BHAKTI AND MUSIC
भक्ति एवं संगीत
Kajal Arya 1, Dr.Sabiha Naz 2
1 Research Scholar Music (NET, JRF),
Soban Singh Jeena University, Campus Almora
2 Head of Department of Music, Soban
Singh Jeena University, Campus Almora
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ABSTRACT |
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English: The
religion-oriented culture of India makes the Indian residents
devotion-oriented, the reason for which is the relation of religion with God.
Bhakti is the devotion to the beloved God with love and reverence. Bhakti is
a powerful medium to connect with God. Bhakti element has been described as
Amrit Swaroop and as a means to attain salvation.
The most meaningful medium to express love-like devotion is music, which is
called Bhakti Sangeet. The tradition of Bhakti Sangeet has been going on
continuously since the Vedas. In Indian culture, the worship of the sound of
Brahma in the form of Omkar is visible since the Vedic period. The Sama
Bhaktis used in Samgaayan were also related to God.
Gandharva was also related to divine devotion. In the
course of development of history, medieval Bhakti Sangeet was
reflected in the society as a golden period. The
poetic verses written by Bhakti poets have become the basis of Bhakti Sangeet
even in modern times. The beautiful confluence of Bhakti related poetic aspect and musical notes have made the sweet stream of
Bhakti Sangeet flow among the people even today. Hindi: भारत देश की धर्म प्रधान संस्कृति भारतीय निवासियों को भक्ति उन्मुख बनाती है, जिसका कारण धर्म का ईश्वर से संबंध हैं। ईष्ट देव का प्रेम एवं श्रद्धा पूर्वक भाव से भजन ही भक्ति है। भक्ति ईश्वर से जुड़ने का सशक्त माध्यम है। भक्ति तत्व को अमृृत स्वरूप कहकर मोक्ष प्राप्ति के साधन रूप मे वर्णित किया गया है। प्रेमरूपी भक्ति को प्रकट करने का सर्वाधिक सार्थक माध्यम संगीत ही होता है, जिसको भक्ति संगीत की संज्ञा दी गयी है। भक्ति संगीत की परंपरा वेदों सें निरंतर चलती आ रही है। भारतीय संस्कृति में ओंकार रूपी नाद ब्रह्म की उपासना वैदिक काल से ही दृृष्टिगत होती है। सामगायन में प्रयुक्त साम भक्तियों का संबंध भी ईश्वर सें ही होता था। गांधर्व का संबंध भी ईश्वरीय भक्ति सें हुआ करता था। इतिहास के विकास क्रम में मध्यकालीन भक्ति संगीत स्वर्णिम काल के रूप में समाज में परिलक्षित हुआ। भक्त कवियों द्वारा लिखे गए काव्यात्मक पद आधुनिक समय में भी भक्ति संगीत का आधार बने हैं। भक्ति विषयक काव्य पक्ष तथा संगीतिक स्वरलहरियों के सुंदर संगम ने वर्तमान में भी जनमानस के बीच भक्ति संगीत की मधुरिम स्वर धारा प्रवाहित की है। |
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Received 21 February 2025 Accepted 25 March 2025 Published 30 April 2025 DOI 10.29121/granthaalayah.v13.i4.2025.6199 Funding: This research
