Granthaalayah
WOMEN EMPOWERMENT THROUGH MNREGA: EMPOWERMENT OF WOMEN IN RURAL AREAS

WOMEN EMPOWERMENT THROUGH MNREGA: EMPOWERMENT OF WOMEN IN RURAL AREAS

मनरेगा के माध्यम से महिला सशक्तिकरणः ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के सशक्तिकरण

Mahadev Chandra Yadav 1

 

1 Assistant Professor, Department of Economics, Jamtara College, Jamtara, Sido Kanhu Murmu University, Dumka, Jharkhand, India

 

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ABSTRACT

English: This study presents a comprehensive analysis of the role of Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Act (MGNREGA) in empowering rural women. MNREGA was launched with the objective of increasing livelihood security, employment opportunities and social inclusion in rural areas. The scheme mandates women to constitute one-third of the workforce, guarantees equal pay, and provides crèches and other facilities at workplaces. The study shows that MNREGA has provided women with the opportunity to become economically self-dependent, thereby increasing their financial awareness and participation in family decisions. At the same time, the scheme challenges the limited definitions of traditional ‘empowerment’ by treating women as partners in development and not as objects of assistance. However, in reality, many social, cultural and administrative barriers limit the full potential of the scheme. Women's economic participation has increased, but their decision-making role in the home and society still remains limited. This study highlights the paradox that despite the availability of economic opportunities, social structures continue to hinder women's real empowerment.

 

Hindi: यह अध्ययन महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) की ग्रामीण महिलाओं के सशक्तिकरण में भूमिका का समग्र विश्लेषण प्रस्तुत करता है। मनरेगा को ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका सुरक्षा, रोजगार के अवसर और सामाजिक समावेशन बढ़ाने के उद्देश्य से प्रारंभ किया गया था। इस योजना में महिलाओं को एक-तिहाई कार्यबल में अनिवार्य भागीदारी का प्रावधान है, समान वेतन की गारंटी दी गई है, और कार्यस्थलों पर शिशुगृह व अन्य सुविधाएँ प्रदान करने की व्यवस्था की गई है। इस अध्ययन में यह दर्शाया गया है कि मनरेगा ने महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने का अवसर दिया है, जिससे उनमें वित्तीय जागरूकता और पारिवारिक निर्णयों में भागीदारी की संभावना उत्पन्न हुई है। साथ ही, यह योजना पारंपरिक ‘सशक्तिकरण’ की सीमित परिभाषाओं को चुनौती देते हुए महिलाओं को सहायता का पात्र नहीं, बल्कि विकास की भागीदार मानती है। हालाँकि, वास्तविकता में कई सामाजिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक बाधाएँ इस योजना की पूर्ण क्षमता को सीमित करती हैं। महिलाओं की आर्थिक भागीदारी तो बढ़ी है, लेकिन घर और समाज में उनकी निर्णयात्मक भूमिका अब भी सीमित बनी हुई है। यह अध्ययन इस विरोधाभास को उजागर करता है कि आर्थिक अवसरों की उपलब्धता के बावजूद सामाजिक संरचनाएँ महिलाओं की वास्तविक सशक्तता में बाधा बनी हुई हैं।

 

Received 07 May 2025

Accepted 08 June 2025

Published 31 July 2025

DOI 10.29121/granthaalayah.v13.i7.2025.6294  

Funding: This research received no specific grant from any funding agency in the public, commercial, or not-for-profit sectors.

Copyright: © 2025 The Author(s). This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.

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Keywords: Women, Empowerment, Mnrega, Rural महिला, सशक्तिकरण, मनरेगा, ग्रामीण


