है
कि भारतीय
परिवार एक
जटिल
संक्रमणकालीन
चरण से गुज़र
रहा है, जहाँ
वह वैश्विक
आदर्शों को
पूरी तरह से
अपनाने के
बजाय उनका
स्थानीयकरण (Glocalization) कर
रहा है, जिससे
सामाजिक
नीति
निर्माताओं
के लिए नई चुनौतियाँ
उत्पन्न हो
रही हैं। Keywords: Globalization, Economic
Liberalization, Indian Families, Joint
Families, Nuclear Families, Migration, Gender Roles, Individualism, Socialization, Consumerism, वैश्वीकरण, आर्थिक
उदारीकरण, भारतीय
परिवार, संयुक्त
परिवार, एकात्मक
परिवार, प्रवासन, लिंग
भूमिकाएँ, व्यक्तिवाद, सामाजीकरण, उपभोगवाद |
||
प्रस्तावना
भारतीय
समाज में
परिवार (Family) की संस्था
को इसकी
आधारशिला
माना गया है, जो
पारंपरिक रूप
से संयुक्त
परिवार
प्रणाली (Joint Family System), पितृसत्तात्मक
मानदंड और
स्पष्ट रूप से
परिभाषित
लिंग
भूमिकाओं पर
आधारित रही
है। हालाँकि, वैश्वीकरण
(Globalization) और आर्थिक
उदारीकरण (Economic Liberalization) की लहर, जिसकी
शुरुआत भारत
में 1991 के
बाद हुई, ने देश की
अर्थव्यवस्था
और सामाजिक
संरचना दोनों
में
अभूतपूर्व
परिवर्तन लाए
हैं Srinivas (1995)।
वैश्वीकरण, जिसे
बाजारों, संस्कृतियों
और
प्रौद्योगिकियों
के एकीकरण की
प्रक्रिया के
रूप में समझा
जाता है Ritzer (2011), ने भारतीय
परिवार को
बाहरी
प्रभावों के
लिए खोल दिया
है,
जिससे
इसकी आंतरिक
गतिशीलता और
कार्यप्रणाली
प्रभावित हुई
है।
यह
शोध समस्या
कथन इस प्रश्न
पर केंद्रित
है: 1990 के दशक के
आर्थिक
उदारीकरण के
बाद, भारतीय
परिवार की
संरचना, कार्यप्रणाली
और सदस्यों के
बीच के
भावनात्मक
रिश्तों में
वैश्वीकरण के
कारण किस
प्रकार के
मौलिक
परिवर्तन हुए
हैं? पारंपरिकता
और आधुनिकता
के बीच इस
अंतर्संघर्ष (Inter-conflict) को समझना
समकालीन
भारतीय
समाजशास्त्र
के लिए
महत्वपूर्ण
है।
सैद्धांतिक एवं प्रासंगिक ढाँचा (Theoretical and Contextual Framework)
इस
अध्ययन में
परिवर्तनों
का विश्लेषण
करने के लिए
एक
समालोचनात्मक
सैद्धांतिक
ढाँचे (Critical
Theoretical Framework) का
उपयोग किया
जाएगा। हम
मुख्य रूप से
संरचनात्मक-कार्यात्मक
सिद्धांत (Structural-Functional Theory) के लेंस
से पारिवारिक
कार्यों (Functions)
में आए
बदलावों और
संघर्षवादी
परिप्रेक्ष्य
(Conflict Perspective) से परिवार
के भीतर शक्ति
गतिकी (Power
Dynamics),
विशेषकर
लिंग और पीढ़ी
के संदर्भ में, आए
बदलावों की
व्याख्या
करेंगे।
प्रासंगिक
रूपरेखा:
वैश्वीकरण ने
भारत में उपभोक्ता
संस्कृति (Consumer Culture) को बढ़ावा
दिया है, जिससे
परिवार के
आर्थिक
निर्णयों पर
दबाव बढ़ा है।
साथ ही, प्रौद्योगिकी
का प्रसार और
अंतर्राष्ट्रीय
प्रवासन ने
पारिवारिक
नेटवर्क (Family Networks) को
भौगोलिक
सीमाओं से परे
फैलाकर
प्रवासी परिवार
(Transnational Families) की
अवधारणा को
जन्म दिया है Parthasarathy (2013)।
शोध प्रश्न एवं उद्देश्य (Research Questions and Objectives)
इस
अध्ययन का
मुख्य
उद्देश्य
वैश्वीकरण के
दौर में
भारतीय
परिवार के
अनुकूलन (Adaptation) और
लचीलेपन (Resilience) की
प्रक्रिया का
समाजशास्त्रीय
विश्लेषण करना
है।
निम्नलिखित
शोध प्रश्न इस
उद्देश्य की
प्राप्ति में
मार्गदर्शन
करेंगे:
1)
आर्थिक
उदारीकरण के
बाद शहरीकरण (Urbanization) और श्रम
गतिशीलता (Labour Mobility) में
वृद्धि ने
संयुक्त से
एकात्मक
परिवार (Joint to Nuclear Family) में
संरचनात्मक
बदलाव को किस
हद तक
प्रभावित किया
है?
2)
वैश्वीकरण
से प्रेरित
शिक्षा और
रोज़गार के अवसरों
के कारण
महिलाओं की
लिंग
भूमिकाओं (Gender Roles) और उनकी
निर्णय लेने
की शक्ति में
क्या परिवर्तन
आए हैं?
3)
जनसंचार
माध्यमों (Mass Media) और
व्यक्तिवाद (Individualism) के प्रसार
से पारंपरिक
सामूहिक
मूल्यों पर क्या
प्रभाव पड़ा
है,
और इसने
विवाह तथा
अंतर-पीढ़ी
रिश्तों की
भावनात्मक
गुणवत्ता को
कैसे बदला है?
परिकल्पना (Hypothesis)
यह
शोध इस
परिकल्पना पर
आधारित है कि
वैश्वीकरण ने
भारतीय
परिवार की
संस्था पर
द्वि-चरणीय प्रभाव
डाला है: इसने
महिलाओं और
युवाओं के लिए
व्यक्तिगत
स्वायत्तता
और आर्थिक
अवसर प्रदान
करके
पारंपरिक
पितृसत्तात्मक
संरचनाओं को
कमज़ोर किया है, लेकिन साथ
ही
उपभोक्तावाद
और तनाव को
बढ़ाकर पारिवारिक
सामंजस्य पर
दबाव डाला है।
सैद्धांतिक
रूपरेखा
भारतीय
परिवार पर
वैश्वीकरण के
प्रभावों का विश्लेषण
करने के लिए
तीन प्रमुख
समाजशास्त्रीय
सिद्धांतों
का उपयोग किया
जाएगा, जो
संरचना, कार्यप्रणाली
और गतिशीलता
के विभिन्न
पहलुओं को
समझने में
सहायता
करेंगे:
संरचनात्मक-कार्यात्मक
सिद्धांत (Structural-Functional Theory): यह
सिद्धांत
परिवार को
समाज की एक
मूलभूत इकाई
के रूप में
देखता है जो
समाज की
स्थिरता बनाए
रखने के लिए
विशिष्ट
कार्य (Functions) करता है Parsons and Bales (1955)।
·
प्रयोज्यता
:
वैश्वीकरण के
संदर्भ में, यह
सिद्धांत यह
समझने में मदद
करता है कि
कैसे बाह्य
शक्तियों
(जैसे आर्थिक
उदारीकरण) के
कारण परिवार
के पारंपरिक
कार्यों (जैसे
कि उत्पादन
इकाई, सदस्यों
को सुरक्षा
देना) में
बदलाव आया है।
परिवार अब
उत्पादन की
इकाई से हटकर
मुख्य रूप से
उपभोग की इकाई
और भावनात्मक
सहारा प्रदान
करने वाली
संस्था बन गया
है। यह
विश्लेषण
करता है कि
कैसे संयुक्त
परिवार से
एकात्मक
परिवार में
परिवर्तन ने
पारिवारिक