received no specific grant from any funding agency in the public, commercial,
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Keywords: Bhakti, Music,
Tradition, Godly Love, Musical Notes, भक्ति, संगीत, परंपरा, भगवत प्रेम, संगीतिक
स्वरलहरियां |
1. उद्देश्य
·
भक्ति के
विविध संदर्भ
का विश्लेषण
करना।
·
भक्ति मे
संगीत के
संलयन से
उत्पन्न
प्रभावों को
जानना।
2. प्रस्तावना
भारत एक
धर्म प्रधान
देश है,
जिसमें
धार्मिक
मान्यताओं का
विशिष्ट अस्तित्व
है। भारत देश
की पवित्र
भूमि में
विविध देवी-देवता
तथा भगवान
अवतरित हुए
हैं एवं इसी पावन
धरती पर
अनेकों पुण्य
आत्माओं नें
जन्म लिया है।
धर्म का संबंध
ईश्वर से एवं
ईश्वर का संबंध
अपने भक्तों
से होने के
कारण भक्ति
जनमानस का
अटूट श्रद्धा
भाव है। भक्ति
ईश्वर अनुभूति
का मार्ग
प्रशस्त कर
मनुष्य को
मोक्ष पथ पर
अग्रसर करती
है।
ईष्ट देव का
भजन, वंदन, मनन
एवं उपासना को
भक्ति की
संज्ञा दी जा
सकती है। अपने
ईष्ट देव का
प्रेम पूर्वक
श्रद्धा भाव
से भजन
शास्त्रों के
अनुसार भक्ति
है। भक्ति वह
दिव्य शक्ति
है, जिसमें
धर्म,
प्रेम,
श्रद्धा एवं
समर्पण भाव, बाह्य
अभिव्यक्तियां
आराध्य से
संबंध स्थापित
करने का सशक्त
माध्यम है।
अतःस्थल में
विद्यमान
ध्यान,
आत्म
निरीक्षण, आत्म
साक्षात्कार
एवं स्थिरता
मनुष्य को आध्यात्मिकता
की ओर
प्रवाहित
करती है, अर्थात
आध्यात्मिकता
मनुष्य को
उसके स्वअस्तित्व
से जोड़कर
स्वयं को
समझने योग्य
बनाती है।
आध्यात्मिकता
मे अंतःकरण की
खोज एवं भक्ति
में बाह्य
अभिव्यक्तियां
मनुष्य को
प्रभु भक्ति
में विलीन कर
देती है।
देवर्षि नारद
ने भक्ति को
अमृृत स्वरूप
कहकर संबोधित
किया है।
’’अमतस्वरूपा
च।। 3।।’’1
उक्त
श्लोक का भाव
है कि जिस
प्रकार
समुद्र मंथन
से सर्व रोगों
को नष्ट करने
एवं अमृृत्व
प्रदान करने
वाले अमृृत की
उत्पत्ति हुई
थी, भक्ति
भी उसी अमृत
के समान ही
है।
शास्त्रों
में भक्ति को
मोक्ष
प्राप्ति के साधन
रूप मे भी
वर्णित किया
गया है।
‘‘सत्यादित्रियुगे
बोधवैराग्यौ
मुक्ति साधकौ।
कलो तु
केवला
भक्तिबह्म
सायुज्यकारिणी।।4।।‘‘2
उक्त
श्लोकानुसार
सत्ययुग, त्रेता
युग एवं
द्वापर युग
में वैराग्य
एवं ज्ञान
मोक्ष
प्राप्ति के
साधन हुआ करते
थे, परंतु
कलयुग में
केवल भक्ति
तत्व ही
मनुष्य को
मोक्ष की
प्राप्ति करा
सकता है।
भक्तों का
अपने ईष्ट देव
के सम्मुख तन्मयता
से भाव प्रकट
करना भक्ति
है। वेदों में
सांगीतिक
उद्भावना को
भक्ति संगीत
का आधार कहा
जा सकता है।
भक्ति संगीत
की सुमधुर
स्वर लहरियों
में ईश्वर
विषयक तत्वों
एवं ईष्ट गुणगान
का संयोग होता
है। जब मनुष्य
अपने अतःस्थल मे
उद्वेलित
सांगीतिक
भावाभिव्यक्ति
को ईश्वर के
चरणों में
समर्पित करता
है तो उसे
भक्ति संगीत
की संज्ञा दी
जा सकती है।
जैसा की विदित
है कि भक्ति
संगीत और भाव
अंतर्सबंध
रखते हैं, जो
भक्तजनों को
ईश्वर के साथ
गहरा संबंध
निर्मित करने
में
सकारात्मकता
प्रदान करते
हैं। भक्ति
संगीत
धार्मिक
गीतों का एक
अनुष्ठान ही
है, जिसमें
ईश्वर के
प्रति प्रेम
एवं समर्पण का
भाव व्यक्त
किया जाता है
तथा दूसरी ओर
भक्ति भाव ऐसी
हृदयगत भावना
है जो ईश्वरीय
भक्ति के प्रति
समर्पित होती
है। संगीत की
संपूर्ण शक्ति
ओंकार यानि ओम