1.   प्रस्तावना

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) भारत सरकार द्वारा 7 सितंबर 2005 को पारित किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण परिवारों की आजीविका सुरक्षा को सुदृढ़ करना था। इसके अंतर्गत हर ग्रामीण परिवार, जिसके वयस्क सदस्य शारीरिक श्रम करने के इच्छुक हों, उन्हें प्रत्येक वित्तीय वर्ष में न्यूनतम 100 दिनों का वेतनयुक्त रोजगार उपलब्ध कराया जाना है। यह योजना सभी ग्रामीण परिवारों के लिए खुली है, चाहे वे किसी भी जाति, लिंग या आय वर्ग से संबंधित हों। मनरेगा के अंतर्गत रोजगार एक कानूनी अधिकार के रूप में दिया गया है। मजदूरी सीधे श्रमिकों के बैंक या डाकघर के खातों में स्थानांतरित की जाती है, जिससे पारदर्शिता बनी रहती है। महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा दिया जाता है, जिसमें यह सुनिश्चित किया गया है कि कुल कार्यबल में कम से कम एक-तिहाई महिलाएँ हों। इस योजना के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में टिकाऊ परिसंपत्तियों का निर्माण किया जाता है, जैसे सड़कें, जल संरक्षण ढाँचे, और सिंचाई की सुविधाएँ। ये न केवल रोजगार उपलब्ध कराते हैं, बल्कि दीर्घकालिक ग्रामीण विकास में भी सहायक हैं। मनरेगा की विशेषताओं में यह शामिल है कि सभी गाँवों में इसे लागू किया गया है। प्रत्येक परिवार को जॉब कार्ड दिया जाता है, जो आवेदन के 15 दिनों के भीतर जारी किया जाना चाहिए।

जॉब कार्डधारक व्यक्तिगत या समूह के रूप में काम के लिए आवेदन कर सकते हैं। यदि कम से कम 10 लोग आवेदन करते हैं, तो नया कार्य आरंभ किया जा सकता है। रोजगार का प्रावधान आवेदन के 15 दिनों के भीतर किया जाना अनिवार्य है, और कार्य आवेदक के गाँव से अधिकतम 5 किलोमीटर के भीतर होना चाहिए। यदि दूरी इससे अधिक है, तो अतिरिक्त मजदूरी दी जाती है। ग्राम समुदाय को कार्यों का चयन करने का अधिकार है, और पांच वर्षीय योजना के अंतर्गत कार्यों को प्राथमिकता दी जाती है। यदि समय पर रोजगार नहीं दिया जाता, तो राज्य सरकार को बेरोजगारी भत्ता देना होता हैकृपहले 30 दिनों के लिए मजदूरी दर का 25ः और उसके बाद शेष वर्ष के लिए 50ः। मजदूरी राज्य द्वारा तय न्यूनतम वेतन दर के अनुसार दी जाती है, जिसमें पुरुष और महिला दोनों के लिए समान वेतन सुनिश्चित किया गया है। कार्यस्थलों पर पेयजल, छाया और बच्चों की देखभाल की सुविधाएँ अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराई जाती हैं। इस योजना के अंतर्गत 6040 का श्रम-सामग्री अनुपात अनिवार्य है और इसमें ठेकेदारों या मशीनों के उपयोग की अनुमति नहीं है। योजना की पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने हेतु सामाजिक लेखा परीक्षा और सूचना के अधिकार अधिनियम (त्ज्प्) के प्रावधान लागू हैं।

मनरेगा का उद्देश्य ग्रामीण परिवारों को आय का स्रोत प्रदान कर उनकी आर्थिक अस्थिरता को कम करना है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सुनिश्चित कर, शहरी पलायन को भी कम करता है। 100 दिनों के कार्यों में जिन गतिविधियों को शामिल किया गया है, जैसे सड़क निर्माण और सिंचाई सुविधाओं का विकास, वे सीधे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में सहायक हैं। विशेषकर कृषि पर निर्भर परिवारों के लिए सिंचाई की सुविधाएँ अनिश्चितता को घटाकर उत्पादन में सहायता करती हैं। हालाँकि, यह देखा गया है कि इस योजना के अंतर्गत रोजगार सृजन के बावजूद, खाद्य सुरक्षा की समस्या पूर्णतः हल नहीं हो पाई है। कई परिवारों ने साल भर भरपेट भोजन न मिल पाने की शिकायत की है। इसके मुख्य कारणों में रोजगार के अवसरों की कमी और कम आय या क्रय शक्ति की समस्या प्रमुख रूप से सामने आई है। कुछ परिवारों ने सरकारी सहायता की कमी, बुनियादी ढाँचों की कमी, सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता जैसी समस्याओं की भी बात की। महँगाई के कारण भोजन और स्वास्थ्य सेवाओं की लागत में वृद्धि ने ग्रामीण परिवारों के लिए अतिरिक्त आर्थिक बोझ खड़ा कर दिया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि रोजगार, आय और खाद्य सुरक्षा आपस में गहराई से जुड़े हुए मुद्दे हैं। केवल रोजगार सृजन पर्याप्त नहीं हैय इसके साथ-साथ वर्षभर निरंतर रोजगार और खाद्य सामग्रियों की सुलभता भी आवश्यक है।

