WOMEN'S
IDENTITY AND SOCIAL REALITY IN MRIDULA GARG'S FICTION
मृदुला गर्ग के कथा-साहित्य में स्त्री अस्मिता और सामाजिक यथार्थ
Dr. Fedora Barwa 1
1 Assistant Professor (Hindi), Government
J.P. Verma Postgraduate Arts & Commerce College, Bilaspur (Chhattisgarh), India
|
ABSTRACT |
||
English: Hindi
fiction has been a mirror of society and life since its inception. Both its
subject matter and craft have changed over time. In the modern era, when
reality and social problems became the focus of literature, fiction expressed
the complexities and contradictions of life with a new attitude. In this
context, the contribution of Mridula Garg, a renowned writer of contemporary
Hindi literature, is particularly noteworthy. In her novels and stories, she
deeply explored the issues of women's identity, freedom, and existence. In
Mridula Garg's fiction, women are not merely objects of sympathy or figures
limited to traditional roles, but rather, they are independent and struggling
individuals. Novels like Chittakobra, Uske Hisse Ki Dhoop, and Anitya
are powerful testaments to a woman's inner conflict, her desire for
independence, and her courage to confront social conventions. Her stories
also clearly reflect the complexities of urban life, the contradictions of
middle-class families, and the impact of consumerist culture. Her literature
is not limited to women's issues, but also provides an authentic portrayal of
broader social reality. She has depicted family structure, the institution of
marriage, the inequality in male-female relationships, and changing social
norms in such a way that the reader is not only confronted with the reality
of life but is also inspired to reflect on it. Her language is simple, lucid,
and conversational, effectively revealing the psychological depth of the
characters. The conclusion of this study is that Mridula Garg's fiction offers a new vision and sensibility to Hindi literature. Her work simultaneously embraces the voice of women's freedom, the urge for social justice, and a realistic portrayal of the ironies of modern life. This is why her literature is as relevant today as it was in her time and will continue to influence the direction of Hindi fiction in the future. Hindi: हिंदी कथा-साहित्य अपने आरंभ से ही समाज और जीवन का दर्पण रहा है। इसमें समय के साथ-साथ विषयवस्तु और शिल्प दोनों में परिवर्तन हुआ है। आधुनिक काल में जब साहित्य का केंद्र यथार्थ और सामाजिक समस्याएँ बनीं, तब कथा-साहित्य ने एक नए तेवर के साथ जीवन की जटिलताओं और अंतर्विरोधों को अभिव्यक्ति दी। इसी कड़ी में समकालीन हिंदी साहित्य की सुविख्यात लेखिका