Granthaalayah
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STUDY OF ACADEMIC STRESS AMONG STUDENTS STUDYING IN SECONDARY SCHOOLS

माध्यमिक विद्यालय में अध्ययनरत् छात्रों में शैक्षिक तनाव का अध्ययन

 

Shweta Singh 1, Dr. Narendra Pandey 2

 

1 Research Scholar, Department of Education, Magadh University, Bodhgaya

2 Associate Professor, Department of Education, Magadh University, Bodhgaya

 

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ABSTRACT

English: The secondary school stage is extremely important in the educational life of any student, as this is the time when students move from childhood to adolescence, and at the same time there are extensive changes in their educational, mental, social and emotional structure. In this transitional period, students not only have to excel in the field of education, but also have to face many mental challenges such as competition, family expectations, social pressure and self-criticism. Due to these circumstances, the problem of academic stress among students studying in secondary schools is becoming serious day by day. This stress is a type of mental state in which students experience helplessness, pressure and anxiety, which can have a negative impact on their educational achievements, health and general lifestyle. One of the main causes of academic stress is excessive curriculum and exam based evaluation system. At the secondary level, students have to study many subjects at the same time, which include mathematics, science, social sciences, languages ​​etc. These subjects are not only knowledge intensive, but the expectations of passing them are also very high. Apart from this, the fear of board exams, competition to score marks, and expectations of parents and teachers put a lot of mental pressure on students. This makes students constantly worried that if they do not score good marks, their future may be bleak. This feeling makes them stressed.

 

Hindi: माध्यमिक विद्यालय का स्तर किसी भी छात्र के शैक्षिक जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि यही वह समय होता है जब छात्र बाल्यावस्था से किशोरावस्था की ओर बढ़ते हैं, और साथ ही उनकी शैक्षिक, मानसिक, सामाजिक तथा भावनात्मक संरचना में व्यापक परिवर्तन होते हैं। इस संक्रमणकाल में छात्रों को न केवल शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त करनी होती है, बल्कि प्रतिस्पर्धा, पारिवारिक अपेक्षाएँ, सामाजिक दबाव और आत्म-आलोचना जैसी कई मानसिक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। इन्हीं परिस्थितियों के कारण माध्यमिक विद्यालयों में अध्ययनरत् छात्रों में शैक्षिक तनाव की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है। यह तनाव एक प्रकार की मानसिक स्थिति होती है जिसमें छात्र असहायता, दबाव और चिंता का अनुभव करते हैं, जो उनकी शैक्षिक उपलब्धियों, स्वास्थ्य और सामान्य जीवनशैली पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। शैक्षिक तनाव के प्रमुख कारणों में सबसे प्रमुख कारण अत्यधिक पाठ्यक्रम और परीक्षा आधारित मूल्यांकन प्रणाली है। माध्यमिक स्तर पर छात्र को एक ही समय में अनेक विषयों का अध्ययन करना होता है, जिसमें गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, भाषा इत्यादि शामिल होते हैं। ये विषय न केवल ज्ञान की दृष्टि से गहन होते हैं, बल्कि इनमें उत्तीर्ण होने की अपेक्षा भी अत्यधिक होती है। इसके अलावा, बोर्ड परीक्षाओं का भय, अंक प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा, और अभिभावकों तथा शिक्षकों की अपेक्षाएँ छात्रों पर अत्यधिक मानसिक दबाव डालती हैं। इससे छात्रों को निरंतर यह चिंता सताती रहती है कि यदि वे अच्छे अंक नहीं ला सके तो उनका भविष्य अंधकारमय हो सकता है। यही भावना उन्हें तनावग्रस्त बना देती है

 

Received 27 November 2024

Accepted 29 December 2024

Published 31 January 2025

 

DOI 10.29121/granthaalayah.v13.i1.2025.6198  

Funding: This research received no specific grant from any funding agency in the public, commercial, or not-for-profit sectors.

Copyright: © 2025 The Author(s). This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.

With the license CC-BY, authors retain the copyright, allowing anyone to download, reuse, re-print, modify, distribute, and/or copy their contribution. The work must be properly attributed to its author.

