CULTURAL
CONTINUITY OF UTTARAKHAND'S RAMLILA
उत्तराखंड की रामलीला का सांस्कृतिक सातत्य
Professor Punita Gupta 1, Dr. Chandra Shekhar Badhani 2, Nipun Nishant 3
1 Research Director, ICSSR Research Programme, Aditi Mahavidyalaya, University of Delhi, Delhi, India
2 Research Associate, ICSSR Research Programme, Aditi Mahavidyalaya, University of Delhi, Delhi, India
3 Research Assistant, ICSSR Research Programme, Aditi Mahavidyalaya, University of Delhi, Delhi, India
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ABSTRACT |
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English: Ram is the
center point of the value concept of Indian wisdom" (Ramchand 2024:
169). Ramlila is an integral part of Indian culture and traditions, through
which the life and ideals of Ram are presented in a dramatic form. This performance
is very important from religious, social and
cultural point of view. The tradition of Ramlila holds a special place in
Uttarakhand, where it is a symbol of cultural heritage and community
participation. The traditional form of Ramlila in Uttarakhand is full of
localness, which is celebrated as a cultural festival in open spaces of
villages, towns and cities, government land or buildings and the land of the
staging committee. About 44 male and 18 female characters play an important
role in the staging of Ramlila. The characters for the performance are
usually selected from the local community, who display the traditional art of
performance. The roles of the characters, traditional costumes, and the use
of local musical instruments make this event even more special and
picturesque. These performances show the inclusion of religiosity and
customs, which gives the audience a unique experience of spirituality and
entertainment. Technology and modernity have also influenced the form of
Ramlila performance, such as the inclusion of modern sound and light
arrangements, digital technology, modern songs and music and contemporary
contexts make Ramlila more attractive. These technological changes have
played an important role in connecting the young audience. The dramatic
inclusion of contemporary problems and issues also makes the performance
relevant and entertaining. Ramlila organizing committees consider Ramlila not
only a religious event, but also a means of promoting social unity and
community spirit. Along with spreading moral and religious values, this event
is also helpful in preserving regional traditions. In Uttarakhand, this event
is working to keep people connected to their cultural roots from generation
to generation. Uttarakhand's Ramlila is known for its historicity, staging
style, cultural diversity, and community participation. It is a wonderful
example of harmony between tradition and modernity, where a confluence of
traditional culture and modern presentation is seen. The study of Uttarakhand's