मृदुला गर्ग का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में स्त्री अस्मिता, स्वतंत्रता और अस्तित्व के प्रश्नों को गहराई से प्रस्तुत किया। मृदुला गर्ग के कथा-साहित्य में स्त्री केवल सहानुभूति की पात्र या परंपरागत भूमिकाओं में सीमित आकृति नहीं है, बल्कि एक स्वतंत्र और संघर्षशील व्यक्तित्व है। चित्तकोबरा, उसके हिस्से की धूप और अनित्य जैसे उपन्यास स्त्री के अंतर्द्वंद्व, स्वतंत्रता की आकांक्षा और सामाजिक रूढ़ियों से टकराने के साहस का सशक्त प्रमाण हैं। उनकी कहानियों में भी शहरी जीवन की जटिलताएँ, मध्यमवर्गीय परिवार की विसंगतियाँ और उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। उनका साहित्य केवल स्त्री विमर्श तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यापक सामाजिक यथार्थ का भी प्रामाणिक चित्रण करता है। पारिवारिक संरचना, विवाह संस्था, स्त्री-पुरुष संबंधों की असमानता और बदलती सामाजिक मान्यताओं को उन्होंने इस प्रकार उकेरा है कि पाठक न केवल जीवन की यथार्थता से रू-ब-रू होता है, बल्कि उस पर विचार करने के लिए भी प्रेरित होता है। उनकी भाषा सरल, प्रांजल और संवादप्रधान है, जिसमें पात्रों की मनोवैज्ञानिक गहराई प्रभावशाली ढंग से सामने आती है। इस अध्ययन का निष्कर्ष यह है कि मृदुला गर्ग का कथा-साहित्य हिंदी साहित्य को नई दृष्टि और संवेदना प्रदान करता है। उनके साहित्य में स्त्री स्वतंत्रता का स्वर, सामाजिक न्याय का आग्रह और आधुनिक जीवन की विडंबनाओं का यथार्थवादी चित्रण एक साथ उपस्थित है। यही कारण है कि उनका साहित्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना अपने समय में था और भविष्य में भी हिंदी कथा-साहित्य की दिशा को प्रभावित करता रहेगा। |
|||
Received 17 July 2025 Accepted 08 August 2025 Published 17 September 2025 DOI 10.29121/granthaalayah.v13.i8.2025.6362 Funding: This research
received no specific grant from any funding agency in the public, commercial,
or not-for-profit sectors. Copyright: © 2025 The
Author(s). This work is licensed under a Creative Commons
Attribution 4.0 International License. With the
license CC-BY, authors retain the copyright, allowing anyone to download,
reuse, re-print, modify, distribute, and/or copy their contribution. The work
must be properly attributed to its author. |
|||
Keywords: Mridula Garg, Fiction, Women's Identity,
Social Reality, Family Structure, Modernity, Hindi
Novel, Women's Discourse मृदुला
गर्ग, कथा-साहित्य, स्त्री
अस्मिता, सामाजिक
यथार्थ
पारिवारिक
संरचना, आधुनिकता, हिंदी
उपन्यास, स्त्री
विमर्श |
1. प्रस्तावना
साहित्य
का उद्देश्य
केवल
सौंदर्य-बोध
या भावनाओं की
अभिव्यक्ति
नहीं है, बल्कि
समाज के
जीवन-मूल्यों, संघर्षों
और
अंतर्विरोधों
का दर्पण
प्रस्तुत
करना भी है।
हिंदी
साहित्य में
कथा-साहित्य
की भूमिका
इसलिए सबसे
अधिक
महत्त्वपूर्ण
है क्योंकि यह
व्यक्ति और