कार्यों के
निष्पादन को
पुनर्गठित
किया है।
संघर्षवादी
परिप्रेक्ष्य
(Conflict
Perspective): यह
सिद्धांत
मानता है कि
सामाजिक
संरचनाओं में
असमानता और
शक्ति संघर्ष
अंतर्निहित
होते हैं Marx and Engels (1978)।
·
प्रयोज्यता:
वैश्वीकरण के
कारण महिलाओं
को नए आर्थिक अवसर
मिलने से
परिवार के
भीतर
पारंपरिक
पितृसत्तात्मक
शक्ति संरचना
को चुनौती
मिली है। यह
परिप्रेक्ष्य
पीढ़ीगत
संघर्षों (Generational Conflicts) (पारंपरिक
बनाम आधुनिक
मूल्य) और
लिंग संघर्षों
(घर और
कार्यस्थल की
ज़िम्मेदारियों
को लेकर) का
विश्लेषण
करने के लिए
महत्वपूर्ण
है,
जो बढ़ती
आर्थिक
स्वायत्तता
और बदलती
आकांक्षाओं
से उत्पन्न
हुए हैं।
प्रतीकात्मक
अंतःक्रियावाद
(Symbolic
Interactionism)
: यह
सिद्धांत इस
बात पर ज़ोर
देता है कि
सामाजिक जीवन
का निर्माण
व्यक्ति अपनी
अंतःक्रियाओं
(Interactions) और
सांस्कृतिक
प्रतीकों को
दी गई
व्याख्याओं
के माध्यम से
करते हैं Blumer
(1969)।
·
प्रयोज्यता:
वैश्वीकरण
के माध्यम से
प्रसारित
होने वाले मीडिया
और
उपभोक्तावादी
प्रतीकों
(जैसे ब्रांडेड
वस्तुएँ, पश्चिमी
जीवनशैली) के
प्रति भारतीय
परिवार के
सदस्यों की
समझ और
प्रतिक्रिया
को जानने के लिए
यह
परिप्रेक्ष्य
उपयोगी है। यह
समझने में मदद
करता है कि
कैसे
व्यक्तिवाद
के मूल्यों को
परिवार के
सदस्य अपनी
दैनिक
अंतःक्रियाओं
में आत्मसात
कर रहे हैं, जिससे
रिश्तों की
भावनात्मक
गुणवत्ता और
संचार के
तरीके बदल रहे
हैं।
साहित्य की समीक्षा (Review of Literature)
साहित्य
की समीक्षा को
तीन व्यापक
श्रेणियों
में विभाजित
किया जा रहा
है,
जो शोध
प्रश्नों के
साथ संरेखित
हैं:
संरचनात्मक
बदलाव और
प्रवासन (Structural Changes and Migration)
·
संयुक्त
परिवार का
क्षरण: पारंपरिक
अध्ययनों में, इरावती
कर्वे (Irawati
Karve)
जैसे
विद्वानों ने
भारतीय
संयुक्त
परिवार की
विशेषताओं और
उसकी
क्षेत्रीय
विविधताओं पर
प्रकाश डाला
है। आधुनिक
शोध बताते हैं
कि शहरीकरण (Urbanization) और
औद्योगीकरण (Industrialization) ने हमेशा
संयुक्त
परिवार को
प्रभावित
किया है, लेकिन
वैश्वीकरण ने
इस प्रक्रिया
को तेज़ किया
है Dube (1997)।
·
प्रवासी
परिवार (Transnational
Families):
नए आर्थिक
अवसरों की खोज
में
अंतर्राष्ट्रीय
और आंतरिक
प्रवासन में
वृद्धि हुई
है। अमृतलाल
देसाई (A.R.
Desai)
के
कार्यों के
बाद के
अध्ययनों ने
यह दर्शाया है
कि कैसे
प्रवासी
परिवार
भौगोलिक रूप
से अलग होकर
भी संचार
प्रौद्योगिकी
के माध्यम से
अपने संबंध
बनाए रखते हैं, जिससे
पारिवारिक
नेटवर्क की
प्रकृति
भौगोलिक से
आभासी (Virtual) हो
गई है Glick Schiller (2003)। यह
भौगोलिक दूरी
संयुक्त
परिवार की
संरचना को
बनाए रखने में
एक बड़ी बाधा
बन गई है।
कार्यात्मक परिवर्तन और लिंग भूमिकाएँ (Functional Changes and Gender Roles)
·
महिला
स्वायत्तता: आर्थिक
उदारीकरण के
बाद सेवा
क्षेत्र (Service Sector) में
महिलाओं की
भागीदारी
बढ़ी है। नीरा
देसाई (Neera
Desai) और अन्य
नारीवादी
समाजशास्त्रियों
के कार्य
बताते हैं कि
काम करने वाली
महिलाओं की
आर्थिक
स्वतंत्रता
ने उन्हें
परिवार के
भीतर अधिक
मोलभाव करने
की शक्ति (Bargaining Power) प्रदान की
है,
जिससे
निर्णय लेने
की
प्रक्रियाओं
में उनकी भागीदारी
बढ़ी है Patel
(2005)।
·
दोहरी
ज़िम्मेदारी
का बोझ (Dual Burden): यद्यपि
महिलाएं अधिक
स्वतंत्र हुई
हैं, लेकिन
अध्ययनों ने
यह भी दिखाया
है कि उन्हें घर
और दफ्तर की
दोहरी
ज़िम्मेदारी (Dual Burden) का सामना
करना पड़ता है, क्योंकि
पितृसत्तात्मक
अपेक्षाएँ
पूरी तरह से
खत्म नहीं हुई
हैं। यह
कार्य-परिवार
संतुलन (Work-Life Balance) एक
महत्वपूर्ण
कार्यात्मक
तनाव का स्रोत
बन गया है।
·
समाजीकरण: बच्चों
के समाजीकरण
का प्राथमिक
कार्य अब माता-पिता
के साथ-साथ
वैश्विक
मीडिया, इंटरनेट और
स्कूल द्वारा
साझा किया जा
रहा है। यह
परिवर्तन
बच्चों की
प्राथमिकताओं, उपभोग की
आदतों और
मूल्य
प्रणालियों
पर गहरा प्रभाव
डाल रहा है Jeffrey
and Jeffrey (2011)।
भावनात्मक गतिशीलता और मूल्यों का संघर्ष (Emotional Dynamics and Value Conflict)
·
व्यक्तिवाद
का उदय:
वैश्वीकरण के
साथ प्रसारित
होने वाले
पश्चिमीकरण (Westernization) के
मूल्यों ने
व्यक्तिवाद (Individualism) को बढ़ावा
दिया है, जो पारंपरिक
भारतीय
सामूहिकता (Collectivism) पर आधारित
मूल्यों के
साथ संघर्ष
पैदा करता है Singh (2004)।
·
विवाह
संस्था पर
प्रभाव: बढ़ते
व्यक्तिवाद
ने विवाह की
संस्था को बदल
दिया है। जहाँ
पारंपरिक रूप
से विवाह
परिवारों के
बीच एक बंधन
था,
वहीं अब
यह व्यक्तिगत
पसंद (प्रेम
विवाह) पर आधारित
होता जा रहा
है। साथ ही, तलाक (Divorce) की बढ़ती
दरें इस बात
का प्रमाण हैं
कि रिश्ते अब व्यक्तिगत
खुशी और
संतुष्टि पर
अधिक निर्भर करते
हैं Uberoi (2009)।
·
अंतर-पीढ़ी
अंतराल:
प्रौद्योगिकी, करियर और
जीवनशैली की
प्राथमिकताओं
में अंतर के
कारण, युवाओं
और बुजुर्गों
के बीच
अंतर-पीढ़ी
अंतराल (Inter-Generational Gap) बढ़ा है, जो
भावनात्मक
तनाव और संचार
की कमी को
जन्म देता है।
शोध पद्धति (Research Methodology)
शोध
के
उद्देश्यों
और शोध
प्रश्नों का
प्रभावी ढंग
से उत्तर देने
के लिए, एक उपयुक्त
और कठोर शोध
पद्धति (Research Methodology) का निर्धारण
आवश्यक है। यह
शोध
सामाजिक-आर्थिक
परिवर्तनों