 

Keywords: Secondary School, Students Studying, Academic Stress, Academic Life, Adolescence, Social and Emotional Structure, Family Expectations, माध्यमिक विद्यालय, अध्ययनरत् छात्र, शैक्षिक तनाव, शैक्षिक जीवन, किशोरावस्था, सामाजिक तथा भावनात्मक संरचना, पारिवारिक अपेक्षाएँ


1.   प्रस्तावना

आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया, मोबाइल गेम्स और इंटरनेट पर अत्यधिक निर्भरता ने भी छात्रों के तनाव में इज़ाफा किया है। छात्रों का ध्यान पढ़ाई से भटक जाता है, और जब वे पढ़ाई की ओर लौटते हैं, तो पाठ्यक्रम की मात्रा देखकर वे और अधिक तनावग्रस्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त, सोशल मीडिया पर सहपाठियों की उपलब्धियों को देखकर भी छात्र स्वयं को कमतर समझने लगते हैं, जिससे उनमें आत्म-संदेह और हीन भावना जन्म लेती है। माध्यमिक विद्यालयों में शैक्षिक तनाव को कम करने के लिए अनेक उपाय किए जा सकते हैं। सबसे पहले, विद्यालयों में जीवन कौशल शिक्षा को शामिल करना आवश्यक है, जिससे छात्रों को तनाव प्रबंधन, आत्म-नियंत्रण, सकारात्मक सोच और भावनात्मक बुद्धिमत्ता जैसे गुणों का विकास हो सके। साथ ही, शिक्षकों को छात्रों के साथ संवादपूर्ण और सहयोगात्मक व्यवहार अपनाना चाहिए, ताकि वे बिना डर के अपनी समस्याएँ साझा कर सकें। मूल्यांकन प्रणाली में भी बदलाव की आवश्यकता है। केवल परीक्षा और अंकों के आधार पर छात्रों की प्रतिभा को न मापा जाए, बल्कि परियोजना कार्य, प्रस्तुति, व्यवहार और रचनात्मकता जैसे विविध मापदंडों को भी महत्व दिया जाए। माता-पिता की भूमिका भी इस संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्हें अपने बच्चों पर अनावश्यक दबाव नहीं डालना चाहिए, बल्कि उनके स्वाभाविक रुचियों और क्षमताओं को पहचानकर उसी दिशा में उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों के साथ संवाद बनाए रखें, उन्हें भावनात्मक समर्थन दें, और उनकी छोटी-बड़ी उपलब्धियों की सराहना करें। इससे बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ता है और वे तनाव से उबरने में सक्षम होते हैं। पारिवारिक और सामाजिक वातावरण भी शैक्षिक तनाव को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कई बार माता-पिता अपने अधूरे सपनों को बच्चों पर थोप देते हैं और उनसे उस क्षेत्र में सफलता की अपेक्षा रखते हैं, जिसमें छात्र की रुचि या क्षमता नहीं होती। यह स्थिति छात्र के आत्मविश्वास को कमजोर कर देती है और वह अपने आप को हीन समझने लगता है। इसके अतिरिक्त, विद्यालयों में तुलनात्मक मानसिकता को भी बढ़ावा दिया जाता है, जहाँ छात्रों की क्षमताओं को मापने का मापदंड केवल अंक और रैंक होता है। इससे कम अंक प्राप्त करने वाले छात्रों को हीन दृष्टि से देखा जाता है, जिससे उनका मनोबल टूटता है और उनमें तनाव पनपता है।