लाभार्थियों ने योजना की प्रभावशीलता बढ़ाने हेतु कुछ सुझाव दिए हैं, जैसेः

·        मनरेगा के अंतर्गत रोजगार के अवसरों को बढ़ाया जाए।

·        मजदूरी का समय पर भुगतान सुनिश्चित किया जाए।

·        कार्यों की बेहतर योजना बनाई जाए।

·        योजना के कार्यान्वयन की निगरानी को सुदृढ़ किया जाए।

 

अतः यह स्पष्ट है कि मनरेगा ने ग्रामीण भारत में रोजगार और बुनियादी विकास को गति दी है, परंतु इसे और प्रभावी बनाने के लिए निरंतर सुधार और निगरानी की आवश्यकता बनी हुई है। योजना का सफल क्रियान्वयन केवल आर्थिक सहायता नहीं बल्कि सामाजिक सशक्तिकरण की दिशा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

 

2.   भागीदारी की दिशा में एक नई सोच

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के स्वरूप में ही लैंगिक समानता का विशेष स्थान है। यह अधिनियम पुरुषों और महिलाओं को समान मजदूरी का अधिकार देता है, जो ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित वेतन असमानता को दूर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। साथ ही, कार्यस्थलों की निकटता के कारण यह योजना महिलाओं को घर-परिवार की जिम्मेदारियों के साथ-साथ काम करने का अवसर भी प्रदान करती है। कार्यस्थल पर शिशुगृह जैसी सुविधाएँ, जहाँ उपलब्ध हैं, वहाँ माताओं को अपने बच्चों के साथ काम पर आने की सुविधा मिलती है, जिससे उनकी भागीदारी और भी सशक्त होती है। इस योजना के माध्यम से महिलाओं को जो आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त हुई है, उसने उनके जीवन को गहराई से प्रभावित किया है। नियमित मजदूरी के माध्यम से न केवल उनकी आय बढ़ी है, बल्कि बैंक खातों के माध्यम से मिलने वाली भुगतान व्यवस्था ने वित्तीय जागरूकता को भी बढ़ावा दिया है। इस आर्थिक सशक्तिकरण का प्रभाव उनके घरेलू निर्णयों में भी दिखाई देता है, जहाँ वे शिक्षा, स्वास्थ्य और संसाधनों के वितरण जैसे क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभाने लगी हैं। मनरेगा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह महिलाओं की भागीदारी को “विशेष सहायता” के रूप में नहीं, बल्कि समान अधिकारों के तहत स्वीकार करता है। अधिकांश पारंपरिक योजनाएँ महिलाओं को कमजोर मानकर विशेष सहायता देने के मॉडल पर आधारित होती हैं, जबकि मनरेगा महिलाओं को समर्थ और सक्षम मानते हुए उन्हें पुरुषों के समान अवसर प्रदान करता है। इसमें महिलाओं को दया या सहायता की पात्र नहीं, बल्कि श्रम शक्ति का अभिन्न हिस्सा माना गया है। इस अधिनियम में यह अनिवार्य किया गया है कि कार्यबल में कम से कम एक-तिहाई महिलाएँ होनी चाहिए, लेकिन यह प्रावधान किसी क्षतिपूर्ति या विशेष कोटे की भावना से नहीं, बल्कि यह मान्यता देकर किया गया है कि महिलाएँ परिवार और समाज में समान योगदान देने में सक्षम हैं।