समाज दोनों के
जीवन को
संपूर्णता
में व्यक्त
करता है।
कथा-साहित्य
में हमें समय
की बदलती
परिस्थितियों
और मानव जीवन
के विविध
अनुभवों का
दस्तावेज
मिलता है। यह
विधा मनुष्य
के आंतरिक और
बाह्य जीवन दोनों
को एक साथ
प्रस्तुत
करती है।
हिंदी
कथा-साहित्य
की परंपरा में
यथार्थवाद की
धारा ने विशेष
महत्त्व
अर्जित किया।
प्रेमचंद
जैसे
साहित्यकारों
ने किसानों, मजदूरों, स्त्रियों
और दलितों की
समस्याओं को
केंद्र में
रखकर साहित्य
को सामाजिक
परिवर्तन का
माध्यम
बनाया। इसके
बाद यशपाल ने
प्रगतिवाद के माध्यम
से
वर्ग-संघर्ष
और समाजवाद को
साहित्य का
विषय बनाया, जबकि
अज्ञेय और
मोहन राकेश ने
नई कहानी के
माध्यम से
व्यक्ति की
अंतः
संवेदनाओं और
मनोवैज्ञानिक
द्वंद्व को
अभिव्यक्ति
दी। इस प्रकार
हिंदी
कथा-साहित्य
ने निरंतर समय
के साथ अपने
स्वरूप को
बदला और समाज
की बदलती
जरूरतों के
अनुरूप नई
दिशा ग्रहण
की।
इसी
परंपरा में
मृदुला गर्ग
का उदय हुआ।
उन्होंने
अपने
उपन्यासों और
कहानियों में
आधुनिक शहरी
जीवन की
विडंबनाओं, पारिवारिक
ढाँचों की
जटिलताओं और
स्त्री अस्मिता
के प्रश्न को
नई दृष्टि दी।
वे केवल स्त्री-स्वतंत्रता
की वकालत करने
वाली लेखिका नहीं
हैं, बल्कि
उन्होंने
स्त्री-पुरुष
संबंधों, पारिवारिक
ताने-बाने और
सामाजिक
संरचनाओं में
छिपी
विसंगतियों
को गहराई से
उकेरा। उनकी रचनाओं
में स्त्री को
एक संघर्षशील
और आत्मनिर्भर
इकाई के रूप
में चित्रित
किया गया है, जो
केवल पुरुष की
छाया में नहीं
जीती,
बल्कि अपने
अस्तित्व और अस्मिता
के लिए निरंतर
संघर्ष करती
है।
मृदुला
गर्ग का
कथा-साहित्य
आधुनिक हिंदी
साहित्य में
स्त्री चेतना
की उस धारा को
आगे बढ़ाता है, जो
स्त्री को
परंपरागत
भूमिकाओं से
मुक्त कर उसकी
स्वतंत्र
पहचान की खोज
करता है। उनके
साहित्य में
समाज की
रूढ़ियों और
पितृसत्तात्मक
मानसिकता की
तीखी आलोचना
मिलती है। यही
कारण है कि
उनका साहित्य
केवल नारी
विमर्श तक सीमित
नहीं है, बल्कि
समाज की
व्यापक
संरचनाओं और
मानव जीवन की
जटिलताओं का
भी प्रामाणिक
दस्तावेज है।
2. हिंदी कथा-साहित्य की संकल्पना और विकास
कथा-साहित्य
हिंदी
साहित्य की
प्रमुख विधाओं
में से एक है, जिसमें
समाज और जीवन
की जटिलताओं
को कलात्मक रूप
में व्यक्त
किया जाता है।
कथा शब्द अपने
मूल में ही
जीवन की
घटनाओं,
अनुभवों और
परिस्थितियों
के वर्णन का
संकेत देता
है। इस दृष्टि
से
कथा-साहित्य
केवल कल्पना
का खेल नहीं
है, बल्कि
जीवन के
यथार्थ का
कलात्मक
पुनर्निर्माण
है।
साहित्यकार
अपने समय और
समाज को कथा-साहित्य
के माध्यम से
चित्रित करता
है और इस प्रकार
कथा-साहित्य
समाज का दर्पण
बन जाता है।
हिंदी
कथा-साहित्य
की ऐतिहासिक
यात्रा अत्यंत
समृद्ध और
विस्तृत है।
आदिकालीन लोक
कथाओं,
दंतकथाओं और
पुराण
आख्यानों से
लेकर आधुनिक उपन्यासों
और कहानियों
तक इसकी विकास
यात्रा
निरंतर बदलती
सामाजिक और
सांस्कृतिक
परिस्थितियों
के अनुरूप रही
है। पंचतंत्र
और जातक कथाओं
जैसी कृतियों
ने
कथा-साहित्य
को नैतिक
शिक्षा और
जीवन-मूल्यों
से जोड़ा, वहीं
भक्ति कालीन
आख्यानों में