शैक्षिक तनाव के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक प्रभाव अत्यंत गंभीर होते हैं। शारीरिक रूप से छात्र सिरदर्द, अनिद्रा, भूख में कमी, थकान, अपच जैसी समस्याओं से ग्रस्त हो सकते हैं। मानसिक रूप से वे चिंता, अवसाद, आत्मग्लानि, और आत्महत्या तक के विचारों से जूझ सकते हैं। कई बार देखा गया है कि निरंतर तनाव के कारण छात्र आत्महत्या जैसे खतरनाक कदम भी उठा लेते हैं। इसके अलावा, सामाजिक रूप से वे अपने दोस्तों, परिवार और शिक्षकों से दूरी बना लेते हैं, जिससे उनका संपूर्ण विकास बाधित होता है। लंबे समय तक तनाव की स्थिति छात्रों के व्यक्तित्व और जीवन की गुणवत्ता को बुरी तरह प्रभावित कर सकती है। सरकार और शैक्षिक संस्थानों को भी छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना चाहिए। प्रत्येक विद्यालय में एक योग्य परामर्शदाता (काउंसलर) की नियुक्ति आवश्यक होनी चाहिए, जो छात्रों की मानसिक समस्याओं को समझ सके और उन्हें समाधान प्रदान कर सके। इसके अतिरिक्त, छात्रों के लिए समय-समय पर तनाव प्रबंधन, योग, ध्यान, तथा रचनात्मक गतिविधियों पर आधारित कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिए, जिससे वे मानसिक रूप से सशक्त बन सकें। आज जब शिक्षा की प्रतिस्पर्धा अत्यधिक तीव्र हो चुकी है, और छात्रों पर उत्कृष्टता की दौड़ में आगे रहने का निरंतर दबाव है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम शैक्षिक व्यवस्था को छात्रों की मानसिक और शारीरिक भलाई के अनुकूल बनाएं। छात्रों को यह समझाना आवश्यक है कि जीवन में सफलता केवल परीक्षा के अंकों से नहीं मापी जा सकती, बल्कि उनके कौशल, व्यवहार, और आत्म-विश्वास से मापी जाती है। यदि हम समय रहते छात्रों के शैक्षिक तनाव को गंभीरता से नहीं लेंगे, तो आने वाले समय में यह एक व्यापक सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य संकट का रूप ले सकता है।

 

2.   माध्यमिक स्तर पर शिक्षा की प्रकृति और चुनौतियाँ

माध्यमिक स्तर की शिक्षा किसी भी छात्र के शैक्षिक जीवन का अत्यंत महत्वपूर्ण चरण होती है। यह स्तर प्राथमिक शिक्षा के बाद आता है और उच्च शिक्षा की नींव तैयार करता है। इस स्तर पर छात्रों का न केवल बौद्धिक विकास होता है, बल्कि उनका मानसिक, सामाजिक और नैतिक परिपक्वता की ओर भी मार्गदर्शन होता है। माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों में जीवनोपयोगी ज्ञान, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, नैतिक मूल्यों तथा सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास करना होता है। इस स्तर पर विषयों की संख्या, गहराई और कठिनाई बढ़ जाती है, जिससे छात्रों को अधिक अनुशासन, एकाग्रता और आत्मनिर्भरता की आवश्यकता होती है। लेकिन शिक्षा की यह प्रकृति अपने साथ कई प्रकार की चुनौतियाँ भी लेकर आती है, जो छात्रों, शिक्षकों और शैक्षिक व्यवस्थाओं के लिए चिंता का विषय बन जाती हैं।

माध्यमिक शिक्षा की सबसे बड़ी चुनौती इसकी पाठ्यचर्या की जटिलता है। विद्यार्थी इस स्तर पर गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, भाषा और अन्य विषयों का गहन अध्ययन करते हैं। कई बार पाठ्यक्रम इतना विस्तृत और कठिन हो जाता है कि छात्रों पर मानसिक दबाव बढ़ने लगता है। साथ ही, परीक्षा प्रणाली भी अत्यधिक अंक-आधारित और प्रतिस्पर्धात्मक होती है, जिससे छात्रों में शैक्षिक तनाव, आत्म-संदेह और असफलता का भय उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त, कई विद्यालयों में शिक्षकों की कमी, संसाधनों का अभाव और शिक्षण की पारंपरिक पद्धतियाँ शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में संसाधनों की असमानता भी एक बड़ी चुनौती है, जिससे छात्रों की सीखने की गति और समझ में अंतर आ जाता है।

माध्यमिक शिक्षा के दौरान किशोरावस्था की मनोवैज्ञानिक जटिलताएँ भी छात्रों के लिए चुनौतीपूर्ण होती हैं। इस उम्र में छात्र भावनात्मक अस्थिरता, आत्म-छवि के संकट और सामाजिक तुलना का सामना करते हैं, जो उनके शैक्षिक प्रदर्शन को प्रभावित कर सकता है। माता-पिता और शिक्षक यदि इस परिवर्तनशील अवस्था को न समझें, तो छात्रों पर अनावश्यक दबाव और अपेक्षाओं का भार बढ़ सकता है। इसके अतिरिक्त, डिजिटल माध्यमों का अत्यधिक उपयोग, मोबाइल की लत, सोशल मीडिया की तुलना और साइबर बुलिंग जैसे कारक भी छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य और एकाग्रता में बाधा उत्पन्न करते हैं।