Ramlila provides an opportunity to understand its historicity, staging style,
cultural neutrality, community participation (especially in the context of
women's participation), and the balance between tradition and modernity. It
is not only a religious and cultural heritage, but also a living tradition,
which accepts the change of time and maintains its relevance and originality
as well as carries out the process of change and continuity. Hindi: राम भारतीय ज्ञान की मूल्य अवधारणा के केंद्र बिंदु हैं” (रामचंद 2024: 169)। रामलीला भारतीय संस्कृति और परंपराओं का एक अभिन्न अंग है, जिसके माध्यम से राम के जीवन और आदर्शों को नाटकीय रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह प्रदर्शन धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। रामलीला की परंपरा उत्तराखंड में एक विशेष स्थान रखती है, जहां यह सांस्कृतिक विरासत और सामुदायिक भागीदारी का प्रतीक है। उत्तराखंड में रामलीला का पारंपरिक रूप स्थानीयता से भरा है, जिसे गांवों, कस्बों और शहरों, सरकारी भूमि या भवनों और मंचन समिति की भूमि के खुले स्थानों में एक सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। रामलीला के मंचन में लगभग 44 पुरुष और 18 महिला पात्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रदर्शन के लिए पात्रों का चयन आमतौर पर स्थानीय समुदाय से किया जाता है, जो प्रदर्शन की पारंपरिक कला का प्रदर्शन करते हैं। पात्रों की भूमिका, पारंपरिक वेशभूषा और स्थानीय संगीत वाद्ययंत्रों का उपयोग इस आयोजन को और भी विशेष और मनोरम बना देता है। इन प्रदर्शनों में धार्मिकता और रीति-रिवाजों का समावेश दिखता है, जो दर्शकों को आध्यात्मिकता और मनोरंजन का अनूठा अनुभव कराता है। तकनीक और आधुनिकता ने रामलीला प्रदर्शन के स्वरूप को भी प्रभावित किया है, जैसे आधुनिक ध्वनि एवं प्रकाश व्यवस्था, डिजिटल तकनीक, आधुनिक गीत-संगीत और समसामयिक संदर्भों का समावेश रामलीला को और अधिक आकर्षक बनाता है। इन तकनीकी परिवर्तनों ने युवा दर्शकों को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। समसामयिक समस्याओं और मुद्दों का नाटकीय समावेश भी प्रदर्शन को प्रासंगिक और मनोरंजक बनाता है। रामलीला आयोजन समितियां रामलीला को न केवल एक धार्मिक आयोजन मानती हैं, बल्कि सामाजिक एकता और सामुदायिक भावना को बढ़ावा देने का एक माध्यम भी मानती हैं। नैतिक और धार्मिक मूल्यों के प्रसार के साथ-साथ यह आयोजन क्षेत्रीय परंपराओं के संरक्षण में भी सहायक है। उत्तराखंड में यह आयोजन पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़े रखने का काम कर रहा है। उत्तराखंड की रामलीला अपनी ऐतिहासिकता, मंचन शैली, सांस्कृतिक विविधता और सामुदायिक सहभागिता के लिए जानी जाती है। यह परंपरा और आधुनिकता के बीच सामंजस्य का एक अद्भुत उदाहरण है, जहां पारंपरिक संस्कृति और आधुनिक प्रस्तुति का संगम देखने को मिलता है। उत्तराखंड की रामलीला के अध्ययन से इसकी ऐतिहासिकता, मंचन शैली, सांस्कृतिक तटस्थता, सामुदायिक सहभागिता (विशेषकर महिलाओं की भागीदारी के संदर्भ में) और परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन को समझने का अवसर मिलता है। यह न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत है, बल्कि एक जीवंत परंपरा भी है, जो समय के परिवर्तन को स्वीकार कर अपनी प्रासंगिकता और मौलिकता को बनाए रखने के साथ-साथ परिवर्तन और निरंतरता की प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है। यह आईसीएसएसआर द्वारा वित्तपोषित कार्यक्रम "उत्तराखंड में रामलीला मंचन के इतिहास और समकालीन प्रस्तुति शैलियों का तुलनात्मक अध्ययन और महिलाओं की भागीदारी का सामाजिक प्रभाव आकलन" के तहत किए गए शोध कार्य का एक हिस्सा है। |