धार्मिकता और
भक्ति भाव की
प्रधानता
दिखाई दी।
किंतु इन सबके
बीच
कथा-साहित्य
का मूल
उद्देश्य
जीवन की व्याख्या
करना और समाज
को दिशा
प्रदान करना ही
रहा।
आधुनिक
काल में
कथा-साहित्य
ने नए स्वरूप
ग्रहण किए। 19वीं
शताब्दी में
उपन्यास और
कहानी जैसी
विधाओं ने
हिंदी
साहित्य में
प्रवेश किया
और साहित्यिक
परिदृश्य बदल
गया।
भारतेन्दु
हरिश्चंद्र
के युग में
गद्य को न
केवल सशक्त
अभिव्यक्ति
मिली,
बल्कि
कथा-साहित्य
ने भी
आधुनिकता की
दिशा में कदम
बढ़ाया। इस काल
में उपन्यास
विधा का उद्भव
हुआ, जो
आगे चलकर
हिंदी
साहित्य का
सबसे
प्रभावशाली
माध्यम बना।
20वीं
शताब्दी के
प्रारंभ में
प्रेमचंद ने
कथा-साहित्य
को यथार्थवाद
की ठोस जमीन
पर खड़ा किया।
उनकी रचनाओं
ने किसानों, मजदूरों, स्त्रियों
और समाज के
उपेक्षित
वर्गों की पीड़ा
को स्वर दिया।
गोदान,
निर्मला और
कफन जैसी
कृतियाँ न
केवल साहित्यिक
दृष्टि से
उत्कृष्ट
हैं, बल्कि
सामाजिक
दृष्टि से भी
महत्वपूर्ण
दस्तावेज
हैं।
प्रेमचंद के
बाद यशपाल ने
प्रगतिवादी
दृष्टिकोण
अपनाया और
साहित्य को
समाजवादी
चिंतन तथा
वर्ग-संघर्ष
से जोड़ा।
स्वतंत्रता-उपरांत
काल में
कथा-साहित्य
ने नई
प्रवृत्तियों
को जन्म दिया।
नई कहानी आंदोलन
ने
व्यक्ति-जीवन
की आंतरिक
जटिलताओं और
मनोवैज्ञानिक
गहराइयों को
सामने लाया।
मोहन राकेश, राजेंद्र
यादव और
कमलेश्वर
जैसे लेखकों
ने इस धारा को
आगे बढ़ाया। इस
दौर में
कथा-साहित्य केवल
सामाजिक
समस्याओं तक
सीमित न रहकर
व्यक्ति की
आत्मगत
संवेदनाओं का
भी दर्पण बना।
इसके
समानांतर
आंचलिक
साहित्य ने भी
हिंदी कथा-साहित्य
को समृद्ध
किया।
फणीश्वरनाथ
रेणु के मैला
आंचल में
ग्रामीण जीवन, उसकी
समस्याएँ और
उसकी विशेष
सांस्कृतिक
पहचान को
चित्रित किया
गया। आंचलिक
साहित्य ने कथा-साहित्य
को भारतीय
समाज की
विविधताओं और बहुलताओं
से जोड़ा।
आज के युग
में
कथा-साहित्य
ने वैश्वीकरण, नगरीकरण, तकनीकी
विकास और
स्त्री
विमर्श जैसे
नए विषयों को
अपनाया है।
समकालीन
लेखकों ने
शहरी जीवन की
विडंबनाओं, मध्यमवर्गीय
तनावों और
वैश्विक
पूँजीवाद की
चुनौतियों को
अपनी
कहानियों और
उपन्यासों में
स्थान दिया।
स्त्री
अस्मिता और
दलित चेतना भी
आधुनिक
कथा-साहित्य
के केंद्र में
आ गई है।
इस प्रकार, हिंदी
कथा-साहित्य
का इतिहास यह
स्पष्ट करता है
कि यह विधा
निरंतर
विकासशील रही
है और प्रत्येक
युग में समाज
के यथार्थ को
नए रूप में प्रस्तुत
करती रही है।
यह केवल
साहित्यिक
अभिव्यक्ति
नहीं,
बल्कि समाज
की दिशा और
दशा को समझने
का माध्यम भी
है।
3. मृदुला गर्ग के कथा-साहित्य में स्त्री अस्मिता और स्वतंत्रता
हिंदी
कथा-साहित्य
में मृदुला
गर्ग का योगदान
सबसे
महत्त्वपूर्ण
इसलिए है
क्योंकि उन्होंने
स्त्री को
साहित्यिक
विमर्श का
केंद्र बनाया।
उनके साहित्य
में स्त्री की
अस्मिता, स्वतंत्रता
और अस्तित्व
की खोज
बार-बार प्रकट
होती है। वे
स्त्री को
केवल
सहानुभूति की
पात्र या
दबी-कुचली
इकाई के रूप
में नहीं
प्रस्तुत
करतीं,
बल्कि उसे
जीवन की
नायिका और
संघर्षशील
चेतना के रूप
में चित्रित
करती हैं।
