Medicinal uses, Preservation, Promotion and Critical study of Dashmoola: An important component described in Ayurveda scripture
आयुर्वेद वाङ्गमय में वर्णित महत्वपूर्ण घटक दशमूल का चिकित्सकीय उपयोग, संरक्षण एवं संवर्धन- एक विवेचनात्मक अध्ययन
Acharya Balkrishna 1 ,
Amita Singh 2, Priyanka Tyagi 2 , Dr. Rajesh Kumar Mishra 3 , Dr. Bhaskar Joshi 4, Dr. Anupam Srivastava 5
1 Patanjali Herbal Research Department,
Patanjali Research Institute, Haridwar-249405, Uttarakhand, India, and
University of Patanjali, Haridwar-249405, Uttarakhand, India
2 Scientist B at Patanjali Herbal Research Department, Patanjali Research Institute, Haridwar-249405, Uttarakhand, India
3 Assistant Professor at Patanjali Bhartiya Ayurvigyan Evam Anusandhan
Sansthan, Haridwar-249405, Uttarakhand, India, and University of Patanjali,
Haridwar-249405, Uttarakhand, India
4 Scientist D at Patanjali Herbal Research Department, Patanjali
Research Institute, Haridwar-249405, Uttarakhand, India, and University of
Patanjali, Haridwar-249405, Uttarakhand, India
5 Head of Department at Patanjali Herbal Research Department, Patanjali
Research Institute, Haridwar-249405, Uttarakhand, India
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ABSTRACT |
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English: Ayurveda is a scientific method of ancient medicine, in which single and mixed medicines are used multiple times for medicine, in which Dashmoola has its special place. Ashtavarga, Pañcamūla, Trinapanchamoola and Dashmoola are widely used as mixed medicinal components. Dashmoola is made up of two words Dash and Moola, which means "root of ten medicines", i.e., roots of ten medicinal plants are taken in equal proportion. Generally, it is considered to be a combination of the Brihit and Laghu Pañcamūla. Of these ten roots, five roots are of trees known as Bṛhat Pañcamūla and five roots are of bushes known as Laghu Pañcamūla. Bṛhat Pañcamūla includes Bilva [Aegle marmelos (L.) Corrêa], Gambhari (Gmelina arborea Roxb. ex Sm.), Agnimantha (Clerodendrum phlomidis L.f.), Patla [Stereospermum chelonoides (L.f.) DC.], Shyonak [Oroxylum indicum (L.) Kurz] while Laghu Pañcamūla includes Brihati (Solanum indicum L.), Gokharu (Tribulus terrestris L.), Kantakari (Solanum virginianum L.), Prshniparni [Uraria picta (Jacq.) Desv. Ex DC.], Shalaparni [Pleurolobus gangeticus (L.) J.St.-Hil. ex H.Ohashi & K.Ohashi]. Dashmoola is used for the treatment of various diseases, sach as arthritis, asthma, headache, prenatal problems, Parkinson's disease, muscle cramps, lower back pain, etc. In the present review article, habitat, distribution, ecological note, common and vedic nomenclature, flowering and fruiting period, conservation status and medicinal properties of each plant in Dashmoola, have been discussed in detail and Herbarium sheet with field numbers of all plants are available in the Patanjali Research Foundation Herbarium. Hindi: आयुर्वेद
प्राचीन
चिकित्सा की
एक वैज्ञानिक
विधा है, जिसमे
एकल एवं
मिश्रित
औषधियों का
चिकित्सा हेतु
बहुविध
प्रयोग किया
जाता है, जिनमें
दशमूल का
विशिष्ट
स्थान है।
मिश्रित औषध
घटक के रूप
में
अष्टवर्ग, पञ्चमूल, तृणपञ्चमूल
तथा दशमूल का
अत्याधिक
प्रयोग किया
जाता है।
दशमूल दो
शब्दों दश
तथा मूल से मिलकर
बना है, जिसका
अर्थ है ’’दस
औषधियों की
जड़’’ अर्थात्
इसमे दस
औषधीय
पादपों की
मूलों को
समान अनुपात
में लिया
जाता है।
सामान्यतः
इसे बृहत्
पंचमूल और
लघु पंचमूल
का संयोजन
माना जाता
है। इन दस जड़ों
में पाँच
वृक्षों की
जड़े, बृहत्
पंचमूल और
पाँच झाड़ियों
की जड़ें, लघु
पंचमूल के
नाम से उपयोग
की जाती हैं।
बृहत्
पंचमूल में
बिल्व [Aegle marmelos (L.) Corrêa],गम्भारी
(Gmelina arborea Roxb. ex
Sm.),
अग्निमन्थ (Clerodendrum phlomidis L.f.), पाटला [Stereospermum
chelonoides (L.f.) DC.],
तथा श्योनाक [Oroxylum
indicum (L.) Kurz] जबकि
लघु पंचमूल
में बृहती (Solanum
indicum L.),
गोखरू (Tribulus
terrestris L.),
कण्टकारी (Solanum virginianum L.),
पृश्निपर्णी
[Uraria picta (Jacq.) Desv. ex DC.]