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Received 25 December 2024 Accepted 01 February
2025 Published 11 March 2025 Corresponding Author Nipun
Nishant, nipun2nishaht@gmail.com DOI 10.29121/granthaalayah.v13.i2.2025.5977 Funding: This is a part
of the research work done under the ICSSR funded program "Comparative
study of the history of Ramlila staging and contemporary styles of
presentation in Uttarakhand and social impact assessment of women's
participation". Copyright: © 2025 The
Author(s). This work is licensed under a Creative Commons
Attribution 4.0 International License. With the
license CC-BY, authors retain the copyright, allowing anyone to download,
reuse, re-print, modify, distribute, and/or copy their contribution. The work
must be properly attributed to its author. |
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Keywords: Ramlila, Tradition,
Modernity, Community Participation, Technology and Innovation, रामलीला, परंपरा, आधुनिकता, सामुदायिक
सहभागिता, प्रौद्योगिकी
और नवाचार |
प्रस्तावना
भारतीय
समाज में
रामलीला एक
ऐसा
सांस्कृतिक पर्व
है, जो
न केवल राम के
जीवन और उनके
आदर्शों का
प्रदर्शन
करता है, बल्कि
समाज के
धार्मिक, सांस्कृतिक, और
सामाजिक
पहलुओं को भी
उजागर करता
है। रामायण
महाकाव्य पर
आधारित
रामलीला, जिसका
शाब्दिक अर्थ
है ‘‘राम की
लीला एक कथा
की संगीतमय
नाट्य प्रस्तुति
है। इसमें गीत, अभिनय
और संवाद के
माध्यम से
प्रसंगो को
प्रस्तुत
करने का
प्रयास किया
जाता है। यह
मंचन,
संगीत,
नृत्य,
और गेय की कला
के माध्यम से
एक जीवंत
परंपरा का रूप
लेता है।
समाजशास्त्र
की दृष्टि से
रामलीला न
केवल धार्मिक
आयोजनों का
प्रतीक है, बल्कि
एक सामुदायिक
गतिविधि है, जो
समाज को एक
साथ जोड़ती है
और सामूहिक
एकता व पहचान
को बढ़ावा देती
दिखती है।
समाजशास्त्र में, सांस्कृतिक
और धार्मिक
आयोजनों को
सामूहिक एकता, सामाजिक
संरचना,
और
सामुदायिक
भागीदारी के
संदर्भ में
देखा जाता है।
रामलीला एक
ऐसा मंच है, जहाँ
धर्म,
कला,
और संस्कृति
का संगम होता
है। यह आयोजन
केवल धार्मिक
कथा का
प्रदर्शन
नहीं है, बल्कि
सामाजिक
संबंधों, सामुदायिक
संरचनाओं, और
सांस्कृतिक
धरोहरों के
संरक्षण का
माध्यम भी है।
रामलीला का
आयोजन
मुख्यतः
सामुदायिक
सहयोग पर
आधारित होता
है। यह आयोजन
समाज के विभिन्न
वर्गों के बीच
एक सेतु का
कार्य करता है।
समाजशास्त्रीय
दृष्टिकोण से, यह
प्रक्रिया
समाज में एकता
और सहयोग की
भावना को
प्रोत्साहित
करती है।
विभिन्न वर्ग
और पृष्ठभूमि
के व्यक्ति
यथा कलाकार, आयोजक
व दर्शक इसमें
सक्रिय रूप से
भाग लेते हैं।
यह सामूहिकता समाज
के भीतर
सामाजिक
पूंजी के
निर्माण में सहायक
होती है।
रामलीला
केवल धार्मिक
महत्व तक
सीमित नहीं है।
यह सामाजिक
समरसता और
सामूहिक एकता
का भी प्रतीक