मृदुला गर्ग मानती
हैं कि स्त्री
की
स्वतंत्रता
केवल बाहरी
सामाजिक
ढाँचे से
मुक्ति पाने
में ही नहीं, बल्कि
उसकी
मानसिकता और
आत्मचेतना
में भी निहित
है। जब तक
स्त्री अपने
भीतर से स्वतंत्र
नहीं होगी, तब
तक उसकी बाहरी
स्वतंत्रता
अधूरी रहेगी।
उनके
उपन्यास
“चित्तकोबरा“
स्त्री
अस्मिता और
स्वतंत्रता
की दृष्टि से
विशेष रूप से
उल्लेखनीय
है। इसमें
नायिका समाज
की परंपरागत
मान्यताओं और
व्यक्तिगत
आकांक्षाओं
के बीच द्वंद्व
से गुजरती है।
यह रचना यह
दर्शाती है कि
स्त्री को
हमेशा दूसरों
की अपेक्षाओं
के अनुसार
जीवन जीने के
लिए बाध्य
किया जाता है, किंतु
भीतर ही भीतर
वह अपने
व्यक्तित्व
की पूर्णता की
खोज करती है।
चित्तकोबरा
की नायिका का
संघर्ष इस बात
का प्रतीक है
कि स्त्री अब
मौन और समर्पण
की मूर्ति
नहीं रहना
चाहती,
बल्कि वह
स्वयं अपनी
राह बनाना
चाहती है।
इसी
प्रकार उसके
हिस्से की धूप
स्त्री स्वतंत्रता
का घोष है। इस
उपन्यास में
मृदुला गर्ग ने
यह स्पष्ट
किया है कि
स्त्री को
समाज और परिवार
से अपने
हिस्से का
जीवन माँगने
का पूरा अधिकार
है। उपन्यास
की नायिका
अपने हिस्से
की धूप अर्थात
अपने
अस्तित्व की
पहचान और
स्वतंत्रता
की आकांक्षा
रखती है। यह
रचना इस तथ्य
को उजागर करती
है कि स्त्री
की पहचान केवल
उसके संबंधों, विशेषकर
पति या परिवार
की परिभाषा से
तय नहीं की
जानी चाहिए, बल्कि
उसकी
स्वतंत्र
चेतना और
आत्मसम्मान से
निर्धारित
होनी चाहिए।
उनकी
रचनाओं में
स्त्री-
स्वतंत्रता
का प्रश्न
बहुआयामी रूप
में उपस्थित
होता है। सबसे
पहले यह
शारीरिक और
सामाजिक
स्वतंत्रता
का प्रश्न है-
क्या स्त्री
को यह अधिकार
है कि वह अपने
जीवन की दिशा
स्वयं तय करे? दूसरा
प्रश्न है
मानसिक और
भावनात्मक
स्वतंत्रता
का- क्या
स्त्री अपने
विचारों, इच्छाओं
और
आकांक्षाओं
को स्वतंत्र
रूप से व्यक्त
कर सकती है? और
तीसरा प्रश्न
है आर्थिक
स्वतंत्रता
का- क्या
स्त्री अपने
श्रम और
प्रतिभा के बल
पर आत्मनिर्भर
हो सकती है? मृदुला
गर्ग ने इन
तीनों स्तरों
पर स्त्री स्वतंत्रता
की आवश्यकता
को रेखांकित
किया है। उनकी
कहानियों में
भी स्त्री
अस्मिता और
स्वतंत्रता
का स्वर
तीव्रता से
उपस्थित है।
उनकी
नायिकाएँ
परंपरागत नैतिक
मान्यताओं और
सामाजिक
रूढ़ियों से
टकराती हैं।
वे केवल
परंपराओं को
निभाने वाली
गृहिणी या माँ
की भूमिका में
सीमित नहीं
रहतीं,
बल्कि अपने
अस्तित्व के
प्रश्न को
उठाती हैं। इस
संघर्ष में
कभी वे अकेली
पड़ जाती हैं, तो
कभी समाज से
अस्वीकार का
सामना करती
हैं, किंतु
वे हार नहीं
मानतीं। यही
जुझारूपन मृदुला
गर्ग की
स्त्री
पात्रों की
असली शक्ति है।
मृदुला
गर्ग का
स्त्री
विमर्श
पश्चिमी नारीवाद
से प्रभावित
अवश्य है, किंतु
यह पूरी तरह
भारतीय
सामाजिक
संदर्भों से
जुड़ा हुआ है।
वे यह मानती
हैं कि भारतीय
स्त्री का
संघर्ष अलग
तरह का है।
यहाँ स्त्री न
केवल
पितृसत्तात्मक
व्यवस्था से
जूझती है, बल्कि
वह सामाजिक, धार्मिक
और
सांस्कृतिक
रूढ़ियों से भी
संघर्ष करती
है। इस दृष्टि
से मृदुला
गर्ग का साहित्य
भारतीय
स्त्री
विमर्श की