व शालपर्णी [Pleurolobus
gangeticus (L.) J.St.-Hil. ex H.Ohashi & K. Ohashi] सम्मिलित
हैं। दशमूल
का प्रयोग
विभिन्न प्रकार
के रोगों, आमवात, तमकश्वास, शिरःशूल, प्रसवपूर्व
होने वाले विकार, कम्पवात, पेशीशूल, कटिशूल
आदि के उपचार
के लिये किया
जाता है। प्रदत्त
समीक्षात्मक
लेख में
दशमूल के
विषय में
प्रत्येक
पादप के
प्राप्ति
स्थान, पारिस्थितिकी
टिप्पणी, प्रचलित
एवं वैदिक
नामकरण, पुष्पन
एवं फलन काल, उनके
संरक्षण एवं
औषधीय गुणों
के विषय में
विस्तार से
चर्चा की गयी
है तथा सभी
पादपों की क्षेत्र
संख्या सहित
हर्बेरियम
शीट पतंजलि अनुसंधान
पादपालय में
उपलब्ध हैं। |
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Received 18 August 2023 Accepted 16 February 2024 Published 26 February 2024 Corresponding Author Amita
Singh, amita.singh@patanjali.res.in
DOI 10.29121/jahim.v4.i1.2024.34 Funding: This research
received no specific grant from any funding agency in the public, commercial,
or not-for-profit sectors. Copyright: © 2024 The
Author(s). This work is licensed under a Creative Commons
Attribution 4.0 International License. With the
license CC-BY, authors retain the copyright, allowing anyone to download,
reuse, re-print, modify, distribute, and/or copy their contribution. The work
must be properly attributed to its author. |
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Keywords: Dashmool, Conservation, Medicinal Uses, Vedic Nomenclature, दशमूल, संरक्षण, औषधीय गुण, वैदिक
नामकरण |
आयुर्वेद
भारत की
प्राचीन
पारंपरिक एवं
वैज्ञानिक
चिकित्सा
प्रणाली है, जिसका
उपयोग सम्पूर्ण
विश्व में
किया जाता है।
आयुर्वेदिक
सूत्रों में
पौधे,
जानवर,
खनिज और धातु
सभी सम्मिलित
हैं। दशमूल को
आयुर्वेद में
उपयोग किए
जाने वाले कई
पौधों के सबसे
शक्तिशाली
संयोजनों में
से एक माना
जाता है।
सर्वप्रथम
आचार्य
सुश्रुत ने इस
औषधि के चामत्कारिक
गुणों का
उल्लेख किया।
इसके बाद आचार्य
चरक ने कई
प्राचीन शास्त्रों
में दशमूल का
उल्लेख किया
लेकिन समूह
में इसकी दस
औषधियों की
स्पष्ट गणना
नहीं की।
चरकसंहिता
सूत्रस्थान
में वर्णित
शोथहर
महाकषाय में
दस औषधियों का