है। राम के
जीवन की कथा, जो
धर्म,
न्याय,
और नैतिकता
के आदर्शों को
दर्शाती है, दर्शकों
को उनके दैनिक
जीवन में इन
मूल्यों को
अपनाने के लिए
प्रेरित करती
है।
साहित्य पुनरावलोकन
रामलीला
भारतीय
संस्कृति का
एक
महत्वपूर्ण हिस्सा
है, जो
राम के जीवन
और उनके
आदर्शों को
नाटकीय रूप
में प्रस्तुत
करता है।
‘‘गौतम
चंद्रिका में
तुलसी के
रामलीला
प्रारम्भ
करने का जो
विवरण प्राप्त
होता है, उसमें
सर्वप्रथम
गंगातट अस्सी
पर राज्याभिषेक
लीला
प्रारम्भ
करने का
उल्लेख मिलता
है‘‘अवस्थी (1979:87)। ‘‘हरिवंश
पुराण में
रामचरित
अभिनय का
उल्लेख मिलता
है‘‘कामिल(2015:158)।
प्रमुखतः
हिन्दी भाषी राज्यों
में आयोजित
होनी वाली
रामलीला का मंचन
उत्तर तथा
मध्य भारत के
गांवों,
कस्बों, शहरों तथा
महानगरों में
शारदीय
नवरात्र के अवसर
पर किये जाने
का प्रावधान
है‘‘सकलानी(2013:159)। उत्तराखंड
में रामलीला
मंचन की
शुरूआत
कुमाँऊ मण्डल
के अल्मोड़ा
में दन्या के
बद्रीदत्त
जोशी ने बद्रेश्वर
मैदान में
सर्वप्रथम 1860
में आयोजित की
थी‘‘तिवारी(2011:7)।
रामलीला मंचन
हेतु
ऐतिहासिक व
सुप्रसिद्ध नाटक
के लेखक पं0
रामदत्त
ज्योतिर्विद
महोपदेशक के
अनुसार ‘अभिनय
की रीति पर
रामलीला करने
में
सहायतार्थ ‘‘रामलीला
नाटक‘‘ बनाया
गया। इस ग्रन्थ
में तुलसीदास
कृत रामायण की
दोहा चैपाई संवाद
के ढंग पर कवि
वाक्य हटा
करके रखी गई
है और
कहीं-कहीं पर
श्रीमद्वाल्मीकीय
रामायण एवं
आध्यात्म
नेपाली
रामायण के
श्लोक भी दिए
गए
हैं‘‘रामदत्त(2024)।
श्रीनगर में
रामलीला मंचन
का प्रारम्भ 1896 से
माना जाता
है‘‘पंवार(2011:20)। गढ़वाल
मण्डल में
सांस्कृतिक
नगरी पौड़ी में
1897
में कांडई
गांव पौड़ी में
इसका मंचन
स्थानीय लोंगों
द्वारा आरम्भ
हुआ‘‘बहुगुणा(2014:22)। आधुनिक
भैतिकवादी
युग में
टेलीविजन, इण्टरनेट
के उपयोग से
एक बड़ी चुनौती
रामलीला मंच
को मिली है।
फिर भी
रामलीला से जुड़े
कार्यकर्ता
निरंतर
प्रयासरत हैं
कि दर्शकों का
रामलीला के
प्रति आकर्षण
बना रहे‘‘सकलानी
व रावत (2016:7)।
1949
से स्वतंत्र
भारत में
टिहरी रियासत
के विलय के
पश्चात ही राम
की तपस्थली
देवप्रयाग
में रामलीला
की शुरूआत
मानी जाती है, एवं
निरंतर
आयोजित होती
है‘‘जोशी(2015:6)। उत्तराखंड
की रामलीला, अपनी
विशिष्ट
परंपराओं और
आधुनिकता के
साथ, इस
सांस्कृतिक
धरोहर का एक
अद्वितीय
उदाहरण प्रस्तुत
करती है।
रामलीला के
विकास और इसके
सांस्कृतिक, धार्मिक, तथा
सामाजिक
महत्व को
समझने के लिए
विभिन्न साहित्यिक
स्त्रोतों का
अध्ययन किया
गया है। इन
स्रोतों ने उत्तराखंड
की रामलीला
में परंपरा और
आधुनिकता के
बीच संतुलन को
समझने में
सहायक भूमिका
निभाई है। उत्तराखंड
की रामलीला
अपनी प्राचीन
परंपराओं के
लिए जानी जाती
है। ग्रामीण
क्षेत्रों
में इसका आयोजन
खुले मैदानों, मंदिर
प्रांगणों, और
निजी भूमि में
होता है।
रामलीला मंचन
में स्थानीय
कलाकार,
जो
अधिकांशतः
पीढ़ी दर पीढ़ी
इस कला को
निभाते हैं, प्रमुख
भूमिका में
रहते हैं।
पारंपरिक
रामलीला का
मंचन पारसी
रंगमंच,
राधेश्याम
शैली एवं
गेयता में
प्रस्तुत किया
जाता है।
वेशभूषा, संगीत, और
नृत्य का
उपयोग दृश्यों
के अनुरूप
किया जाता है
ताकि मंचन को जीवन्तता
प्रदान की जा
सके। समय के
साथ, रामलीला
के पारंपरिक
स्वरूप में
बदलाव आया है।
उत्तराखंड
में तकनीकी
नवाचारों से
रामलीला को
अधिक व्यापक
और समकालीन
बनाया जा रहा
है। संसाधनों
की उपलब्धता
डिजिटलाइजेशन, ध्वनि
प्रभाव,