वास्तविकता
को अधिक
प्रामाणिकता
से सामने लाता
है। उनकी भाषा
और शैली भी
स्त्री
अस्मिता को
मुखर बनाने में
सहायक है। वे
जटिल विचारों
को सरल और
प्रांजल भाषा
में प्रस्तुत
करती हैं।
उनके संवाद वास्तविक
जीवन की तरह
लगते हैं और
पात्रों की मनोवैज्ञानिक
गहराई को
उजागर करते
हैं। यही कारण
है कि उनकी
रचनाएँ केवल
साहित्यिक
कृतियाँ न
होकर
स्त्रियों के
जीवन का जीवंत
दस्तावेज
प्रतीत होती
हैं।
स्त्री
अस्मिता और
स्वतंत्रता
का प्रश्न केवल
व्यक्तिगत
स्तर तक सीमित
नहीं है, बल्कि यह
सामाजिक
संरचना पर भी
प्रश्नचिह्न लगाता
है। मृदुला
गर्ग के
कथा-साहित्य
में यह स्वर
बार-बार सुनाई
देता है कि जब
तक समाज स्त्री
को स्वतंत्र
और समान
अधिकार नहीं
देगा,
तब तक
वास्तविक
लोकतंत्र और
सामाजिक
न्याय संभव
नहीं है। उनकी
रचनाएँ इस
दृष्टि से
केवल साहित्यिक
प्रयोग नहीं
हैं, बल्कि
सामाजिक
चेतना को
जगाने वाले
घोष भी हैं।
इस प्रकार
मृदुला गर्ग
का
कथा-साहित्य
हिंदी साहित्य
में स्त्री
अस्मिता और
स्वतंत्रता का
सबसे प्रखर
स्वर है।
उन्होंने
स्त्री को पीड़िता
या दया की
पात्र के रूप
में नहीं, बल्कि
संघर्षशील और
स्वतंत्र
व्यक्तित्व के
रूप में
प्रस्तुत
किया। उनकी
रचनाएँ यह संदेश
देती हैं कि
स्त्री भी
पुरुष की
भाँति एक पूर्ण
मानव है और
उसे अपने
हिस्से का
जीवन,
सम्मान और
स्वतंत्रता
पाने का पूरा
अधिकार है।
4. मृदुला गर्ग के उपन्यासों में सामाजिक यथार्थ
हिंदी
कथा-साहित्य
में सामाजिक
यथार्थ का चित्रण
सदैव एक
केंद्रीय
तत्व रहा है।
प्रेमचंद से
लेकर
फणीश्वरनाथ
रेणु तक, लेखकों ने
समाज के
यथार्थ को
अपने साहित्य
का मूल आधार
बनाया। इसी
परंपरा को
मृदुला गर्ग ने
आगे बढ़ाया और
अपने
उपन्यासों
में आधुनिक समाज
की जटिलताओं, विरोधाभासों
और पारिवारिक
संरचना की
विसंगतियों
का गहन चित्रण
किया। उनके
उपन्यास केवल
काल्पनिक
आख्यान नहीं
हैं, बल्कि
वे हमारे समय
और समाज का
जीवंत
दस्तावेज
प्रतीत होते
हैं।
मृदुला
गर्ग का
साहित्य
मुख्य रूप से
शहरी मध्यवर्गीय
जीवन पर
केंद्रित है।
यह वर्ग आधुनिकता
की ओर बढ़ रहा
है, किंतु
परंपरा की
जकड़न से पूरी
तरह मुक्त
नहीं हो पाया
है। इसी
द्वंद्व ने
सामाजिक
यथार्थ को और
अधिक जटिल बना
दिया है। उनके
उपन्यास “चित्तकोबरा“
में यह
द्वंद्व
स्पष्ट दिखाई
देता है।
उपन्यास की
नायिका
पारंपरिक
पारिवारिक मूल्यों
और अपनी
स्वतंत्र
आकांक्षाओं
के बीच झूलती
है। यहाँ
परिवार को
केवल स्थिर और
सुरक्षित
संस्था के रूप
में नहीं, बल्कि
एक ऐसे ढाँचे
के रूप में
प्रस्तुत
किया गया है, जो
व्यक्ति की
स्वतंत्रता
और अस्मिता को
बाँधता भी है
और कभी-कभी
तोड़ता भी है।
“उसके हिस्से
की धूप“ में
पारिवारिक संरचना
और सामाजिक
यथार्थ का
अधिक गहन
चित्रण मिलता
है। इस
उपन्यास में
स्त्री पात्र
अपने हिस्से
का जीवन
माँगती है।
पारिवारिक
ढाँचा उसके
लिए आश्रय
नहीं,
बल्कि बंधन
है। यहाँ
मृदुला गर्ग
यह स्पष्ट करती
हैं कि परिवार
की संस्था
अक्सर स्त्री
के अधिकारों
और
स्वतंत्रता
को सीमित कर
देती है।
नायिका जब
अपने हिस्से
की धूप चाहती
है, तो