शिक्षकों के समक्ष भी अनेक चुनौतियाँ होती हैं। उन्हें न केवल पाठ्यक्रम पूरा करना होता है, बल्कि विभिन्न पृष्ठभूमियों से आए छात्रों की समझ, रुचि और क्षमताओं को भी ध्यान में रखना पड़ता है। व्यक्तिगत मार्गदर्शन की आवश्यकता बढ़ जाती है, परंतु समय और संसाधनों की कमी इस कार्य को कठिन बना देती है। शिक्षकों का नियमित प्रशिक्षण और आधुनिक शिक्षण विधियों से परिचय भी आवश्यक है, जो अभी भी बहुत से विद्यालयों में सुलभ नहीं है।

इस प्रकार, माध्यमिक स्तर की शिक्षा जहाँ छात्रों के सर्वांगीण विकास का आधार बनती है, वहीं उसकी प्रकृति और उसमें अंतर्निहित चुनौतियाँ एक समग्र दृष्टिकोण, सहयोगपूर्ण वातावरण और सुधारात्मक नीतियों की माँग करती हैं। केवल पाठ्य ज्ञान ही नहीं, बल्कि जीवन कौशल, मानसिक स्वास्थ्य और मूल्य आधारित शिक्षा को इस स्तर पर विशेष स्थान देने की आवश्यकता है ताकि छात्र भविष्य की चुनौतियों का सामना आत्मविश्वास से कर सकें।

 

3.   शैक्षिक तनाव के प्रमुख कारण

शैक्षिक तनाव आज के समय में माध्यमिक विद्यालयों के छात्रों के लिए एक गंभीर समस्या बन गया है। यह तनाव कई आंतरिक और बाहरी कारणों से उत्पन्न होता है, जो छात्र के मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

पाठ्यक्रम की अधिकता: माध्यमिक स्तर पर छात्रों को कई कठिन और विस्तृत विषयों का अध्ययन करना पड़ता है। विषयों की गहराई और पाठ्यक्रम की लंबाई के कारण छात्रों को पढ़ाई में अधिक समय और मेहनत लगानी पड़ती है, जिससे मानसिक दबाव बढ़ता है।

परीक्षा और अंक आधारित मूल्यांकन प्रणाली: वर्तमान शैक्षिक प्रणाली में छात्रों की सफलता को अंकों और ग्रेड से आँका जाता है। यह प्रणाली छात्रों पर निरंतर अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव डालती है, जिससे वे चिंता, भय और आत्म-संदेह का अनुभव करते हैं।

अभिभावकीय एवं सामाजिक अपेक्षाएँ: माता-पिता और समाज अक्सर छात्रों से अव्यावहारिक उम्मीदें रखते हैं। वे चाहते हैं कि उनका बच्चा हर परीक्षा में सर्वोत्तम प्रदर्शन करे, जिससे छात्र मानसिक तनाव का शिकार हो जाते हैं और असफलता के डर से दबाव महसूस करते हैं।

प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण: शिक्षा क्षेत्र में बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने छात्रों के बीच एक दौड़ का माहौल बना दिया है। हर छात्र खुद को दूसरों से बेहतर साबित करने की कोशिश करता है, जिससे उनके मन में तुलना, जलन और हार का भय घर कर लेता है।

समय प्रबंधन की कमी: माध्यमिक स्तर पर छात्रों को पढ़ाई के साथ-साथ अन्य सहगामी गतिविधियों में भी भाग लेना होता है। उचित मार्गदर्शन और समय प्रबंधन की कमी के कारण वे असंतुलन का अनुभव करते हैं, जो तनाव का कारण बनता है।

शैक्षिक संसाधनों की अनुपलब्धता: ग्रामीण या साधन-संपन्न विद्यालयों में पुस्तकें, योग्य शिक्षक, और तकनीकी सुविधाओं की कमी के कारण छात्रों को अध्ययन में कठिनाई होती है, जिससे वे पिछड़ने का डर महसूस करते हैं।

डिजिटल माध्यम और सोशल मीडिया का प्रभाव: अत्यधिक मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग छात्रों के ध्यान को भटकाता है। इससे पढ़ाई की गुणवत्ता प्रभावित होती है और समय पर कार्य पूरा न होने के कारण तनाव बढ़ता है।

 