और
रंग-बिरंगी
रोशनी जैसे
नवाचारों को
आधुनिक
रामलीला में
अधिक से अधिक
दर्शको के
आकर्षण का
कारण है।
डिजिटल
पृष्ठभूमि
आधुनिक संगीत वाद्य
यंत्र,
फिल्मी
गानों की
तर्जों पर भजन
वेशभूषा एवं साज-सज्जा
में आधुनिकता
की झलक
रामलीला के
शहरीकरण का एक
जीवन्त
उदाहरण बन रहे
हैं। स्थानीय
परम्पराओं पर
सहसंस्कृतिकरण
के प्रभाव को
रामलीलाओं के
बदलते स्वरूप
से आंका जा
सकता है। यह न
केवल बदलाव
युवा पीढ़ी को
आकर्षित करने
का प्रयास है
अपितु यह एक
संसाधन
क्षमता
प्रदर्शन का
भी एक माध्यम
है। भव्य सेट, भड़काऊ
संगीत,
पुरूषों
द्वारा महिला
वेशभूषा में
कामुक नृत्य व
फूहड़ हास्य, तीक्ष्ण
प्रकाश
व्यवस्था को
कई आयोजन
समितिओं ने
विशेष स्थान
देना शुरू कर
दिया है, सम्भवतः
कई पंडालों
में अधिक
संख्या में
युवा दर्शकों
का होने का एक
प्रमुख कारण
हो सकता है, परन्तु
अभी भी
मुख्यतः उत्तराखंड
में रामलीला न
केवल धार्मिक
अनुष्ठान है, बल्कि
यह सामुदायिक
एकता का भी
माध्यम है। स्थानीय
समाज के नैतिक
और धार्मिक
मूल्यों को सुदृढ़
करने में इसका
विशेष योगदान
है। आधुनिक तकनीकों
के समावेश ने
रामलीला के
अनुभव को और अधिक
जीवंत और
प्रभावी
बनाया है, साथ
ही भावनात्मक
तौर पर
रिक्तता भी
उत्पन्न किया
है। तकनीक के
प्रभाव ने
पारम्परिक
संवाद शैली की
जगह अब संवाद, अभिनय
और ध्वनि
रिकॉर्डिंग
का स्थान ले
लिया है। उत्तराखंड
में रामलीला
का आयोजन
सामूहिक
प्रयासों से होता
है, जिसमें
गाँव के सभी
वर्गों के लोग
भाग लेते हैं।
पारंपरिक
रामलीला के
दौरान
धार्मिक
रीति-रिवाजों
और सामुदायिक
मेलजोल का
अद्वितीय
उदाहरण देखने
को मिलता है, जोकि
सामाजिक और
सांस्कृतिक
सामंजस्य का
प्रतीक है।
रामलीला में
परंपरा और
आधुनिकता के बीच
सामंजस्य
स्थापित करने
की दिशा में
प्रयास के लिए
पारंपरिक
संवाद,
वेशभूषा, और
संगीत को
आधुनिक
तकनीकों के
साथ जोड़कर रामलीला
को प्रासंगिक
और आकर्षक
बनाया जा रहा
है।
सामुदायिक
भागीदारी, धार्मिक
आस्था,
और आधुनिक
तकनीकी इस
सांस्कृतिक
धरोहर को संरक्षित
करने का
प्रयास करती
है और इसे
प्रासंगिक भी
बनाए रखती है।
पद्धतिशास्त्र
उत्तराखंड
में रामलीला
संस्कृति
अध्ययन के लिए
बहुआयामी
पद्धतिशास्त्र
अपनाया गया है, जो
इसके
सांस्कृतिक, सामाजिक
और धार्मिक
पहलुओं का
गहराई से विश्लेषण
करता है। इस
अध्ययन में
समाजशास्त्रीय
दृष्टिकोण के
अन्तर्गत
मानव व्यवहार
और परंपराओं
को उनके
सांस्कृतिक
संदर्भ में
समझने के लिए
गुणात्मक शोध
पद्धति का
उपयोग किया गया
है।
साक्षात्कार, अवलोकन, और
दस्तावेज
विश्लेषण
जैसी तकनीकों
के माध्यम से
रामलीला के
पारंपरिक और
आधुनिक
स्वरूपों के
बीच संतुलन को
समझने का
प्रयास किया
गया है।
कलाकारों, आयोजकों
और दर्शकों के
साथ गहन
साक्षात्कार
कर परंपरा और
आधुनिकता के प्रभावों
का मूल्यांकन
करने का
प्रयास किया गया
है। प्रदर्शन
के दौरान
वेशभूषा, मंच सज्जा, पारंपरिक
वाद्ययंत्रों
और डिजिटल
तकनीकों के
उपयोग का
प्रत्यक्ष
अवलोकन किया
गया, जिससे
रामलीला की
बदलती
प्रथाओं को
समझा जा सके।
ऐतिहासिक
दस्तावेजों
और समकालीन
स्रोतों यथा
प्रकाशित व
अप्रकाशित
लेखों,
पत्र-पत्रिताओं, शोध
प्रबन्ध और
समाचार लेखों
का विश्लेषण
भी किया गया, जो
रामलीला के
विकास और
सांस्कृतिक
महत्व को उजागर
करते हैं।
अध्ययन के लिए
उत्तराखंड के
कुमाऊँ और
गढ़वाल
क्षेत्रों के
ग्रामीण और
शहरी आयोजनों
को
उद्देश्यपूर्ण
नमूना पद्धति
के तहत चुना
गया, जहाँ