वास्तव में वह
अपनी पहचान और
स्वतंत्रता की
माँग कर रही
होती है।
मृदुला
गर्ग का तीसरा
महत्त्वपूर्ण
उपन्यास
“अनित्य“
आधुनिक समाज
की विडंबनाओं
को उजागर करता
है। इसमें
उन्होंने
पारिवारिक
रिश्तों की
अस्थिरता और
सामाजिक
नैतिकता की
जटिलताओं को
प्रस्तुत
किया है।
परिवार के
भीतर के संघर्ष, पीढ़ियों
के बीच की खाई
और आधुनिकता
से उपजे तनाव
उनके कथानक का
हिस्सा बनते
हैं। इस
प्रकार परिवार
को उन्होंने
केवल रक्त
संबंधों का समूह
नहीं माना, बल्कि
उसे समाज का
वह लघु रूपक
बताया है जहाँ
सभी
अंतर्विरोध
और संघर्ष
सजीव रूप से
मौजूद रहते
हैं।
उनके
उपन्यासों
में
पारिवारिक
संरचना केवल विवाह
और गृहस्थी तक
सीमित नहीं
रहती। वे इसमें
स्त्री-पुरुष
संबंधों की
असमानता, बच्चों की
परवरिश,
पीढ़ियों के
बीच टकराव और
सामाजिक
अपेक्षाओं के
दबाव को भी
सम्मिलित
करती हैं।
उदाहरण स्वरूप, “चित्तकोबरा“
में विवाह
संस्था पर गहन
प्रश्न उठाए
गए हैं।
नायिका विवाह
को केवल
सामाजिक सुरक्षा
के रूप में
स्वीकार नहीं
करती,
बल्कि वह
उसमें समानता
और
स्वतंत्रता
चाहती है। यह
दृष्टि
भारतीय समाज
की उस
पारंपरिक मानसिकता
को चुनौती
देती है
जिसमें विवाह
को केवल
स्त्री की
नियति माना
जाता है।
सामाजिक
यथार्थ के
स्तर पर
मृदुला गर्ग
ने यह दिखाया
कि आधुनिकता
ने जहाँ नई
संभावनाएँ खोली
हैं, वहीं
उसने नए संकट
भी उत्पन्न
किए हैं। शहरी
जीवन में
स्त्री-पुरुष
दोनों ही
अपने-अपने संघर्षों
से जूझ रहे
हैं।
उपभोक्तावादी
संस्कृति ने
पारिवारिक
जीवन को
प्रभावित
किया है, जिससे
रिश्ते अधिक
उपयोगितावादी
और अस्थिर हो
गए हैं। उनके
उपन्यास इन
परिवर्तनों
का बारीकी से
चित्रण करते
हैं।
मृदुला
गर्ग की
विशेषता यह है
कि वे सामाजिक
यथार्थ को
केवल बाहरी
रूप में नहीं
दिखातीं, बल्कि
उसके
मनोवैज्ञानिक
प्रभावों को
भी गहराई से
प्रस्तुत
करती हैं।
परिवार के
भीतर के संबंध
केवल सामाजिक
संरचना तक
सीमित नहीं रहते, बल्कि
वे व्यक्ति की
मानसिकता, संवेदनाओं
और आत्मचेतना
को भी
प्रभावित करते
हैं। उनके
पात्र इसलिए
अधिक जीवंत और
यथार्थपरक
लगते हैं
क्योंकि वे
केवल बाहरी
दुनिया से
नहीं,
बल्कि अपने
भीतर के संसार
से भी संघर्ष
कर रहे होते
हैं।
इस प्रकार
मृदुला गर्ग
के उपन्यासों
में सामाजिक
यथार्थ और
पारिवारिक
संरचना का
चित्रण बहुआयामी
है। उन्होंने
पारिवारिक
संस्था को
केवल सुरक्षा
का ढाँचा न
मानकर उसके
भीतर छिपे
शोषण,
असमानता और
बंधनों को
उजागर किया।
उनका साहित्य
यह संदेश देता
है कि जब तक
परिवार और
समाज में
समानता,
स्वतंत्रता
और न्याय
स्थापित नहीं
होगा,
तब तक
व्यक्ति का
वास्तविक
विकास संभव
नहीं है। इस
दृष्टि से
उनके उपन्यास
हिंदी
कथा-साहित्य
को नई दिशा और
गहरी सामाजिक
प्रासंगिकता प्रदान
करते हैं।
5. निष्कर्ष
मृदुला
गर्ग का
कथा-साहित्य
हिंदी
साहित्य की
प्रगतिशील
परंपरा का
महत्त्वपूर्ण
अंग है।
उन्होंने
अपने
उपन्यासों और
कहानियों में आधुनिक
समाज की
जटिलताओं, स्त्री
अस्मिता के
प्रश्न और
पारिवारिक
संरचना की
विसंगतियों
को गहराई से
प्रस्तुत किया।
उनकी लेखनी
केवल यथार्थ