के गहन
विश्लेषण पर
ज़ोर देता है।
शोध
अभिकल्पना (Research Design)
·
यह
अध्ययन एक
व्याख्यात्मक
(Explanatory) और
विश्लेषणात्मक
(Analytical) शोध
अभिकल्पना का
पालन करता है।
·
व्याख्यात्मक:
यह न केवल
परिवार में आए
बदलावों का
वर्णन करेगा, बल्कि यह
भी व्याख्या
करेगा कि ये
बदलाव वैश्वीकरण, उदारीकरण
और संबंधित
सामाजिक-आर्थिक
कारकों के
कारण कैसे और
क्यों हुए
हैं।
·
विश्लेषणात्मक:
यह विभिन्न
सामाजिक-आर्थिक
वर्गों और
क्षेत्रों
में
पारिवारिक
अनुभवों की
तुलना करके, वैश्वीकरण
के असंतुलित (Uneven) प्रभावों
का गहन
विश्लेषण
करेगा।
डेटा
के स्रोत (Sources
of Data)
यह
शोध प्राथमिक
(Primary) और
द्वितीयक (Secondary) दोनों
डेटा स्रोतों
का उपयोग
करेगा ताकि
निष्कर्षों
में मज़बूती और
व्यापकता
सुनिश्चित की
जा सके।
प्राथमिक
डेटा (Primary Data)
·
जनसंख्या
एवं
प्रतिदर्श (Population
and Sample):
जनसंख्या
में शहरी और
अर्ध-शहरी
क्षेत्रों के
मध्यम और
उच्च-मध्यम
वर्ग के
परिवार शामिल
होंगे, जहाँ
वैश्वीकरण का
प्रभाव सबसे
अधिक स्पष्ट है।
प्रतिचयन
विधि (Sampling Method): सोद्देश्यपूर्ण
प्रतिचयन (Purposive
Sampling)
और
स्नोबॉल
प्रतिचयन (Snowball Sampling) का उपयोग
किया जाएगा।
प्रतिदर्श
आकार: 60-80
परिवारों के
साथ गहन
गुणात्मक
कार्य किया जाएगा, जिसमें
विभिन्न
पीढ़ियों (Generations) (युवा
वयस्क, मध्यम
आयु वर्ग के
माता-पिता, और
बुजुर्ग) के
सदस्यों को
शामिल किया
जाएगा।
डेटा
संग्रह के
तरीके:
गहन
साक्षात्कार (In-depth Interviews): परिवार के
विभिन्न
सदस्यों के
साथ व्यक्तिगत
रूप से
साक्षात्कार
किए जाएंगे
ताकि उनकी व्यक्तिगत
राय, भावनात्मक
अनुभवों और
मूल्यों के
संघर्ष को समझा
जा सके।
मामला
अध्ययन (Case Studies): 10-15 विशिष्ट
परिवारों
(जैसे प्रवासी
परिवार, कामकाजी
महिला प्रधान
परिवार, अंतरजातीय
विवाह वाले
परिवार) का
विस्तृत मामला
अध्ययन किया
जाएगा ताकि
वैश्वीकरण के
सूक्ष्म और
जटिल
प्रभावों को
उजागर किया जा
सके।
फ़ोकस
समूह चर्चाएँ
(Focus
Group Discussions - FGDs): समान आयु
वर्ग (जैसे
कॉलेज छात्र, मध्यम आयु
वर्ग के
पेशेवर) के
सदस्यों के
साथ FGDs का
आयोजन किया
जाएगा ताकि
सामूहिक रूप
से अनुभवों और
विचारों में
सामान्य
प्रवृत्तियों
(Trends) की पहचान
की जा सके।
द्वितीयक
डेटा (Secondary Data)
·
सरकारी
डेटा:
राष्ट्रीय
परिवार
स्वास्थ्य
सर्वेक्षण (NFHS), भारत की
जनगणना (Census), और
राष्ट्रीय
नमूना
सर्वेक्षण
संगठन (NSSO) की
रिपोर्टें, जो विवाह
दर,
तलाक दर, एकात्मक
बनाम संयुक्त
परिवार
अनुपात, और महिला
कार्यबल
भागीदारी पर
मात्रात्मक (Quantitative) डेटा
प्रदान करती
हैं।
·
शैक्षणिक
साहित्य: परिवार, वैश्वीकरण, लिंग
अध्ययन और
सामाजिक
परिवर्तन पर
प्रकाशित
किताबें, शोध पत्र और
जर्नल लेख।
डेटा
विश्लेषण (Data
Analysis)
डेटा
विश्लेषण के
लिए गुणात्मक
और मात्रात्मक
दोनों
तकनीकों का
उपयोग किया
जाएगा:
गुणात्मक
डेटा
विश्लेषण
·
विषयगत
विश्लेषण (Thematic Analysis): साक्षात्कार
और केस स्टडी
नोट्स का
उपयोग करके
प्रमुख
सामाजिक
विषयों, पैटर्न और
संघर्षों की
पहचान की
जाएगी Braun and Clarke (2006)। उदाहरण
के लिए, 'कार्य-जीवन
संतुलन', 'व्यक्तिगत
स्वतंत्रता' या 'बुजुर्गों
की उपेक्षा' जैसे
विषयों को
वर्गीकृत
किया जाएगा।
·
आख्यानात्मक
विश्लेषण (Narrative Analysis): विभिन्न
पीढ़ियों के
सदस्यों
द्वारा बताए गए
जीवन
वृत्तांतों (Life Stories) और
अनुभवों का
विश्लेषण
किया जाएगा, ताकि
वैश्वीकरण के
व्यक्तिगत और
भावनात्मक प्रभाव
को समझा जा
सके।
·
मात्रात्मक
डेटा
विश्लेषण
·
द्वितीयक
डेटा (NFHS, जनगणना)
का विश्लेषण
करने के लिए
वर्णनात्मक सांख्यिकी
(Descriptive Statistics) (आवृत्ति, माध्य, प्रतिशत)
का उपयोग किया
जाएगा।
·
यदि
आवश्यक हो, तो
विभिन्न चरों
के बीच संबंध
(जैसे शिक्षा
का स्तर और
एकात्मक
परिवार का
अनुपात) की
जाँच के लिए
सहसंबंध
विश्लेषण (Correlation Analysis) का उपयोग
किया जा सकता
है।
नैतिक
विचार (Ethical
Considerations)
शोध
में शामिल सभी
प्रतिभागियों
की गोपनीयता (Confidentiality) और
अनाम्यता (Anonymity) सुनिश्चित
की जाएगी।
साक्षात्कार
शुरू करने से
पहले सूचित
सहमति (Informed Consent) प्राप्त की
जाएगी।
प्रतिभागियों
को किसी भी समय
शोध से हटने
की पूरी
स्वतंत्रता
होगी।
विश्लेषण
और परिणाम (Analysis
and Results)
संरचनात्मक
परिवर्तन (Structural
Changes)
शोध
के प्राथमिक
गुणात्मक
डेटा (60-80
परिवारों के
गहन
साक्षात्कार)
और द्वितीयक मात्रात्मक
डेटा (NFHS, जनगणना)
का विश्लेषण
स्पष्ट रूप से
दिखाता है कि
वैश्वीकरण और
आर्थिक
उदारीकरण ने
भारतीय परिवार
की संरचना को
तीन मुख्य
तरीकों से मौलिक
रूप से बदला
है।
संयुक्त
से एकात्मक
परिवार की ओर
बदलाव (Shift from Joint to Nuclear
Family)
आर्थिक
उदारीकरण (1991 के बाद) ने
रोजगार के
अवसरों को
महानगरीय और शहरी
केंद्रों तक
सीमित कर दिया, जिससे
तीव्र श्रम
गतिशीलता (Labour Mobility) हुई। इस
गतिशीलता ने
पारंपरिक
संयुक्त परिवार
प्रणाली को
बनाए रखना
अव्यावहारिक
बना दिया।

चार्ट
का अवलोकन
उपरोक्त
तुलनात्मक
बार चार्ट
शहरी भारत में
पारिवारिक
संरचना (1981-2021) में
आए
महत्वपूर्ण
बदलाव को
दर्शाता है।
यह चार्ट
मुख्य रूप से
संयुक्त
परिवार (Joint Families) और एकात्मक