रामलीला की
परंपरा गहरी
और समृद्ध
मानी जाती है।
गुणात्मक
विश्लेषण इस
सांस्कृतिक धरोहर
के महत्व को
रेखांकित
करता है, साथ ही यह
भी दर्शाता है
कि आधुनिकता
और तकनीकी
नवाचारों ने
इसके स्वरूप
को किस प्रकार
प्रभावित
किया है।
प्रस्तुत शोध
पत्र मुख्यतः
शोधार्थियों
के रामलीला
मंचन के गहन
अवलोकनों पर
आधारित है
जिसके लिए
पूर्वनियोजित
बिन्दुओं को
ध्यान में रखा
गया।
सांस्कृतिक आयोजन के रूप में मंचन की परम्परा व आधुनिकता
समाजशास्त्र
में, धार्मिक
आयोजन
सामाजिक
संबंधों को
सुदृढ़ करने और
सामुदायिक
एकता को बढ़ावा
देने का कार्य
करते हैं।
रामलीला इस
दृष्टिकोण से
एक उत्कृष्ट
उदाहरण है।
नैनीताल जनपद
में
स्वतत्रंता
संग्राम में
विशेष योगदान रखने
वाले कोटाबाग
में आदर्श
रामलीला
कमेटी झूलाबाज़ार, आंवलाकोट के
वरिष्ठ
कलाकार और
मैनेजर गोपाल
सिंह बोहरा व
तारादत्त
जोशी के
अनुसार संवाद
के लिए पूर्व
में गेय शैली
की प्रधानता
अधिक थी और
वर्तमान में
आधुनिक
तकनीकों ने
मंचन को सरल व
सुगम बनाया
है। कोटादून
खेल एवं
सांस्कृतिक
उत्थान समिति आंवलाकोट
कोटाबाग के
अध्यक्ष
कैलाश चन्द्र
जोशी अध्यापक
भुवन चन्द्र
पाण्डेय जी के
रामलीला मंचन
के प्रयासों
को याद करते
हुए मानते हैं
कि यद्यपि वर्तमान
में मनोरंजन
के अनेक
संसाधन हैं तो
भी रामलीला की
प्रासंगिकता
उसके सामाजिक
सौहार्द के
कारण
प्रत्येक
आयुवर्ग के
लिए रहती है।
संगीत में
प्रभाकर
हिमांशु
कपकोटी के
अनुसार
रामलीला में
शास्त्रीय
राग न केवल
मंचन को आकर्षक
बनाते हैं
बल्कि यह उत्तराखंड
की रामलीलाओं
की विशिष्टता
व विशेषता भी
रही है। आंवलाकोट
में होने वाली
बाल रामलीला
के पात्र
प्रणव शर्मा
संगीत में
रूचि के लिए
रामलीला मंचन
को कारण मानते
हैं। जनपद
नैनीताल के
शिक्षा विभाग
में प्रधान
अध्यापक व
बीआरसी में समन्यवक
रहे
चन्द्रशेखर
ढौड़ियाल के
अनुसार रामलीला
मंचन बच्चों
में संस्कृति
व परम्परा को
सीखने के मूल
तत्वों में से
एक है।
गरमपानी की
रामलीला के
वरिष्ठ
कलाकार व
मैनेजर राजेन्द्र
प्रसाद
त्रिपाठी
साक्षात्कार
में बताते हैं
कि ‘‘मैं अपने
गुरू नृत्य
सम्राट उदय शंकर
जी के शिष्य
रहे केशवदत्त
काण्डपाल की
कृपा से लगभग
पिछले 50 वर्षों
से रामजी की
सेवा में हूँ
और दर्शकों की
रूचि अनुरूप
अभिनय को लेकर
समयानुकूल
रामलीला मंचन
में परिवर्तन
देख रहा हूँ।‘‘
विकासखण्ड
कोटाबाग के
दुर्गम क्षेत्र
सौड़ की
रामलीला के
सम्बन्ध में
खुशाल सिंह
बिष्ट मानते
हैं कि यह
पारम्परिक
संस्कृति को
सीखने व
व्यवहार में
उतारने की
पाठशाला है।
गरमपानी की
रामलीला में
सपरिपार
अभिनय करने
वाले
त्रिभुवन
पाठक मानते
हैं कि
रामलीला स्थानीय
समुदायों के
लिए एक
सामाजिक मिलन
स्थल का कार्य
करता है।
अल्मोड़ा में
होने वाली ऐतिहासिक
रामलीला के
सम्बन्ध में
पत्रकारिता
और जनसंचार
विभाग सोबन
सिंह जीना
विश्वविद्यालय
अल्मोड़ा के डॉ.
ललित चन्द्र
जोशी के
अनुसार
शास्त्रीय
राग अल्मोड़ा
की रामलीला को
विशिष्टता
प्रदान करते
हैं। स्थानीय
समुदाय मिलकर
रामलीला का
आयोजन करते
हैं, जो
न केवल
धार्मिक
महत्व रखता है, बल्कि
सामाजिक
संबंधों को भी
सुदृढ़ करता
है। उत्तराखंड
की रामलीला
में मंचन की
विशेष
पारंपरिक
वेशभूषा
जिसमें राजसी
व वनवासी, संगीत
वाद्ययंत्र
हारमोनियम व
तबला का प्रयोग
करते हैं साथ
ही मनोरंजन के
उद्देश्य से
कुछ दृश्यों
में
क्षेत्रीय
भाषाओं का भी
उपयोग करते
हैं। ये तत्व
इस आयोजन को
विशिष्टता
प्रदान करते