का चित्रण भर
नहीं करती, बल्कि
उस यथार्थ की
आलोचना करती
है और पाठक को
सोचने के लिए
बाध्य करती
है। उनकी
रचनाओं में
स्त्री अब
केवल
परंपरागत
भूमिकाओं में
सीमित नहीं है, बल्कि
वह स्वतंत्र, संघर्षशील
और
आत्मनिर्भर
व्यक्तित्व
के रूप में
उभरती है।
“चित्तकोबरा“
और “उसके
हिस्से की
धूप“ जैसे
उपन्यास
स्त्री की
आत्मचेतना और स्वतंत्रता
की गहरी पड़ताल
करते हैं। साथ
ही, उनके
पात्र यह
स्पष्ट करते
हैं कि
स्वतंत्रता
केवल बाहरी
सामाजिक स्तर
तक सीमित नहीं
है, बल्कि
मानसिक और
भावनात्मक
स्तर पर भी
उतनी ही
आवश्यक है।
सामाजिक
यथार्थ के
संदर्भ में
मृदुला गर्ग ने
शहरी
मध्यमवर्गीय
जीवन,
परिवार की
टूटती-बिखरती
संरचना और
उपभोक्तावादी
संस्कृति के
प्रभाव का
सजीव चित्रण
किया है। उनके
साहित्य में
यह संदेश
निहित है कि जब
तक परिवार और
समाज न्याय, समानता
और
स्वतंत्रता
के मूल्यों पर
आधारित नहीं
होंगे,
तब तक
व्यक्ति का
वास्तविक
विकास संभव
नहीं है। आज
के समय में, जब
समाज
वैश्वीकरण, तकनीकी
क्रांति और
बदलते
सांस्कृतिक
मानदंडों से
गुजर रहा है, मृदुला
गर्ग की
रचनाएँ और भी
प्रासंगिक
प्रतीत होती
हैं। वे हमें
यह स्मरण
कराती हैं कि
साहित्य केवल
मनोरंजन का
साधन नहीं है, बल्कि
वह समाज को
दिशा देने
वाला दर्पण और
मार्गदर्शक
भी है।
निष्कर्षतः
कहा जा सकता
है कि मृदुला
गर्ग का
कथा-साहित्य न
केवल अपने समय
का जीवंत
दस्तावेज है, बल्कि
समकालीन समाज
के लिए भी
प्रेरक है।
उनकी रचनाओं
ने हिंदी
कथा-साहित्य
को नई दृष्टि, नई
संवेदना और
स्त्री
विमर्श को
व्यापक सामाजिक
परिप्रेक्ष्य
प्रदान किया।
यही कारण है कि
उनका साहित्य
आने वाली
पीढ़ियों के
लिए भी उतना
ही
महत्त्वपूर्ण
रहेगा।
Garg, Mridula
(1976). Dew Drop. Vani Prakashan,
New Delhi.
Garg, Mridula
(1980). Impermanent. National Publishing House, New
Delhi.
Garg, Mridula
(1984). Me and I. Rajkamal Prakashan,
New Delhi.
Garg, Mridula
(2004). Her Share of Sunshine. Rajkamal Prakashan, New Delhi.
Garg, Mridula
(2008). Gender Discrimination (Volumes 1 and 2).
National Publishing House, New Delhi.
Garg, Mridula
(2009). Chitkobra. National Paperbacks,
New Delhi.
Garg, Mridula
(2009). Kathgulab. Bharatiya
Jnanpith, New Delhi.
Garg, Mridula
(2011). A Together Mind. Lokbharati Publications, New Delhi.
Mishra,
Suresh (2005). History of Hindi Fiction. Sahitya Bhavan, Prayagraj.
Shankar, Arun
(2003). Hindi Novel and Women's Discourse.
Bharatiya Jnanpith, New
Delhi.
Sharma,
Narendra (2010). Contemporary Hindi Novel and
Reality. Rajkamal Publications, New Delhi.
Tiwari, Subhadra (2007). Indian Women's Discourse. Vani
Publications, New Delhi.
Yadav,
Rajendra (1999). The Punishment of Being a Woman. Rajkamal Publications, New Delhi.
This work is licensed under a: Creative Commons Attribution 4.0 International License
© Granthaalayah 2014-2025. All Rights Reserved.