एक समूह दिया
गया है जिसमें
दशमूल के
अंतर्गत
निहित सभी
औषधियाँ पाई
जाती हैं Singh et al. (2015)।
आयुर्वेद के
अनुसार दशमूल
संस्कृत के दो
शब्दों से
मिलकर बना है, जिसमे
दश का अर्थ है, ’दस’
और मूल का
अर्थ है ’जड़’।
इसकी अनूठी
रचना में 10
अविश्वसनीय
जड़े होती है, जिनमे
से प्रत्येक
अपने अलग-अलग
गुणों के कारण
प्रसिद्ध है।
यह पांच बृहत
मूलों एवं
पांच लघु
मूलों का
संयोजन है।
इसमे पांच
बृहत् मूल में
बिल्व,
गम्भारी, अग्निमंथ, पाटला
एवं श्योनाक
सम्मिलित हैं, जो
वृक्षों से
प्राप्त होती
है जबकि पांच
लघु मूल में
बृहति,
गोखरू,
कंटकारी, पृश्नीपर्णी
व शालपर्णी
सम्मिलित हैं, जो
क्षुपों से
प्राप्त होती
है। दशमूल में
त्रिदोषहर
गुण होते हैं
और आंतरिक रूप
से श्वास, कास, आमपाचन, शिरःशूल
और ज्वर की
चिकित्सा में
प्रयुक्त किये
जाते है Singh et al. (2015), Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010)।
1)
भावप्रकाश
निघण्टु के
अनुसार-
·
बृहत्पञ्चमूल-
श्रीफलः
सर्वतोभद्रा
पाटला
गणिकारिका।
श्योनाकः
पञ्चभिश्रैच्तैः
पञ्चमूलं
महन्मतम्।।
पञ्चमूलं
महत् तिक्तं
कषायं
कफवातनुत्।
मधुरं
श्वासकासघ्नमुष्णं
लघ्वग्निदीपनम्।।
(भावप्रकाश
गुडूच्यादि
वर्गः 29-30)
Bṛhatpañcamūla-
Śrīphalaḥ sarvatobhadrā pāṭalā
gaṇikārikā
Śyonākaḥ pañcabhiśraictaiaḥ
pañcamūlaṃ mahanmatam
Pañcamūlaṃ mahat tiktaṃ kaṣāyaṃ
kaphavātanut
Madhuraṃ śvāsakāsaghnamuṣṇaṃ
laghvagniḍīpanam. (Bhāvaprakāśa Guḍūcyāḍi
Varga 29-30)
बृहत् मूल
के लक्षण एवं
गुण- बेल, गम्भारी, पाढल, अरनी
एवं सोनपाठा
इन पांच वृक्षों
के मूल एकत्र
करने से
’बृहत्
पञ्चमूल’ होता
है। यह तिक्त, कषाय
एवं मधुर
रसयुक्त, कफवातनाशक, श्वास
तथा कास को
दूर करने वाला, उष्णवीर्य, लघु
एवं
अग्निदीपक
होता है।
·
लघुपञ्चमूल-
शालिपर्णी
पृष्ठिपर्णी वार्त्ताकी
कण्टकारिका।
गोक्षुरः पञ्चभिश्रैच्तैः
कनिष्ठं
पञ्चमूलकम्।।
पञ्चमूलं
लघु स्वादु
बल्यं पित्तानिलापहम्।
नात्युष्णं
बृंहणं
ग्राहि
ज्वरश्वासाश्मरीप्रणुत्।।
(भावप्रकाश
गुडूच्यादि
वर्गः 47-48)
Laghupañcamūla-
Śāliparṇī pṛṣṭhiparṇī
vārttākī kaṇṭakārikā
Gokṣuraḥ pañcabhiśraictaiaḥ kaniṣṭhaṃ
pañcamūlakaṃ
Pañcamūlaṃ laghu svādu balyaṃ
pittānilāpaham
Nātyuṣṇaṃ bṛṃhaṇaṃ
grāhi jvaraśvāsāśmarīpraṇut.