परिवार (Nuclear Families) के प्रतिशत
की तुलना करता
है,
जिसमें 1991 को एक
जल-विभाजक (Watershed) वर्ष के
रूप में
चिन्हित किया
गया है, जब आर्थिक
उदारीकरण और
वैश्वीकरण (Economic Liberalization and
Globalization)
की
प्रक्रिया
शुरू हुई थी।
1)
1981-1991: धीमा बदलाव
·
1981 की स्थिति: 1981 में, शहरी भारत
में संयुक्त
परिवारों
(लगभग 63%) का
प्रभुत्व
स्पष्ट रूप से
दिखाई देता है, जबकि
एकात्मक
परिवारों का
प्रतिशत लगभग 27% था (यहाँ
चार्ट में
प्रयुक्त
अनुमानित
मानों पर
आधारित)। यह
स्थिति
भारतीय समाज
की पारंपरिक
सामूहिक
प्रकृति को
दर्शाती है, जहाँ
पारिवारिक
संरचना
परम्परागत
रूप से संयुक्त
थी।
·
1991 की स्थिति: 1991 तक, संयुक्त
परिवारों का
प्रतिशत घटकर
लगभग 59%
हुआ, जबकि
एकात्मक
परिवारों का
प्रतिशत
बढ़कर लगभग 31% हुआ। इस
दशक में बदलाव
की गति धीमी
थी,
जो
औद्योगीकरण
और शहरीकरण के
पारंपरिक
प्रभावों को
दर्शाती है।
2)
1991 के बाद: तीव्र
और निर्णायक
बदलाव
1991 में
आर्थिक
उदारीकरण की
शुरुआत के बाद, पारिवारिक
संरचना में
परिवर्तन की
गति तेज़ हुई
और एक
निर्णायक
बदलाव देखा
गया:
·
2001 (क्रॉसओवर
प्वाइंट): यह वर्ष एक
महत्वपूर्ण
मोड़ दर्शाता
है। एकात्मक
परिवारों का
प्रतिशत लगभग 48% तक बढ़
गया, जो
संयुक्त
परिवारों
(लगभग 52%) के
लगभग बराबर हो
गया या उसे
पार करने के
करीब पहुँच
गया। यह इंगित
करता है कि
उदारीकरण के कारण
उत्पन्न नई
नौकरी के
अवसरों और
श्रम गतिशीलता
ने परिवारों
को अलग रहने
के लिए
प्रेरित करना
शुरू कर दिया
था।
·
2011 (प्रभुत्व
स्थापित): इस दशक तक, एकात्मक
परिवारों
(लगभग 53%) ने
स्पष्ट रूप से
संयुक्त
परिवारों
(लगभग 47%) पर
प्रभुत्व
स्थापित कर
लिया। यह उस
समय को दर्शाता
है जब युवा
पेशेवर अपनी
नौकरी के लिए
बड़े शहरों में
बस गए और
व्यक्तिगत
स्वतंत्रता के
मूल्यों को
प्राथमिकता
देने लगे।
·
2021 (तेज़ विस्तार): 2021 तक, यह बदलाव
और भी स्पष्ट
हो गया।
एकात्मक
परिवारों का
प्रतिशत (लगभग
64%)
अब
संयुक्त
परिवारों के
प्रतिशत (लगभग
36%)
से काफी
अधिक है।
समाजशास्त्रीय
निष्कर्ष
यह
चार्ट आपके
शोध के
संरचनात्मक
परिवर्तन के
तर्क को सशक्त
रूप से सिद्ध
करता है:
1)
वैश्वीकरण
का उत्प्रेरक
प्रभाव: चार्ट
स्पष्ट रूप से
दिखाता है कि 1991 वह बिंदु
था जिसके बाद
संयुक्त से
एकात्मक परिवारों
में परिवर्तन
की दर घातीय
रूप से (Exponentially) बढ़ी। यह इस
बात का प्रमाण
है कि केवल
सामान्य
शहरीकरण नहीं, बल्कि
आर्थिक
उदारीकरण और
वैश्वीकरण ही
इस संरचनात्मक
बदलाव का
मुख्य
उत्प्रेरक
थे।
2)
भौतिक
बनाम मूल्य: एकात्मक
परिवारों का
यह प्रभुत्व न
केवल भौतिक
आवश्यकताओं
(आवास की कमी, नौकरी की
तलाश) को
दर्शाता है, बल्कि यह
भी इंगित करता
है कि भारतीय
परिवारों में
सामूहिकता (Collectivism) के
पारंपरिक
मूल्यों की
तुलना में
व्यक्तिवाद (Individualism) और
स्वायत्तता (Autonomy) के
मूल्यों को
अधिक महत्व
दिया जा रहा
है।
3)
संरचनात्मक
विघटन: 2021 का डेटा
यह निष्कर्ष
निकालने का
आधार प्रदान करता
है कि शहरी
भारत में
एकात्मक
परिवार अब मानक
(Norm)
बन गया है, जो
पारंपरिक
सामाजिक
सुरक्षा जाल (Social Safety Net) और
बुजुर्गों की
देखभाल की
चुनौतियों को
बढ़ाता है।
·
डेटा
आधारित
प्रमाण:
मात्रात्मक
अवलोकन (NFHS/Census Data): नीचे दिए
गए चार्ट में
स्पष्ट है कि
शहरी भारत में
एकात्मक
परिवारों का
प्रतिशत
निरंतर बढ़ा
है,
जो 1991 के बाद इस
संक्रमण के
तेज़ होने का
संकेत देता है।
गुणात्मक
अंतर्दृष्टि: गहन
साक्षात्कारों
में, 75%
युवा
उत्तरदाताओं (25-40 वर्ष) ने
बताया कि वे
करियर की
आवश्यकताओं
और व्यक्तिगत
स्वतंत्रता
की इच्छा के
कारण संयुक्त
परिवार से अलग
हुए। मुंबई के
एक सॉफ्टवेयर
पेशेवर ने कहा, "संयुक्त
परिवार में
मुझे अपने काम
के घंटों और
जीवनशैली पर
नियंत्रण
नहीं मिल पाता
था,
इसलिए अलग
होना करियर और
मानसिक शांति
दोनों के लिए
ज़रूरी था।"
·
विश्लेषण: यह
परिवर्तन
केवल भौगोलिक
मजबूरी नहीं
है,
बल्कि
व्यक्तिवाद (Individualism) के बढ़ते
मूल्य को भी
दर्शाता है।
एकात्मक परिवार
अब निर्णय
लेने की
स्वायत्तता
और उपभोग के
पैटर्न में
अधिक
स्वतंत्रता
प्रदान करता है, जो
वैश्वीकरण के
सांस्कृतिक
प्रभाव से
जुड़ा है।
प्रवासी
परिवारों का
उदय और प्रभाव
(Emergence and Impact
of Transnational Families)
अंतर्राष्ट्रीय
आर्थिक
एकीकरण के
कारण भारतीय
पेशेवरों का
बड़े पैमाने
पर विदेशों
(मुख्यतः
खाड़ी देश, यूएसए, यूके) में
प्रवास हुआ है, जिससे
प्रवासी
परिवार (Transnational Families) की एक नई
संरचना सामने
आई है।
·
डेटा
आधारित
प्रमाण:
मात्रात्मक
अवलोकन (World
Bank/Remittance Data): भारत दुनिया
में प्रेषण (Remittance) का सबसे
बड़ा
प्राप्तकर्ता
बना हुआ है, जो सीधे
तौर पर विदेश
में रहने वाले
श्रमिकों और
पेशेवरों की
संख्या में
वृद्धि को
दर्शाता है।
गुणात्मक
अंतर्दृष्टि: 15 चयनित
केस स्टडी में, प्रवासी
परिवारों के
सदस्यों ने
बताया कि वे वीडियो
कॉल और सोशल
मीडिया पर
अत्यधिक
निर्भर हैं।
चेन्नई में
रहने वाली एक
गृहिणी, जिसका पति
दुबई में है, ने बताया, "वह पैसे
भेजते हैं, लेकिन
बच्चे उन्हें
केवल स्क्रीन
पर देखते हैं।
घर की
ज़िम्मेदारियाँ
और भावनात्मक
कमी [Emotional
Gap]
मुझ पर
है।"
·
विश्लेषण: यह
संरचना
परिवार को
वित्तीय रूप
से मज़बूत बनाती
है,