4.   शैक्षिक तनाव के निवारण हेतु विद्यालय की भूमिका

आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में माध्यमिक स्तर पर अध्ययनरत छात्रों को कई प्रकार के शैक्षिक तनावों का सामना करना पड़ता है। इनमें पाठ्यक्रम का दबाव, परीक्षा की चिंता, अभिभावकों की अपेक्षाएँ, सामाजिक तुलना, और आत्म-मूल्यांकन की असमंजस जैसी अनेक समस्याएँ शामिल हैं। ऐसे में विद्यालय की भूमिका केवल ज्ञान देने तक सीमित नहीं रह जाती, बल्कि छात्रों के मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य की देखभाल करना भी उसकी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी बन जाती है। विद्यालय एक ऐसा मंच है जहाँ विद्यार्थी अपने व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं, और यदि विद्यालय एक सकारात्मक, सहायक और संवेदनशील वातावरण प्रदान करे तो शैक्षिक तनाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है। विद्यालय में सबसे पहली भूमिका शिक्षकों की होती है। शिक्षक न केवल छात्रों को विषय-वस्तु सिखाते हैं, बल्कि वे उनके मार्गदर्शक, परामर्शदाता और प्रेरणास्त्रोत भी होते हैं। यदि शिक्षक छात्रों के साथ संवादात्मक और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें, तो छात्र अपने भीतर की चिंताओं को साझा करने में सहज महसूस करते हैं। शिक्षक यदि छात्रों के सीखने के तरीकों को समझें और पाठ्यक्रम को रुचिकर तथा व्यावहारिक तरीके से प्रस्तुत करें, तो पढ़ाई तनाव का नहीं, आनंद का विषय बन सकती है। इसके साथ ही, यदि नियमित रूप से छात्रों को व्यक्तिगत और समूह परामर्श उपलब्ध कराया जाए, तो वे मानसिक तनाव को नियंत्रित करना सीख सकते हैं।

विद्यालयों में तनाव प्रबंधन और समय प्रबंधन से संबंधित कार्यशालाओं का आयोजन भी अत्यंत लाभकारी हो सकता है। इनसे छात्र न केवल परीक्षा की तैयारी की सही रणनीति सीखते हैं, बल्कि आत्मविश्वास और एकाग्रता भी विकसित करते हैं। विद्यालयों को चाहिए कि वे सह-पाठ्यक्रम गतिविधियाँ, खेलकूद, संगीत, योग और ध्यान जैसी गतिविधियों को नियमित रूप से छात्रों के जीवन में शामिल करें। ये गतिविधियाँ तनाव मुक्ति के स्वाभाविक और सकारात्मक उपाय हैं जो मानसिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ बनाते हैं। इसके अतिरिक्त, विद्यालयों को एक ऐसी मूल्य आधारित शिक्षा प्रणाली को अपनाना चाहिए जो अंकों की होड़ से अधिक ज्ञान, नैतिकता, और कौशल के विकास पर ध्यान केंद्रित करे। यदि मूल्यांकन प्रणाली में प्रोजेक्ट आधारित, निरंतर और समग्र मूल्यांकन को स्थान दिया जाए, तो छात्रों में आत्मविश्वास बढ़ेगा और वे केवल परीक्षा केंद्रित न होकर सीखने के प्रति प्रेरित होंगे।

विद्यालयों को अभिभावकों के साथ भी एक सशक्त संवाद स्थापित करना चाहिए, ताकि वे छात्रों पर अनावश्यक दबाव न डालें और उनके प्रयासों की सराहना करें। अभिभावकों को यह समझाना विद्यालय का दायित्व है कि हर बच्चा अलग है और उसकी क्षमताएँ विविध होती हैं। अंततः, विद्यालय यदि एक सहयोगात्मक, प्रेरणात्मक और सहानुभूतिपूर्ण वातावरण का निर्माण करें, तो छात्र तनावमुक्त होकर शिक्षा में न केवल उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि एक संतुलित और स्वस्थ जीवन की ओर भी अग्रसर हो सकते हैं। यही विद्यालय की सबसे बड़ी भूमिका होनी चाहिएएक सुरक्षित, सकारात्मक और समर्थ वातावरण का निर्माण, जहाँ छात्र न केवल ज्ञान अर्जित करें, बल्कि आत्म-विश्वास, संतुलन और मानसिक दृढ़ता भी प्राप्त करें।

 