(Bhāvaprakāśa Guḍūcyāḍi Varga 47-48)
लघु
पञ्चमूल के
लक्षण एवं
गुण- सरिवन, पिठवन, बड़ी
कटेरी,
भटकटैया एवं
गोखरू इन
पांचों के मूल
एकत्र करने से
लघु पञ्चमूल’
होता है। यह
लघु, स्वादु, बलकारक, वातपित्तनाशक, बृंहणं, ग्राही
एवं ज्वर, श्वास
तथा पथरी को
दूर करने वाला
होता है तथा यह
अत्यंत
उष्णवीर्य
नहीं होता है।
·
दशमूल-
उभाभ्यां
पञ्च्मूलाभ्यां
दशमूलमुदा
हृतम्।
दशमूलमं
त्रिदोषघ्नं
श्वासकासशिरोरूजः।
तन्द्राशोथ
ज्वरानाहपाश्र्वपीडाडरूचीर्हरेत्।।
(भावप्रकाश
गुडूच्यादि
वर्गः 49 )
Daśamūla –
Ubhābhyāṃ pañcmūlābhyāṃ
daśamūlamudā hṛtam
Daśamūlaṃ tridoṣaghnaṃ
śvāskāsaśirorūjaḥ
Tandrāśoth
jvarānāhapārśvapīḍāḍrūcīrharet.
(Bhāvaprakāśa Guḍūcyāḍi Varga 49)
पहले
दशमूल केवल दस
जड़ों के चूर्ण
(पाउडर) के रूप
में उपलब्ध
था। तकनीकों
एवं
व्यक्तियों की
विशिष्ट
आवश्यकताओं
के साथ दस
जड़ों के स्वास्थ्य
लाभ अब आसानी
से उपभोग
योग्य
अरिष्टम् (जलीय), क्वाथ
(काढ़ा),
वटी (गोलियां), कल्प
(पेस्ट),
तैलम (तेल) एवं
यहां तक की
घृतम् (जैम
जैसे फार्मूलेशन)
के रूप में
उपलब्ध हैं।
दशमूल के
लक्षण एवं गुण
पूर्वोक्त
दोनों
अर्थात्
बृहत् तथा लघु
पंचमूल के योग
को दशमूल कहते
हैं। दशमूल-
त्रिदोषनाशक
तथा श्वास, खांसी, शिरःशूल, तंद्रा, शोथ, ज्वर, आनाह, पेशीशूल
एवं अरूचि को
दूर करने वाला
होता है Chunekar & Pandey (2010)।
2)
चन्द्रनिघण्टु
के अनुसार-
·
दशमूल-
बृहद्ध्रस्वं
पञ्चमूलं
दश्मूलं प्रकीर्त्तितम्।
योज्यमाद्यं
पञ्चमूलं
सामान्योक्तौ
विजानता।
एतानि
पञ्चमूलानि
निर्दिष्टानि
पृथक्पृथक्।।
(चन्द्रनिघण्टु
निरूहगणः 26)
Daśamūla –
Bṛhaddhrasvaṃ pañcamūlaṃ
prakīrttitam
Yojyamādhyaṃ pañcamūlaṃ
sāmānyoktau vijānatā
Etāni pañcamūlani nirdiṣṭāni
pṛthakpṛthak. (Candranighaṇṭu Nirūhagaṇa 26)
बृहत्पञ्चमूल
एवं
लघुपञ्चमूल-
इन दोनों को मिलाकर
दशमूल कहते
हैं। जहाँ
विशेषण के
बिना सामान्यतः
पञ्चमूल के
उपयोग का
निर्देश हो वहाँ
बृहत्पञ्चमूल
लेना चाहिए।
यहाँ पञ्चमूलों
का
पृथक्-पृथक्
वर्णन किया
गया है।
3) मदनपालनिघण्टु
के अनुसार-
·
महत्पञ्चमूलनामानि-
बिल्वादिभिः
पञ्चभिरेभिरेतत्स्यात्पञ्चमूलं
महदग्निकारि।
लघूष्णं
तिक्तं रसतः
कषायं
मेदःकफश्वाससमीरहारि।।
(मदनपालनिघण्टु
अभ्यादिवर्गः
56)
Mahatpañcamūlanāmāni-
Bilvādibhiaḥ
pañcabhirebhiretatsyātpañcamūlaṃ mahadagnikāri
Laghūṣṇaṃ tiktaṃ rasataḥ
kaṣāyaṃ medaḥkaphaśvāsasamīrahāri.