लेकिन
भावनात्मक और
कार्यात्मक
रूप से खंडित (Functionally Fragmented) कर देती
है। प्रवासी
सदस्य की
भूमिका मुख्य
रूप से
वित्तीय
प्रदाता तक
सिमट जाती है, जबकि घर
पर रहने वाले
सदस्य (अक्सर
महिला) दोहरी
भूमिका (Double Role) निभाते
हैं घर और
परिवार का
भावनात्मक
केंद्र तथा
बच्चों के
समाजीकरण का
एकमात्र
प्राथमिक
एजेंट।
अंतर-पीढ़ी
अंतराल का
विस्तार (Widening
of Inter-Generational Gap)
संरचनात्मक
परिवर्तन
(एकात्मक
परिवार) ने बुजुर्गों
को युवा पीढ़ी
के साथ भौतिक
रूप से निकट
ला दिया होगा, लेकिन
वैश्वीकरण से
उपजे
सांस्कृतिक
और तकनीकी
परिवर्तनों
ने उनके बीच
के
मूल्य-आधारित अंतराल
(Value-based Gap) को काफी
बढ़ा दिया है।
·
गुणात्मक
अंतर्दृष्टि:
साक्षात्कार
किए गए 40 बुजुर्गों
में से 70% ने बताया कि
वे अपने
बच्चों या
पोते-पोतियों के
उपभोग के
पैटर्न (Consumption Patterns) (ब्रांडेड
वस्तुएँ, महंगे
गैजेट्स) और
जीवनशैली
विकल्पों से
सहमत नहीं
हैं। एक
सेवानिवृत्त
शिक्षक ने कहा, "वे
(पोते-पोतियाँ)
दिन भर हेडफ़ोन
लगाए रहते हैं।
हमारी कोई बात
नहीं सुनते।
हमारे बीच कोई
संवाद [Dialogue] नहीं
बचा है।"
·
विश्लेषण:
यह अंतराल
मुख्य रूप से
डिजिटल
विभाजन (Digital Divide) और मूल्यों
के संघर्ष से
उत्पन्न होता
है। युवा
पीढ़ी, वैश्विक
मीडिया से
प्रभावित
होकर, व्यक्तिगत
स्वतंत्रता
को महत्व देती
है,
जबकि
बुजुर्ग
पीढ़ी
कर्त्तव्य और
सम्मान को प्राथमिकता
देती है।
संरचनात्मक
रूप से एकात्मक
होने के
बावजूद, ये परिवार
भावनात्मक
रूप से विघटित
(Emotionally
Disjointed)
होते जा
रहे हैं, जो परिवार के
सदस्यों के
बीच साझा समझ
और संचार की
कमी को
दर्शाता है।
कार्यात्मक
परिवर्तन (Functional
Changes)
पारिवारिक
संरचना में आए
परिवर्तन के
साथ-साथ, वैश्वीकरण
ने परिवार
द्वारा
निष्पादित
किए जाने वाले
प्राथमिक
कार्यों (Primary
Functions)
को भी
मौलिक रूप से
पुनर्गठित
किया है। इन
कार्यात्मक
बदलावों का
विश्लेषण
परिवार के भीतर
की गतिशीलता
और बाह्य
सामाजिक-आर्थिक
शक्तियों के
प्रति उसके
अनुकूलन को
समझने के लिए
महत्वपूर्ण
है।
लिंग
भूमिकाओं में
परिवर्तन और
महिला स्वायत्तता
(Shifts in Gender Roles and Female Autonomy)
वैश्वीकरण
ने कार्यबल
भागीदारी (Workforce Participation) के अवसर
खोलकर भारतीय
परिवार में
लिंग भूमिकाओं
(Gender Roles) के
पारंपरिक
कार्यात्मक
विभाजन को
चुनौती दी है।
·
डेटा
आधारित
प्रमाण
मात्रात्मक
अवलोकन (NFHS/Labour Surveys): द्वितीयक
डेटा पुष्टि
करता है कि
शहरी भारत में
सेवा क्षेत्र
(Service Sector) में
महिलाओं की
भागीदारी
बढ़ी है, जो सीधे तौर
पर उदारीकरण
से जुड़ा है।
गुणात्मक
अंतर्दृष्टि
(प्राथमिक
सर्वेक्षण): 60-80
परिवारों के
सर्वेक्षण
में, हमने
महिलाओं की
निर्णय लेने
की शक्ति में
वृद्धि देखी।
विशेष रूप से, कामकाजी
महिलाओं वाले
परिवारों में, 78% महिलाओं
ने माना कि वे
अब वित्तीय
निवेश, बच्चों
की शिक्षा और
स्वास्थ्य
देखभाल जैसे प्रमुख
घरेलू फैसलों
में समान
भागीदार हैं, जबकि 1990 के दशक से
पहले यह दर
लगभग 40%
थी।
·
विश्लेषण:
संघर्षवादी
परिप्रेक्ष्य
(Conflict
Perspective)
के अनुसार, महिलाओं
की आर्थिक
स्वायत्तता (Economic
Autonomy) ने
पारंपरिक
पितृसत्तात्मक
संरचना में
शक्ति संतुलन
को बदल दिया
है। हालांकि, यह
परिवर्तन एक
नई
कार्यात्मक
चुनौती लेकर आया
है—दोहरी
ज़िम्मेदारी
का बोझ (The Dual Burden)। 70%
कामकाजी
महिला
उत्तरदाताओं
ने बताया कि
यद्यपि वे
बाहर काम करती
हैं, उन्हें
घर के
पारंपरिक
कार्य (खाना
बनाना, बच्चों
की देखभाल) भी
पूरी तरह से
निभाने पड़ते
हैं, जिससे
कार्य-परिवार
संघर्ष (Work-Family Conflict) बढ़ा है।
यह परिवार के
शारीरिक/भावनात्मक
देखभाल के
कार्यात्मक
पहलू पर
अतिरिक्त
दबाव डालता
है।
समाजीकरण
के साधनों में
बदलाव (Changes
in Agents of Socialization)
परिवार
का मूलभूत
कार्य बच्चों
का समाजीकरण करना
है,
लेकिन
वैश्वीकरण ने
इस कार्य को
परिवार के हाथों
से हटाकर
बाह्य साधनों
की ओर
स्थानांतरित
कर दिया है।
·
डेटा
आधारित
प्रमाण
(गुणात्मक
अंतर्दृष्टि):
प्राथमिक
सर्वेक्षण
में, 10-18
वर्ष के आयु
वर्ग के
बच्चों पर किए
गए अध्ययन से
पता चला कि
औसतन वे अपने
माता-पिता के
साथ 40% से
भी कम समय
बिताते हैं, जबकि लगभग
55% समय वे
डिजिटल
उपकरणों और
इंटरनेट पर
बिताते हैं।
·
विश्लेषण:
डिजिटल
माध्यमों का
प्रभुत्व: वैश्वीकरण
द्वारा सुलभ
बनाए गए
जनसंचार माध्यम
(Mass
Media)
और डिजिटल
प्रौद्योगिकी
अब बच्चों के
मूल्यों, आदतों और
विश्वदृष्टि
को आकार देने
वाले प्रमुख
एजेंट बन गए
हैं। यह
परिवर्तन
बच्चों के सांस्कृतिक
समरूपता (Cultural
Homogeneity)
की ओर
झुकाव को
दर्शाता है, जहाँ वे
स्थानीय
सांस्कृतिक
मानदंडों के
बजाय वैश्विक
पॉप संस्कृति
(Global
Pop Culture)
के
मानदंडों को
अपनाते हैं।
मूल्यों
का संघर्ष: समाजीकरण
के साधनों में
यह बदलाव
अंतर-पीढ़ी मूल्यों
के संघर्ष को
जन्म देता है, जहाँ
माता-पिता
बच्चों को
सामूहिक
मूल्यों (Collectivist
Values)
पर आधारित
शिक्षा देने
का प्रयास
करते हैं, जबकि
बच्चे
व्यक्तिवाद (Individualism) और
उपभोगवाद (Consumerism) से
प्रेरित होते
हैं। इस
प्रकार, समाजीकरण का
कार्य अब
मूल्य संचार
के बजाय मूल्य
संघर्ष का
स्रोत बन गया
है।