5.   माता-पिता और परिवार का सहयोगात्मक दृष्टिकोण

माध्यमिक स्तर पर अध्ययनरत छात्रों के मानसिक, शैक्षिक और भावनात्मक विकास में माता-पिता और परिवार की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। इस उम्र में छात्र शारीरिक रूप से किशोरावस्था के दौर से गुजरते हैं और मानसिक रूप से भविष्य को लेकर अनेक आशंकाओं और अपेक्षाओं से घिरे रहते हैं। ऐसे में यदि परिवार का दृष्टिकोण सहयोगात्मक, सहानुभूतिपूर्ण और प्रोत्साहन देने वाला हो, तो छात्र शैक्षिक तनाव को बेहतर ढंग से संभाल सकते हैं और अपने लक्ष्य की ओर आत्मविश्वास से बढ़ सकते हैं। माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों से अव्यावहारिक अपेक्षाएं रखने के बजाय उनकी क्षमताओं, रुचियों और सीमाओं को समझने का प्रयास करें। जब अभिभावक अपने बच्चों को केवल अच्छे अंक लाने या किसी विशेष पेशे को अपनाने के लिए बाध्य करते हैं, तो इससे बच्चों पर अत्यधिक मानसिक दबाव पड़ता है। इसके विपरीत, यदि वे बच्चों के प्रयासों की सराहना करें और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रेरित करें, तो बच्चे तनावमुक्त होकर पढ़ाई में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। सकारात्मक संवाद भी पारिवारिक सहयोग का एक महत्वपूर्ण अंग है। माता-पिता को नियमित रूप से अपने बच्चों से संवाद करना चाहिए, न कि केवल तब जब वे परीक्षा में असफल हो जाएं या कम अंक लाएं। बच्चों की भावनाओं को सुनना, उनके विचारों का सम्मान करना, और उन्हें निर्णय लेने की स्वतंत्रता देना एक स्वस्थ पारिवारिक वातावरण की पहचान है।

परिवार को यह समझना चाहिए कि हर बच्चा अलग होता है और उसकी सीखने की गति व तरीका भिन्न हो सकता है। तुलना की प्रवृत्ति, जैसे कि "पड़ोसी का बेटा तो इतना अच्छा करता है", बच्चों में हीन भावना और आत्म-संदेह उत्पन्न कर सकती है। इसके बजाय, यदि अभिभावक अपने बच्चे की प्रगति की तुलना केवल उसके पूर्व प्रदर्शन से करें और सुधार की दिशा में मार्गदर्शन दें, तो बच्चा स्वयं में सुधार की ओर प्रवृत्त होता है। सहयोगात्मक दृष्टिकोण में यह भी शामिल है कि माता-पिता स्कूल और शिक्षकों के साथ मिलकर कार्य करें। नियमित अभिभावक-शिक्षक बैठकों में भाग लेना, स्कूल की गतिविधियों में रुचि लेना, और बच्चों की समस्याओं को समझने का सामूहिक प्रयास करना छात्रों के समग्र विकास के लिए आवश्यक है। अंततः, परिवार यदि बच्चों के लिए एक सुरक्षित, प्रेरणात्मक और स्नेहपूर्ण वातावरण प्रदान करे, जहाँ वे अपनी बात खुलकर कह सकें और बिना भय के आगे बढ़ सकें, तो शैक्षिक तनाव जैसी समस्याएं बहुत हद तक कम हो सकती हैं। इस दृष्टिकोण से न केवल छात्रों का मानसिक स्वास्थ्य बेहतर होता है, बल्कि उनके आत्मबल और आत्मविश्वास में भी उल्लेखनीय वृद्धि होती है।

 

6.   निष्कर्ष

माध्यमिक विद्यालय में अध्ययनरत छात्रों में शैक्षिक तनाव एक बहुआयामी समस्या है, जो शैक्षिक प्रणाली, पारिवारिक वातावरण, सामाजिक दबाव और व्यक्तिगत मानसिकता से जुड़ी हुई है। इसे दूर करने के लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है, जिसमें शिक्षक, माता-पिता, शैक्षिक नीति निर्माता, और स्वयं छात्र सभी को अपनी भूमिका समझनी होगी। तभी हम एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का निर्माण कर सकेंगे, जहाँ शिक्षा तनाव का नहीं, बल्कि आनंद, रचनात्मकता और विकास का माध्यम बने।

 

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