में ही समाहित
है। ओम शब्द
के अ में
ब्रह्मा, उ में
विष्णु एवं म
में महेश
ब्रह्मांड की
तीनों
परब्रह्म
शक्तियां
विद्यमान है।
ओंकार रूपी
नाद ब्रह्म की
उपासना
भारतीय
संस्कृति में
वैदिक काल से
ही चली आ रही
है, जिसकी
अद्भुत
विशेषता हमें
साक्षात
देखने को
मिलती है।
‘‘ऊँ
नादब्रह्मय
विदमेह
ओंकाराय
धीमही।
तनोश्रुतिः
प्रचोदयात।‘‘3
संगीत
में नाद
ब्रह्म की
उपासना सर्वोपरि
है संगीत
उपास्य विधा
है। गीत तथा
वाद्यों
द्वारा भगवत
प्रेम की
प्राप्ति तथा
भगवान का
गुणगान ही
भक्ति है।
वैदिक
शास्त्रीय
संगीत मे भी
भक्ति के
प्रमाण मिलते
हैं। वैदिक शास्त्रीय
संगीत
सामगायन के
रूप में
प्रचलित था।
साम की ऋचाओं
का स्वरूप
गायन में
निहित होता
था। स्वरित, उदात्त
एवं अनुदात्त
स्वरों का
वर्णन सामवेद
में मिलता है, जिनसे
क्रमशः सात
स्वरों की
उत्पत्ति
मानी गयी।
सामग ऋषि ही
साम गायन किया
करते थे। उस
समय याज्ञिक
काल में साम
गायन करने के
लिए कई व्यक्तियों
की सहायता
आवश्यक मानी
गयी। यज्ञ
सामगान के लिए
उद्गात वर्ग
का आविर्भाव
हुआ। जिसके
अंतर्गत उद्गाता, प्रस्तोता, प्रतिर्हता
तथा
सुब्रहण्य
नामक चार
सदस्य होते
थे। सामगायन
को पांच या
सात भागों में
विभक्त करके
गाया जाने लगा
जिसको साम
भक्ति की संज्ञा
दी गयी। जो
लोक एवं
शास्त्र
दोनों रूपों में
उपलब्ध है।
श्रीमद्
भागवत पुराण
अनुसार श्री
कृष्ण द्वारा
कहा गया है।
‘‘नाहं व
सामि
बैकुण्ठे
योगियों
हदयये न च।
भदभक्ता
यज गायन्ति
तत्र
विष्ठामि
नारद।।‘‘4
उक्त श्लोक
में भगवान
श्री कृष्ण जी
यह कहते है, न
मैं बैकुंठ
में निवास
करता हूं, ना
ही जोगियो के
हृदय में, ना
ही ऋषि
मुनियों के
हृदय में
किंतु मेरे
भक्तजन मेरे
नाम का
संकीर्तन
(भजन) गाकर
मुझे याद करते
हैं मैं वही
विराजमान
होता हूं।
उक्त उक्ति
भक्ति संगीत
परंपरा को
चरितार्थ
करती प्रतीत
होती है।
भरत मुनिकृत
नाट्यशास्त्र
के अठाइसवें
अध्याय में
संगीत के दो
रूप गांधर्व
एवं गान का
वर्णन किया
गया है।
जिसमें स्वर, ताल
एवं पद युक्त
रचना को
गांधर्व की
संज्ञा दी गई
है, जिसका
प्रयोग देव
स्तुति के लिए
होता था। गांधर्व
का अंतर्सबंध
भक्ति संगीत
से होता है। भक्ति
के स्वर्णिम
काल में
विभिन्न भक्त
कवियों ने
भक्ति
साहित्य के
माध्यम से
अपनी भक्तिमय
भावनाओं को
व्यक्त किया।
भक्त कवियों
में कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास
एवं मीराबाई
इत्यादि
प्रमुख है। भक्त
कवि भी अपनी
ईश्वर
समर्पित
पंक्तियों को संगीत
में ही
पिरोतें थे, जिनसें
उत्पन्न
भक्ति संगीत
वर्तमान मंे
भी भक्तजनों
को भक्तिमय
वातावरण
प्रदान कर
ईश्वर के समीप
ले जाता है।
भक्ति संगीत
मनुष्य को ईश्वरीय
शक्ति से
जोड़ने का
सशक्त माध्यम
है। भक्ति काल
के पश्चात जब
आधुनिक काल का
आगमन हुआ तो
विविध भक्त
साहित्यकारों
ने भक्तिमय
साहित्यिक
पक्ष में
भक्ति का
विशेष वर्णन
किया है, जिसमें
हनुमान
प्रसाद
पोद्दार, स्वामी
रामसुखदास
एवं स्वामी
करपात्री महाराज
इत्यादि
प्रमुख है।
भक्ति संगीत
की ऐतिहासिकता
का अवलोकन
करने से ज्ञात
होता है कि वैदिक
काल से आधुनिक
काल तक भक्ति
के साक्षात् प्रमाण
दृष्टिगत
होते हैं।
भक्ति पदों
में विविध
सांगीतिक
तत्वों का
समावेश उसे
अत्यधिक उच्च