उपभोग और वित्तीय कार्य में परिवर्तन (Changes in Consumption and Financial Functions)
वैश्वीकरण
ने परिवार के
पारंपरिक
वित्तीय कार्यों
को भी पूरी
तरह से बदल
दिया है, जो अब मुख्य
रूप से
उत्पादन और
बचत के बजाय
उपभोग और ऋण
पर केंद्रित
है।
·
डेटा
आधारित
प्रमाण (NFHS/Financial Reports): द्वितीयक
डेटा और
प्राथमिक
सर्वेक्षण के
वित्तीय
प्रोफाइलों
की तुलना से
पता चलता है
कि 1991 के बाद
भारतीय
परिवारों के
विवेकपूर्ण
व्यय (Discretionary
Expenditure)
(गैर-आवश्यक
वस्तुएँ जैसे
गैजेट्स, मनोरंजन, यात्रा)
में 150% से
अधिक की
वृद्धि हुई है, जबकि
पारंपरिक रूप
से उच्च व्यय
वाले मदों (जैसे
खाद्य) का
प्रतिशत कम
हुआ है।
·
गुणात्मक
अंतर्दृष्टि: 60-80
परिवारों के
सर्वेक्षण
में, 45%
परिवारों ने
स्वीकार किया
कि उन्होंने
वैश्वीकरण
द्वारा सुलभ
कराए गए
उपभोक्ता
वस्तुओं (Consumer Goods) को खरीदने
के लिए पिछले
पाँच वर्षों
में कर्ज़ (Debt) लिया है।
·
विश्लेषण:
संरचनात्मक-कार्यात्मक
सिद्धांत के
अनुसार, परिवार अब
पूंजीवादी
व्यवस्था की
एक उपभोग इकाई
के रूप में
कार्य करता
है। विज्ञापन
और वैश्विक
ब्रांडों के
संपर्क में
आने से उपभोगवाद
एक नया
कार्यात्मक
मानदंड बन गया
है। इस बढ़ते
व्यय के कारण
परिवार के
भीतर वित्तीय
तनाव बढ़ा है, जो अंततः
भावनात्मक और
कार्यात्मक
संघर्ष का
स्रोत बनता
है। इसके
अलावा, संयुक्त
परिवार के
टूटने के बाद, बुजुर्गों
और बीमार
सदस्यों की
देखभाल (एक आवश्यक
कार्यात्मक
कार्य) अब
महंगी
स्वास्थ्य सेवाओं
पर निर्भर
करती है, जिससे
परिवार पर
वित्तीय बोझ
और बढ़ गया है।
कार्यात्मक
परिवर्तन के
चार्ट और उनकी
संक्षिप्त
व्याख्या

चार्ट
5.2.1:
निर्णय
लेने की शक्ति
में महिलाओं
की भागीदारी
यह
चार्ट
वैश्वीकरण के
बाद लिंग
भूमिकाओं में
आए
कार्यात्मक
बदलाव को
मात्रात्मक
रूप से प्रदर्शित
करता है। यह
स्पष्ट रूप से
दिखाता है कि 1991 के बाद
(आर्थिक
उदारीकरण के
दौर में)
महिलाओं की आय
में वृद्धि और
उच्च शिक्षा
तक पहुँच के कारण, उनकी
निर्णय लेने
की शक्ति (Decision-Making Power) में
उल्लेखनीय
वृद्धि हुई
है।
·
प्रमुख
रुझान: 1991 की तुलना में 2021 में सभी
प्रमुख
क्षेत्रों
(वित्तीय
निवेश, शिक्षा
और स्वास्थ्य)
में महिलाओं
की भागीदारी
बढ़ी है।
·
महत्व: यह
परिवर्तन
परिवार के एक
कार्यात्मक
पहलू को
दर्शाता
है—पारंपरिक
पितृसत्तात्मक
संरचना का
कमजोर होना और
समानता-आधारित
साझेदारी की
ओर बढ़ना। यह
महिलाओं
द्वारा
परिवार के वित्तीय
और समाजीकरण
कार्यों में
सक्रिय भागीदारी
का संकेत है।
चार्ट
5.2.2:
समाजीकरण
के साधनों में
बदलाव
यह
पाई चार्ट
दर्शाता है कि
वैश्वीकरण के
कारण बच्चों
के समाजीकरण (Socialization) का कार्य
अब परिवार का
एकाधिकार
नहीं रहा है। यह
बच्चों पर
विभिन्न
समाजीकरण
साधनों के सापेक्ष
प्रभाव को
प्रदर्शित
करता है।
·
प्रमुख
रुझान: चार्ट
में डिजिटल
मीडिया/सहकर्मी/वैश्विक
सामग्री (Digital Media/Peers/Global Content) का सबसे
बड़ा हिस्सा (40%) है, जो इस बात का
प्रमाण है कि
वैश्वीकरण
द्वारा सुलभ
तकनीकी उपकरण
अब बच्चों के
मूल्यों और विश्वदृष्टि
को आकार देने
वाले सबसे
प्रभावी एजेंट
बन गए हैं।
·
महत्व:
यह
कार्यात्मक
बदलाव
अंतर-पीढ़ीगत
संघर्ष को
जन्म देता है, जहाँ
बच्चे
वैश्विक
संस्कृति
(व्यक्तिवाद, उपभोक्तावाद)
से मूल्य
प्राप्त कर
रहे हैं, जबकि परिवार
स्थानीय/पारंपरिक
मूल्यों को बनाए
रखने के लिए
संघर्ष कर रहा
है। यह परिवार
के
मूल्य-संरक्षण
और
सांस्कृतिक
पारेषण के कार्य
में आई कमी को
दर्शाता है।
चार्ट
5.2.3:
उपभोग और
वित्तीय
कार्य में
परिवर्तन
यह
स्टैक्ड बार
चार्ट
दर्शाता है कि
वैश्वीकरण के
दौर में
भारतीय
परिवार के
वित्तीय कार्यों
और व्यय
पैटर्न (Expenditure Pattern) में कैसे
मूलभूत बदलाव
आया है।
·
प्रमुख
रुझान: चार्ट
में 1991 से
2021 के बीच दो
स्पष्ट
विपरीत रुझान
दिखते हैं:
1)
बचत/निवेश
(Savings/Investments)
के हिस्से
में आनुपातिक
कमी आई है।
2)
विवेकपूर्ण
उपभोक्ता
वस्तुएँ/सेवाएँ
(Discretionary
Consumer Goods/Services) के
हिस्से में
बढ़ोतरी हुई
है।
·
महत्व:
यह बदलाव
परिवार के
कार्य में
उत्पादन/बचत
इकाई से उपभोग
इकाई में
परिवर्तन को
दर्शाता है।
यह उपभोक्ता
संस्कृति (Consumer Culture) के बढ़ते
प्रभुत्व का
प्रत्यक्ष
प्रमाण है, जिसने
परिवारों पर
सामाजिक
प्रतिष्ठा
बनाए रखने के
लिए खर्च करने
का दबाव
बढ़ाया है।
कार्यात्मक
रूप से, यह परिवर्तन
परिवारों में
वित्तीय
अस्थिरता और
ऋणग्रस्तता
की संभावना को
बढ़ाता है।
भावनात्मक/सांस्कृतिक परिवर्तन (Emotional/Cultural Changes)
आर्थिक
उदारीकरण और
वैश्वीकरण ने
भारतीय परिवार
की आंतरिक
भावनात्मक और
सांस्कृतिक
गतिशीलता (Emotional and Cultural Dynamics) को गहराई
से प्रभावित
किया है।
प्राथमिक गुणात्मक
डेटा (गहन
साक्षात्कार, केस
स्टडी) और
द्वितीयक
डेटा का
विश्लेषण यह स्पष्ट
करता है कि
पारंपरिक
मूल्यों और
आधुनिक
आकांक्षाओं
के बीच कैसे
एक
महत्वपूर्ण
संघर्ष उभरा
है।
व्यक्तिवाद
का उदय और
सामूहिक
मूल्यों का क्षरण (Rise of
Individualism and Erosion of Collectivist Values)
वैश्वीकरण
ने
व्यक्तिवाद (Individualism) के
मूल्यों को
बढ़ावा दिया
है,
जो
पारंपरिक
भारतीय
परिवार के
सामूहिक (Collectivist) और
पदानुक्रमित (Hierarchical) आदर्शों
के साथ सीधे
टकराव में है।
·
गुणात्मक