इस योजना के माध्यम से महिलाओं की सार्वजनिक कार्यस्थलों पर उपस्थिति ने पारंपरिक सोच को चुनौती दी है और यह दर्शाया है कि महिलाएँ केवल घरेलू दायरे तक सीमित नहीं हैं। मनरेगा किसी बाहरी सहायता पर आधारित ‘‘सशक्तिकरण‘‘ की बजाय महिलाओं की मौजूदा क्षमताओं और आकांक्षाओं के अनुरूप उन्हें अवसर प्रदान करता है। यह न तो महिलाओं को असहाय मानता है और न ही उन्हें ऐसे व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करता है जिन्हें “उत्थान” की आवश्यकता हो। इसके विपरीत, यह उन्हें ऐसे अधिकार देता है, जिससे वे खुद के लिए निर्णय ले सकें और समाज में अपनी भूमिका को स्वतंत्र रूप से निभा सकें। जहाँ पारंपरिक योजनाएँ एक प्रकार की निर्भरता उत्पन्न करती हैं, वहीं मनरेगा एक स्वतंत्रता का मार्ग खोलता है, जिसमें महिलाएँ न केवल कार्य करती हैं, बल्कि उस कार्य के माध्यम से आत्मनिर्भर बनती हैं। यह उन्हें घरेलू सीमाओं से बाहर लाकर निर्णयकर्ता बनाता है, जिससे पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं पर सवाल उठते हैं। मनरेगा महिलाओं को लाभार्थी नहीं, बल्कि विकास की सक्रिय साझेदार मानता है। यह न केवल उनके कौशल का विकास करता है, बल्कि उनके परिवारों की आर्थिक स्थिरता में भी योगदान देता है। यही कारण है कि मनरेगा एक प्रगतिशील और परिवर्तनकारी नीति के रूप में उभरकर सामने आती है, जो संसाधनों और अवसरों तक समान पहुँच के माध्यम से वास्तविक समानता की दिशा में काम करती है। यह योजना लैंगिक समानता की परंपरागत परिभाषाओं को पुनः परिभाषित करती है। यह महिलाओं को “कमजोर” के रूप में नहीं देखती, जिन्हें सशक्त करना है, बल्कि उन्हें एक समान भागीदार मानती है जो पहले से ही समाज के विकास में योगदान देने की क्षमता रखती हैं। इस प्रकार, मनरेगा केवल एक रोजगार योजना नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम बन गया है।

 

 

 

 

3.   सामाजिक परिप्रेक्ष्य

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को ग्रामीण महिलाओं के आर्थिक जीवन में बदलाव लाने वाले एक सशक्त उपकरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। कागजों पर यह योजना महिलाओं को रोजगार, वित्तीय स्वतंत्रता और घरेलू आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी का अवसर प्रदान करती है। लेकिन वास्तविकता अक्सर इस आदर्श कल्पना से बहुत दूर होती है। हालाँकि महिलाएँ मनरेगा के तहत कार्य करती हैं और परिवार की आय में योगदान भी देती हैं, फिर भी उन्हें घरेलू निर्णयों में अपेक्षित अधिकार नहीं मिल पाता। आय अर्जित करने के बावजूद, महिलाओं को यह तय करने का अधिकार नहीं होता कि उस धन का उपयोग कैसे किया जाएगा। बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य या दैनिक घरेलू खर्चों जैसे विषयों में उनकी भूमिका सीमित रहती है। यह दर्शाता है कि योजना आर्थिक संसाधन तो प्रदान करती है, लेकिन पारिवारिक संरचना में मौजूद पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर कोई विशेष प्रभाव नहीं डालती। परिवारों के भीतर श्रम का लैंगिक विभाजन अभी भी गहराई से स्थापित है। महिलाएँ भले ही आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन रही हों, परंतु उनका निर्णयात्मक अधिकार अब भी पुरुषों के अधीन है। इसका अर्थ यह है कि मनरेगा जैसी योजनाएँ लैंगिक संबंधों को जड़ से नहीं बदल पातीं, बल्कि मौजूदा सामाजिक ढाँचे के भीतर ही सीमित सुधार कर पाती हैं।