स्थान प्रदान करता
है। सांगीतिक
तत्वों से
उत्पन्न
सौंदर्य
भक्ति संगीत
को उन्नत करता
है। जिसमें
स्वर,
लय, ताल, भाव, रस
एवं काकू
इत्यादि
सौंदर्य
पक्षों का
विशिष्ट
स्थान है।
संगीत का आधार
तत्व स्वर एवं
लय ही है।
शास्त्रों
में वर्णित
‘‘स्वयं
राजन्ते इति
स्वराः‘‘
अर्थात स्वर
वे हैं जो
स्वयं सुशोभित
होते हैं, जो
गीत को विविध
सप्तकों में
रंजकता
प्रदान करते
है। स्वर
सौंदर्य
विविध गमकों, मीड़, खटका, मुर्की, कण
एवं श्रुति
इत्यादि का
आवश्यकता
अनुरूप प्रयोग
कर स्वरों को
अलंकृत करना
ही है। लय का
शाब्दिक अर्थ
संयोग,
संलयन एवं
एकरूपता से
होता है।
पारिभाषिक शब्द
के
परिप्रेक्ष्य
में लय को ताल
एवं समय की माप
का आधार माना
जाता है।
प्रत्येक गीत
का किसी न
किसी निश्चित
गति के
अनुशासन में
ही गायन होता
है। संगीत में
स्वर एवं लय
ही गीत की प्रस्तुति
का आधार होतें
है। संगीत
रत्नाकर के अनुसार
’’क्रियान्तर
विश्रांति
लयः‘‘5 अर्थात क्रिया
के अंत में
विश्रांति को
लय कहा गया है, जो
भक्ति संगीत
में भाव
उत्पन्न करती
है। भक्ति
संगीत में लय
तथा ताल
सौंदर्य उनकी
प्रकृति पर
निर्भर करते
हैं। भक्ति
संगीत में
भावभिव्यक्ति
के लिए विविध
लयों और तालों
का प्रयोग कर
उसे सुसज्जित
किया जाता है।
जिसमें
विलंबित लय से
भयानक एवं
वीभत्स,
मध्यलय से
हास्य एवं
श्रृंगार तथा
द्रुत लय से
वीर, रौद्र
एवं अद्भुत रस
की निष्पत्ति
होती है। भक्ति
संगीत में
भक्त के हृदय
में भगवत
विषयक भावों
को जब संगीत
द्वारा
अनुकूलित
वातावरण मिलता
है तब भक्ति
भाव भक्त के
संपूर्ण शरीर
में
प्रवाहमान
होकर भक्तों
को असीम
रसानुभूति प्रदान
करते हैं।
संगीत के
नवरसों के
अतिरिक्त
भक्ति रस का
वर्णन भी
शास्त्रों
में मिलता है
जिसकी
निष्पत्ति भक्ति
संगीत द्वारा
भी होती है।
काकू के प्रयोग
से भी भक्ति
संगीत में
भावभिव्यक्ति
की जाती है।
एक ही स्वर का
विविध काकू
भेद अनुसार प्रयोग
कर अनेक भावों
को भक्त
व्यक्त करते
हैं। जब भक्ति
पद एवं
संगीतिक पक्ष
को एक साथ लाने
का प्रयास
किया जाता है
तो वह एक गीत
का रूप प्राप्त
करता है। ऐसा
गीत जोकि
ईश्वर से
संबंध स्थापित
कर अंतःकरण के
साक्षात
भावों की अभिव्यक्ति
कर दे वह
भक्ति पद
संगीत के
संलयन से ही
प्राप्त होता
है।
3. निष्कर्ष
अतः कहा
जा सकता है कि
संगीत में
निहित धार्मिक
संगीत जनमानस
को
आध्यात्मिक
अनुभूति कराकर
ईश्वरीय
शक्ति से
जोड़ता है, जिसमें
भक्त अपनी
भावना एवं
समर्पण भाव को
ईश्वर को
व्यक्त करते
हैं। भक्तिमय
काव्य पक्ष में
संगीत की
स्वरलहरियां
भक्ति साधना
का सशक्त
माध्यम है, जिससे
मानसिक शांति
एवं
आध्यात्मिक
विकास होता
है। संगीत
सामूहिक
भक्ति को
भजन-कीर्तन के
माध्यम से
भक्ति भावना
को प्रकट करने
का अवसर
प्रदान करता
है, जिससे
मन एवं आत्मा
पर सकारात्मक
प्रभाव पड़ता
है, जिससे
मनुष्य में
उत्पन्न
अनेकों विकार
जैसे तनाव भी
कम हो जाता
है। संगीतिक
तत्वों से निर्मित
भक्ति संगीत
यानि भक्ति पद
में सांगीतिक
तत्वों का
समागम कर उसे
ईश्वर विषयक
भाव से संलग्न
करना हैं।
भक्ति संगीत
ईश्वर प्राप्ति
का सशक्त
माध्यम
प्रदान कर
मनुष्य को ईश्वरीय
शक्ति के समीप
ले जाता है।
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