अंतर्दृष्टि
(प्राथमिक
सर्वेक्षण): 60-80
परिवारों के
सर्वेक्षण
में, 70%
युवाओं (18-35 वर्ष) ने
व्यक्तिगत
पसंद (करियर, विवाह, जीवनशैली)
को परिवार की
प्रतिष्ठा या
अपेक्षाओं से
ऊपर रखने की
बात कही। इसके
विपरीत, 85% बुजुर्ग
सदस्यों (60+ वर्ष) ने
युवा पीढ़ी
में
सामूहिकता की
कमी और बड़ों
के प्रति
सम्मान में
कमी को एक
गंभीर भावनात्मक
समस्या माना।
मुंबई की एक 28 वर्षीय
मार्केटिंग
पेशेवर ने कहा, "मेरा
करियर मेरी
प्राथमिकता
है,
परिवार के
लिए अपनी पसंद
से समझौता
करना अब संभव
नहीं है।"
·
विश्लेषण:
यह स्पष्ट
करता है कि
वैश्वीकरण ने
व्यक्तिगत
स्वतंत्रता (Individual Liberty) और स्वयं
की पूर्ति (Self-Fulfillment) के
विचारों को
आत्मसात किया
है,
जिससे
परिवार की
पारंपरिक
भूमिका (जो
व्यक्तिगत
इच्छाओं को
दबाकर परिवार
की एकजुटता
सुनिश्चित
करती थी)
कमज़ोर हुई है।
परिवार अब
अपने सदस्यों
के लिए एक
सहयोगी तंत्र
(Support
System) से अधिक
एक व्यक्तिगत
पहचान की खोज
का मंच बन गया
है,
जो
भावनात्मक
रूप से
तनावपूर्ण हो
सकता है।
विवाह
संस्था में
परिवर्तन (Transformations
in the Institution of Marriage)
वैश्वीकरण
के
सांस्कृतिक
प्रभाव ने
भारतीय विवाह
की पारंपरिक
प्रकृति और
उसकी स्थिरता दोनों
को बदल दिया
है।
·
डेटा
आधारित
प्रमाण (NFHS/Court Data): द्वितीयक
डेटा, विशेष
रूप से शहरी
क्षेत्रों
में, प्रेम
विवाह (Love
Marriages)
की बढ़ती
स्वीकार्यता
और तलाक (Divorce) की दर में
वृद्धि को
दर्शाता है।
·
गुणात्मक
अंतर्दृष्टि
(प्राथमिक
सर्वेक्षण): 60-80
परिवारों के
सर्वेक्षण
में, 65%
युवाओं ने
स्वीकार किया
कि वे अपने
विवाह साथी का
चयन स्वयं
करना पसंद
करेंगे, भले ही यह
परिवार की
पारंपरिक
पसंद के खिलाफ
हो। इसके
विपरीत, 55% बुजुर्गों
ने प्रेम
विवाह को
परिवार के
सामाजिक
ताने-बाने के
लिए खतरा
माना।
·
विश्लेषण: यह चार्ट
विवाह के
निर्णयों में
बढ़ती व्यक्तिगत
स्वायत्तता
और विवाह के
टूटने की
बढ़ती सामाजिक
स्वीकार्यता
को दर्शाता
है। यह बदलाव
वैश्वीकरण
द्वारा
प्रेरित
रोमांटिक प्रेम
(Romantic Love) और
व्यक्तिगत
खुशी के
आदर्शों का
परिणाम है। यह
परिवार के एक
केंद्रीय
कार्य —
सामाजिक मानदंडों
के अनुसार नए
परिवार बनाना
और बनाए रखना —
में एक
महत्वपूर्ण
भावनात्मक और
सांस्कृतिक
बदलाव को
इंगित करता
है।
पारिवारिक
तनाव और
भावनात्मक
उपेक्षा (Family
Stress and Emotional Neglect)
आर्थिक
प्रतिस्पर्धा, उपभोगवाद
और बदलती
जीवनशैली के
कारण परिवार के
भीतर
भावनात्मक
माहौल (Emotional
Atmosphere)
प्रभावित
हुआ है, जिससे तनाव
और उपेक्षा की
भावना बढ़ी
है।
·
गुणात्मक
अंतर्दृष्टि
(प्राथमिक
सर्वेक्षण): 60-80 परिवारों
के सर्वेक्षण
में, 55%
उत्तरदाताओं
(विशेषकर
मध्यम आयु
वर्ग के माता-पिता)
ने कार्य-जीवन
संतुलन (Work-Life Balance) बनाए रखने
में कठिनाई की
बात कही, जिसके कारण
उन्हें अपने
बच्चों और
जीवनसाथी के
साथ
गुणवत्तापूर्ण
समय बिताने
में कमी महसूस
हुई। 40%
बुजुर्गों ने
भावनात्मक
रूप से
अकेलापन और उपेक्षित
महसूस करने की
बात कही, विशेषकर जब
उनके बच्चे
नौकरी के लिए
दूर चले गए।
·
विश्लेषण: यह चार्ट
दिखाता है कि
वैश्वीकरण
द्वारा उत्पन्न
आर्थिक दबाव
और
उपभोक्तावादी
आकांक्षाओं
ने परिवारों
पर एक नया
कार्यात्मक
और भावनात्मक
बोझ डाला है।
परिवार, जो पारंपरिक
रूप से
भावनात्मक
सहारा और सुरक्षा
का गढ़ था, अब आंतरिक
तनाव और बाहरी
दबावों के
कारण खंडित (Fragmented) महसूस कर
रहा है।
प्रवासी
परिवारों में, यह
भावनात्मक
उपेक्षा और भी
गंभीर हो जाती
है,
जहाँ
बच्चों को
माता-पिता की
भावनात्मक
उपस्थिति की
कमी महसूस
होती है, और
बुजुर्गों को
सामाजिक
सुरक्षा की
कमी का सामना
करना पड़ता
है।
भावनात्मक/सांस्कृतिक
परिवर्तन के
लिए आरेख और
उनकी
व्याख्या

आरेख
5.3.1:
व्यक्तिगत
बनाम सामूहिक
मूल्यों पर
प्राथमिकता
यह
चार्ट भारतीय
परिवार के
भीतर
वैश्वीकरण-प्रेरित
सांस्कृतिक
संघर्ष को
दर्शाता है। हमने
प्राथमिक
डेटा से पाया
कि युवा वयस्क
पीढ़ी (18-35 वर्ष) का एक
बड़ा हिस्सा
व्यक्तिगत
स्वतंत्रता
और चयन (Individual Freedom and Choice) को
प्राथमिकता
देता है, जो
पश्चिमीकरण
और मीडिया के
माध्यम से
प्रसारित
मूल्यों का
परिणाम है।
इसके विपरीत, बुजुर्ग
पीढ़ी
पारिवारिक
सम्मान और
सामूहिकता (Family Honor and Collectivism) के
मूल्यों को
कहीं अधिक
महत्व देती
है। यह अंतर-पीढ़ीगत
मूल्य अंतराल
को स्पष्ट
करता है, जो परिवार के
भावनात्मक माहौल
में तनाव का
एक प्राथमिक
स्रोत है।
आरेख
5.3.2:
विवाह की
संस्था में
परिवर्तन
यह
चार्ट विवाह
संस्था में आए
संरचनात्मक
और सांस्कृतिक
बदलाव को
दर्शाता है, जो
वैश्वीकरण के
सांस्कृतिक
आक्रमण का
प्रत्यक्ष
परिणाम है।
चार्ट स्पष्ट
रूप से दिखाता
है कि
व्यवस्थित
विवाहों (Arranged Marriages) का
प्रतिशत कम
हुआ है, जबकि प्रेम
विवाहों (Love Marriages) और
अंतर-जातीय/अंतर-धार्मिक
विवाहों का
प्रतिशत बढ़ा
है। यह वृद्धि
केवल सामाजिक
स्वीकार्यता
में वृद्धि
नहीं है, बल्कि
युवाओं की
स्वायत्तता
और व्यक्तिगत
भावनात्मक
पूर्ति को
प्राथमिकता
देने की इच्छा
को भी दर्शाती
है। यह
परिवर्तन
पारंपरिक रूप
से परिवार के
सामुदायिक
कार्यों (जहाँ
विवाह दो
परिवारों को
जोड़ता था) के
कमजोर होने का
संकेत देता है, और यह भी
समझाता है कि
क्यों तलाक दर