मनरेगा मुख्य रूप से गरीबी और बेरोजगारी से निपटने के लिए शुरू की गई एक योजना है। यह ग्रामीण महिलाओं के लिए रोजगार का रास्ता तो खोलता है, परंतु यह सामाजिक सोच और पारंपरिक भूमिकाओं को बदलने की शक्ति अकेले नहीं रखता। महिलाओं को केवल कार्य और वेतन देने से सशक्तिकरण की पूर्ण प्रक्रिया पूरी नहीं होतीय इसके लिए व्यापक सामाजिक बदलाव की आवश्यकता होती है। यह समझना आवश्यक है कि कोई भी नीति या योजना समाज की गहरी जड़ें जमाई सोच को एक दिन में नहीं बदल सकती। मनरेगा अवसर तो देता है, लेकिन इन अवसरों को वास्तविक सशक्तिकरण में परिवर्तित करने के लिए सामाजिक चेतना, सहभागिता और पहल की आवश्यकता होती है। महिलाओं की भूमिका को सीमित करने वाले पारंपरिक विचारों को तोड़ना समुदाय और समाज की साझा जिम्मेदारी है। मनरेगा को लैंगिक समानता के लिए कोई पूर्ण समाधान नहीं माना जा सकता। यह एक महत्वपूर्ण शुरुआत अवश्य है, लेकिन यह योजना सदियों से चली आ रही सामाजिक असमानताओं को समाप्त नहीं कर सकती। यह महिलाओं को आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में ले जाने वाला एक मार्ग है, परंतु यह मार्ग कितना आगे ले जाएगा, यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों के समन्वय पर निर्भर करता है।

इसके अतिरिक्त, योजना के प्रभाव को क्षेत्रीय स्तर पर भी भिन्नता के साथ देखा गया है। कुछ राज्यों में योजना का क्रियान्वयन अपेक्षाकृत बेहतर रहा है, जबकि अन्य राज्यों में इसे योजनाबद्ध तरीके से लागू नहीं किया गया। कई बार वेतन भुगतान में देरी, जागरूकता की कमी और कौशल विकास के अवसरों की अनुपस्थिति महिलाओं के लिए वास्तविक सशक्तिकरण की राह को और कठिन बना देती है। व्यवस्थागत खामियाँ, प्रशासनिक लापरवाही और लिंग-संवेदनशील नीति की कमी भी महिलाओं की पूर्ण भागीदारी में बाधा बनती हैं। इस प्रकार, मनरेगा केवल एक आर्थिक योजना नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता को भी उजागर करती है। इसका उद्देश्य तभी सार्थक हो सकता है जब समुदाय महिलाओं को केवल मजदूरी पाने वाली नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव की वाहक के रूप में देखे और उन्हें निर्णय लेने की वास्तविक स्वतंत्रता मिले। इसलिए, मनरेगा एक मार्ग है, समाधान नहीं। यह महिलाओं के लिए अवसरों का द्वार अवश्य खोलता है, परंतु उन अवसरों को सार्थक बनाने के लिए समाज की सोच में बदलाव लाना अनिवार्य है। जब तक महिला सशक्तिकरण को केवल आर्थिक दृष्टि से देखा जाएगा, तब तक वास्तविक समानता की कल्पना अधूरी ही रहेगी।

 

 

4.   निष्कर्ष

मनरेगा एक ऐतिहासिक नीति पहल है, जिसने ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है। इस योजना ने न केवल रोजगार के अवसर बढ़ाए, बल्कि महिलाओं की सामाजिक दृश्यता और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी को भी बल दिया है। यह ग्रामीण भारत की महिलाओं के लिए एक ऐसे मंच के रूप में उभरा है जहाँ वे अपने श्रम के माध्यम से न केवल आय अर्जित कर रही हैं, बल्कि सामाजिक पहचान भी प्राप्त कर रही हैं। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि अकेले मनरेगा जैसी योजनाएँ गहराई से जमी हुई लैंगिक असमानताओं को समाप्त नहीं कर सकतीं। सामाजिक सोच, पारंपरिक भूमिका विभाजन और पितृसत्तात्मक संरचनाएँ महिलाओं की निर्णय लेने की क्षमता को सीमित करती हैं। योजना की प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करती है कि समाज इन अवसरों को किस प्रकार स्वीकार करता है और किस हद तक महिला भागीदारी को समानता के स्तर तक पहुँचाने के लिए तत्पर है। इसलिए, मनरेगा को एक समाधान नहीं, बल्कि एक मार्ग के रूप में देखा जाना चाहिए, जो महिलाओं के लिए अवसर प्रदान करता है, परंतु उस अवसर को वास्तविक सशक्तिकरण में बदलने के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और नीतिगत समन्वय की आवश्यकता बनी रहती है। वास्तविक सशक्तिकरण तभी संभव है जब महिलाएँ न केवल आर्थिक रूप से स्वतंत्र हों, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक निर्णयों में भी समान अधिकार प्राप्त करें।

 

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