हैं।
समाजशास्त्र
की दृष्टिकोण
से, यह
प्रक्रिया
स्थानीय
संस्कृति के
संरक्षण और
प्रसार का एक
माध्यम भी है।
पिथौरागढ़
जनपद के
पन्त्यूरी की
रामलीला के
मैनेजर
कुलोमनी पंत
मानते हैं कि
रामलीला मंचन
में महिला पात्रों
का अभिनय
पुरूष
कलाकारों की
तुलना में अधिक
सफल होता है।
जिसका प्रमुख
कारण वे महिला
पात्रों का
अपनी भूमिका
के प्रति अधिक
सजग व गम्भीर
होना मानते
हैं। काटेबोरा
गांव की जानकी
बोरा ने एक
अन्य प्रमुख
पहलू पर प्रकाश
डाला कि
महिलाओं की
रामलीला में
सहभागिता न
केवल महिलाओं
की दृश्यता को
बढ़ाती है वरन्
साथ ही
महिलाओं को
दर्शकों के
रूप में घर से
बाहर निकलने
का एक अवसर भी
देती है।
कर्नाटकखोला
अल्मोड़ा की
ममता खत्री जो
कई वर्षों से
रामलीला में
अभिनय करती आ
रही हैं यह
मानती हैं कि
रामलीला मंचन
में महिलाओं
की सहभागिता
ने पुरूष
वर्चस्ववादी
मानसिकता को
प्रश्नगत किया
है। समय के साथ, रामलीला
प्रदर्शन में
तकनीकी
नवाचार,
जैसे
डिजिटलाजेशन, ध्वनि
और प्रकाश
व्यवस्था का
उपयोग किया
जाने लगा है।
विभिन्न
पात्रों के
लिए झूलाघाट
की रामलीला
में भी अभिनय
कर चुके ग्राम
पन्त्यूरी के
गोविन्द पंत व
अध्यापक
विद्यासागर
पंत मानते हैं
कि रामलीलाओं
में नवाचार
दर्शकों के
लिए अधिक
आर्कषण का
केन्द्र होता
है। भारत हेवी
इलेक्ट्रिकल्स
लिमिटेड(BHEL) हरिद्वार
सेक्टर-3 में
वीएफएक्स
तकनीक मंचन को
आर्कषक बनाने
के लिए उपयोग
में लायी जा
रही है। यह
आधुनिक दृष्टिकोण
प्रदर्शन को
अधिक आकर्षक
बनाता है और युवा
पीढ़ी को इस परंपरा
के प्रति
जोड़ता है।
रामलीला
में सामाजिक
मुद्दों का
समावेश भी देखा
जा सकता है।
पर्यावरण
संरक्षण, महिला
सशक्तिकरण, और
नशा मुक्ति
जैसे विषय
रामलीला मंच
के माध्यम से
जागरूकता के
लिए किया जाता
रहा है। पौड़ी
के वरिष्ठ
कलाकार
गौरीशंकर
थपलियाल के
अनुसार ‘‘मूल जड़ों
से जुडे़ रहना
लोकरंजन और
वास्तविक
मनोरंजन है।‘‘
रामलीला मंच
सामाजिक व
समसामयिक
पहलुओं को
समाज के बीच
रखने में सबसे
सशक्त माध्यम
है। उनके
अनुसार
भारत-चीन
युद्व के
दौरान भी पौड़ी
के रामलीला
मंच से सन्देश
जनता को दिया
गया था।
नागेन्द्र
सकलानी जी के
वंशज,
समाजसेवी व
ऋषिकेश की रामलीला
के संगठन
मंत्री
प्रदीप
सकलानी व उनके
3
सहयोगी अनिल
बडोनी,
संदीप परमार
व जितेन्द्र
उनियाल ने
ऋषिकेश के 14बीघा
की रामलीला
जोकि कई
वर्षों से
नहीं की जा
रही थी,
को युवाओं
में बढ़ रहे
नशे से मुक्ति
के लक्ष्य से
पुनः शुरू
किया जोकि
उनकी अपेक्षा
से कही अधिक
सफल रहा है।
रामलीला केवल
एक धार्मिक आयोजन
नहीं है। यह
सामुदायिक
संबंधों और
सामूहिक
स्मृति का
संरक्षण भी
है।
समाजशास्त्र
में, सामूहिक
स्मृति को
सामाजिक एकता
और पहचान के निर्माण
का एक
महत्वपूर्ण
पहलू माना
जाता है।
पिथौरागढ़ में
नेपाल देश की
सीमा से लगे
हुए झूलाघाट
में आयोजित
होने वाली
रामलीला के
विषय में
अध्यापक
सदानन्द भट्ट
के अनुसार
यद्यपि वर्तमान
में कुछ ही
नेपाल मूल के
निवासी अभिनय हेतु
रामलीला मंचन
में भाग लेते
हैं परन्तु कुछ
वर्ष पूर्व तक
झूलाघाट की
रामलीला में
नेपाल मूल के
निवासी
विभिन्न
पात्रों की
भूमिका के लिए
अभिनय करते
थे। उनका
मानना है कि
यह भारत-नेपाल
के रोटी-बेटी
के सम्बन्धों
को बढ़ावा देने
दृष्टिकोण से
बहुत ही
महत्वपूर्ण
रहा है।
झूलाघाट
रामलीला में
विभिन्न
भूमिकाओं को
निभाने वाले
अध्यापक
कैलाश भट्ट
मानते हैं कि
यह भारत-नेपाल
राष्ट्रों के
मध्य घनिष्ठ
सम्बन्धों का