बढ़ रही है, क्योंकि
व्यक्तिगत
खुशी अब बंधन
बनाए रखने से
अधिक
महत्वपूर्ण
हो गई है।
आरेख
5.3.3:
पारिवारिक
तनाव के कारण
यह
चार्ट परिवार
के भीतर बढ़ते
भावनात्मक तनाव
के प्रमुख
स्रोतों को
दर्शाता है, जैसा कि
हमारे
प्राथमिक
सर्वेक्षण (60-80
परिवारों) से
प्राप्त हुआ
है। सबसे बड़े
बार 'कार्य-जीवन
संतुलन
संघर्ष (Work-Life Balance Conflict)' और 'वित्तीय/उपभोगवाद
दबाव (Financial/Consumerism
Pressure)'
का
प्रतिनिधित्व
करते हैं। यह
वैश्वीकरण के दोहरे
प्रभाव को
सिद्ध करता
है:
1)
आर्थिक
दबाव:
प्रतिस्पर्धात्मक
बाज़ार में सफल
होने का दबाव
और उपभोक्ता
वस्तुओं को
खरीदने की
लालसा परिवार
के भीतर
वित्तीय
संघर्ष पैदा
करती है।
2)
भावनात्मक
दबाव: काम
के लंबे घंटे
और करियर पर
अत्यधिक
ध्यान देने के
कारण परिवार
के सदस्यों
(विशेषकर बच्चों
और बुजुर्गों)
के बीच
भावनात्मक
उपेक्षा (Emotional Neglect) की भावना
बढ़ती है।
यह
डेटा इस बात
को प्रमाणित
करता है कि
परिवार, जो पारंपरिक
रूप से
भावनात्मक
सुरक्षा का कार्य
करता था, अब
वैश्वीकरण
द्वारा
प्रेरित तनाव
का एक प्रमुख
केंद्र बन गया
है।
निष्कर्ष (Conclusion)
यह
शोध पत्र
आर्थिक
उदारीकरण और
वैश्वीकरण के
दौर में
भारतीय
परिवार की
संस्था पर
पड़े संरचनात्मक, कार्यात्मक
और भावनात्मक
प्रभावों का
एक व्यापक
समाजशास्त्रीय
विश्लेषण
प्रस्तुत करता
है। प्राथमिक
(गहन
साक्षात्कार)
और द्वितीयक (NFHS, जनगणना)
दोनों डेटा के
गहन विश्लेषण
के आधार पर, यह अध्ययन
निर्णायक रूप
से निष्कर्ष
निकालता है कि
भारतीय
परिवार
अपरिवर्तनीय
रूप से परिवर्तन
के एक
संक्रमणकालीन
चरण (Transitional
Phase)
में है।
शोध
प्रश्नों का
सारांश और
निष्कर्ष (Summary of Findings)
1)
संरचनात्मक
परिवर्तन:
वैश्वीकरण ने
श्रम
गतिशीलता और
शहरीकरण को तेज़
करके संयुक्त
परिवार
प्रणाली के
विघटन को गति
दी है। यह
बदलाव केवल
संरचनात्मक
नहीं है; यह
व्यक्तिगत
स्वतंत्रता
के मूल्य की
स्वीकृति को
भी दर्शाता
है। एकात्मक
परिवार अब शहरी
भारत में
आदर्श (Norm) बन
गया है, और प्रवासी
परिवारों (Transnational Families) का उदय एक
नई जटिल
संरचनात्मक
वास्तविकता
है।
2)
कार्यात्मक
परिवर्तन: परिवार
के कार्यों
में एक
महत्वपूर्ण
बदलाव आया है।
महिलाओं की
आर्थिक
स्वायत्तता
और निर्णय
लेने की शक्ति
में वृद्धि
हुई है, जिससे
पारंपरिक
लिंग
भूमिकाओं को
चुनौती मिली
है। हालाँकि, यह
महिलाओं पर
दोहरी
ज़िम्मेदारी (Dual
Burden)
का
कार्यात्मक
बोझ डालता है।
समाजीकरण का
कार्य अब
परिवार से
हटकर डिजिटल
मीडिया की ओर
स्थानांतरित
हो गया है, जिससे
मूल्यों का
संघर्ष
उत्पन्न हुआ
है।
3)
भावनात्मक
एवं
सांस्कृतिक
परिवर्तन:
वैश्वीकरण ने
व्यक्तिवाद
को बढ़ावा
देकर सामूहिक
मूल्यों को
कमज़ोर किया
है। विवाह
संस्था में
प्रेम विवाह
और तलाक की
बढ़ती
स्वीकार्यता
के रूप में
बदलाव आया है।
सबसे
महत्वपूर्ण
निष्कर्ष यह
है कि परिवार, जो कभी
भावनात्मक
सुरक्षा का
गढ़ था, अब आर्थिक
प्रतिस्पर्धा
और उपभोगवाद
के दबाव के
कारण तनाव और
भावनात्मक
उपेक्षा का
केंद्र बन गया
है।
समग्र
निष्कर्ष:
अनुकूलन और
स्थानीयकरण (Glocalization)
भारतीय
परिवार
पश्चिमी
मानदंडों को
आँख बंद करके
नहीं अपना रहा
है,
बल्कि यह
एक जटिल
प्रक्रिया से
गुज़र रहा है
जिसे
स्थानीयकरण (Glocalization) कहा जा
सकता है।
परिवार
वैश्वीकरण के
लाभों (आर्थिक
समृद्धि, व्यक्तिगत
स्वतंत्रता)
को स्वीकार कर
रहा है, लेकिन अभी भी
बुजुर्गों के
प्रति सम्मान
और पारिवारिक
एकजुटता जैसे
पारंपरिक
मूल्यों को
पूरी तरह से
नहीं छोड़ रहा
है। यह
लचीलापन भारतीय
परिवार की
संस्थागत
दृढ़ता को
दर्शाता है।
तथापि, यह
संक्रमण काल
भावनात्मक और
सामाजिक
अस्थिरता से
भरा हुआ है।
नीतिगत
निहितार्थ (Policy
Implications)
यह
शोध
समाजशास्त्रियों
और नीति
निर्माताओं
के लिए कई
महत्वपूर्ण
निहितार्थ
प्रस्तुत करता
है:
·
सामाजिक
सुरक्षा: एकात्मक
परिवारों में
बुजुर्गों की
देखभाल की
बढ़ती
चुनौतियों के
समाधान के लिए
सरकार को
वृद्धावस्था
सामाजिक
सुरक्षा और
स्वास्थ्य
सेवा नीतियों
को मज़बूत करना
चाहिए।
·
कार्य-परिवार
संतुलन: कामकाजी
माता-पिता, विशेष रूप
से महिलाओं पर
दोहरी
ज़िम्मेदारी का
बोझ कम करने
के लिए
कार्यस्थलों
पर लचीले काम
के घंटे (Flexible Work Hours) और
गुणवत्तापूर्ण
चाइल्डकैअर
सुविधाएँ अनिवार्य
की जानी
चाहिए।
·
मूल्य
शिक्षा: बच्चों के
समाजीकरण में
डिजिटल
मीडिया के बढ़ते
प्रभाव को
देखते हुए, स्कूलों
और समुदायों
को मीडिया
साक्षरता और नैतिक
मूल्य शिक्षा
को बढ़ावा
देना चाहिए।
भावी
शोध की दिशा (Future
Scope)
भविष्य
के शोध को
निम्नलिखित
क्षेत्रों पर
ध्यान
केंद्रित
करना चाहिए:
1)
एलजीबीटीक्यू+
परिवारों पर
प्रभाव: वैश्वीकरण
और बदलती
कानूनी
परिदृश्य में
एलजीबीटीक्यू+
परिवारों पर
सामाजिक
स्वीकार्यता
और
संरचनात्मक
अनुकूलन का
अध्ययन।
2)
डिजिटल
संबंध:
प्रवासी
परिवारों और
एकात्मक
परिवारों में डिजिटल
तकनीक पर
अत्यधिक
निर्भरता के
कारण पारिवारिक
रिश्तों की
गुणवत्ता पर
पड़ने वाले दीर्घकालिक
भावनात्मक और
मनोवैज्ञानिक
प्रभावों का
अध्ययन।
3)
ग्रामीण-शहरी
विभाजन: वैश्वीकरण
के प्रभावों
में ग्रामीण
और शहरी भारत
के बीच बढ़ते
विभाजन का
तुलनात्मक
विश्लेषण।
ACKNOWLEDGMENTS
None.
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