प्रतीक है
वर्तमान में
भी नेपाल मूल
के राजनैतिक व
प्रभावशाली
व्यक्ति झूलाघाट
की रामलीला को
देखने विशेष
रूप से आते हैं।
पिथौरागढ़ के
श्याम सुन्दर
सिंह सौन मानते
हैं कि
रामलीला मंचन
हमारी
संस्कृति का
अगली पीढ़ी को
परम्पराओं का
हस्तान्तरण
और संरक्षण
है। रामलीला
के माध्यम से, समाज
अपनी
सांस्कृतिक
और ऐतिहासिक
धरोहर को पीढ़ी
दर पीढ़ी
संरक्षित
करता है।
झूलाघाट की रामलीला
में विभिन्न
पात्रों के
लिए अभिनय कर चुके
इश्वरी दत्त
जोशी मानते
हैं कि
रामलीला न
केवल
सांस्कृतिक
धरोहर को
संरक्षित
करती है, बल्कि
सामाजिक
पहचान और
सामुदायिक
भावना को भी
बनाए रखती है।
उत्तराखंड
में, रामलीला
के दौरान
कलाकार और
दर्शक दोनों
ही सामूहिक
स्मृति के
निर्माण और
संरक्षण में
योगदान करते
हैं। यह
प्रक्रिया
समाज को उसके
मूल्यों, परंपराओं, और
सांस्कृतिक
धरोहर से जोड़े
रखने में
सहायक होती
है।
समाजशास्त्र
में, पर्यावरण
और संस्कृति
के बीच
संबंधों का
अध्ययन
महत्वपूर्ण
है। उत्तराखंड
की रामलीला इस
संबंध का एक
उत्कृष्ट
उदाहरण प्रस्तुत
करती है, जहाँ
प्राकृतिक
परिवेश
सांस्कृतिक
अनुभव को
गहराई और
विशिष्टता
प्रदान करता
है। रामलीला
केवल मनोरंजन
का साधन नहीं
है बल्कि यह
समाज को नैतिक
और सामाजिक
शिक्षा
प्रदान करने
का एक माध्यम
भी है। राम के
जीवन की कथा
दर्शकों को
सत्य,
धर्म,
और न्याय
जैसे मूल्यों
को अपनाने के
लिए प्रेरित
करती है जोकि
सामाजिक
शिक्षण का एक
महत्वपूर्ण
माध्यम है। उत्तराखंड
की रामलीला
में, कलाकार
और आयोजक अपने
प्रदर्शन के
माध्यम से दर्शकों
को नैतिकता, सामाजिक
एकता,
और
सांस्कृतिक
मूल्यों का
संदेश देते
हैं। यह
प्रक्रिया
समाज को उसकी
नैतिक और
सांस्कृतिक
जड़ों से जोड़े
रखने में
सहायक होती
है।
निष्कर्ष
समाजशास्त्र
की दृष्टि से, रामलीला
केवल एक
धार्मिक
आयोजन नहीं
है। यह एक
सामाजिक और
सांस्कृतिक
प्रक्रिया है, जो
समाज को एक
साथ जोड़ने, सांस्कृतिक
धरोहर को
संरक्षित
करने और सामुदायिक
भावना को
प्रोत्साहित
करने का कार्य
करती है। उत्तराखंड
की रामलीला इस
प्रक्रिया का
एक विशिष्ट
उदाहरण है। उत्तराखंड
की रामलीला
में परंपरा और
आधुनिकता का
अद्भुत
संतुलन देखने
को मिलता है।
यह आयोजन न
केवल सांस्कृतिक
धरोहर का
संरक्षण करता
है, बल्कि
समाज को
समकालीन
मुद्दों और
चुनौतियों से
अवगत कराता
है।
समाजशास्त्र
के दृष्टिकोण
से यह आयोजन
समाज की
संरचना,
सामूहिक
स्मृति,
और
सांस्कृतिक
पहचान को
समझने और
अध्ययन करने
का एक
महत्वपूर्ण
माध्यम है।
मंचन में
होने वाल फूहड़
दृश्यों को
लेकर कुछ कलाकारों
व दर्शकों ने
चिंता व्यक्त
की है कि यह
सामुदायिक
भागीदारी को
कम कर सकती
है। आधुनिक
तकनीकों और
पेशेवर
अभिनेताओं के
उपयोग से पारंपरिक
सामुदायिक
भावना
प्रभावित
होने की
संभावना है।
रामलीला यह
प्रयास करती
है कि किस
प्रकार
परंपरा और
आधुनिकता के
बीच संतुलन बनाकर
समाज अपनी
सांस्कृतिक
धरोहर को सजीव
और प्रासंगिक
बनाए रख सकती
है।
समाजशास्त्रीय
दृष्टि से यह
आयोजन समाज की
सामूहिक
पहचान,
एकता और
सांस्कृतिक
जड़ों का
प्रतीक है।
ग्रन्थ-सूची
तिवारी,रामचन्द-2024, कथा
राम कै गूढ़,विश्वविद्यालय
प्रकाशन, वाराणसी, पृ0-169
अवस्थी,इंदुजा-1979, रामलीला
की पंरम्परा
और शैलियाँ, राधाकृष्ण
प्रकाशन नई
दिल्ली, पृ0-87
बुल्के,कामिल-2015,रामकथा
की उत्पत्ति
और विकास, हिन्दी
परिषद्
प्रकाशन, पृ0-158
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