(Madanapālanighaṇṭu Abhyādivarga 56)
बिल्व, अग्निमन्थ, पाटला, कंभारी
और श्योनाक-
इन पाँच
औषधद्रव्यों
के समूह को
महत्पञ्चमूल
कहते हैं। यह
अग्नि को बढ़ाता
है।
बृहत्पञ्चमूल
लघु, उष्ण
एवं कषायरस
युक्त होता
है। यह मेद, कफ, श्वास
रोग और
वातशामक होता
है।
·
लघुपञ्चमूलनामानि-
हृस्वाख्यं
पञ्चमूलं
स्यात्पञ्चभिर्गोक्षुरादिभिः।
बल्यं पित्तानिलहरं
नात्युष्णं
स्वादु
बृंहणम्।।
(मदनपालनिघण्टु
अभ्यादिवर्गः
68)
Laghupañcamūlanāmāni-
Hṛsvākhyaṃ pañcamūlaṃ syātpañcabhirgokṣurādibhiah
Balyaṃ pittānilaharaṃ nātyuṣṇaṃ
svādu bṛnhaṇam (Madanapālanighaṇṭu
Abhyādivarga 68)
गोक्षुर, शालिपर्णी, पृष्टिपर्णी, लघुकण्टकारी
एवं
श्वेतकण्टकारी-
इन पाँच औषधद्रव्यों
के समूह को
लघुपञ्चमूल
कहते हैं। यह
बलकारक,
पित्त एवं
वातनाशक, किञ्चित्
उष्ण,
स्वादु एवं
बृंहण होता
है।
·
दशमूलनामानि-
एताभ्यां
पञ्चमूलाभ्यां
दशमूलमुदाहृतम्।
दोषत्रयश्वासकासशिरःपीडापतन्त्रकान्।
तन्द्रास्वेदज्वरानाहारुचिपाश्र्वरुजो
जयेत्।।
(मदनपालनिघण्टु
अभ्यादिवर्गः
69)
Daśamūlanāmāni-
Etābhyāṃ pañcamūlābhyāṃ
daśamūlamudāhṛtam
Doṣatrayaśvāsakāsaśiraḥpīḍāpatantrakaan
Tandrāsvedajvarānāhārucipārśvarujo
jayet.
(Madanapālanighaṇṭu Abhyādivarga
69)
इन दोनों
पञ्चमूलों का
समूह दशमूल
कहलाता है। यह
दशमूल
त्रिदोष, श्वासरोग, कास, शिरःशूल, अपतंत्रक, तंद्रा, स्वेद, ज्वर, आनाह, अरुचि
एवं
पाश्र्वशूल
का शमन करता
है।
आयुर्वेद
में, औषधीय
पौधों से
वांछित
प्रभाव
प्राप्त करने के
लिए एकल या
मिश्रण को
कच्चे अथवा
संशोधित रूप
में उपयोग
किया जाता है।
चिकित्सीय
प्रभावकारिता
को बढ़ाने के
लिए इन
औषधियों को
विभिन्न
प्रकार से प्रयोग
में लाया जाता
है, जैसे
कि अंजन
(आंखों में
आंतरिक उपयोग
के लिए प्रयोग
की जाने वाली
औषधि),
आसव और
अरिष्ट
(स्व-किण्वित
अल्कोहल), अवलेह
(चटनी),
चूर्ण (पाउडर
रूप),
धूप (धूआं, धूमन), घृत
(घी के साथ
मिश्रण), गुग्गुल
(गोंद का सार), हिम
(ठंडा आसव), कल्प
(औषधियों का
मिश्रण), क्वाथ या
कषाय (काढ़ा), लेप
(बाहरी
अनुप्रयोग के
लिये),
मिश्र (विविध
मिश्रण), नस्य (नाक
में डाली जाने
वाली बूंदें), फांट
(गर्म काढ़ा), स्वरस
(रस), तेल
(ऑयल),
वटी या
गुटिका (गोली)
आदि।
आयुर्वेद में
वर्णित दशमूल
के विभिन्न
रूपों में
दशमूलारिष्ट, दशमूल
चूर्ण,
दशमूल घृत, दशमूल
कल्प,
दशमूल क्वाथ
और दशमूल तेल
मुख्य हैं। इन
औषध योगों को
नियमित रूप से
शोथ संबंधी
विकारों के उपचार
के लिए उपयोग
में लाया जाता
है। दशमूल का
यह प्रयोग हाल
ही में
प्रकाशित
नृवंशविज्ञान
संबंधी
साहित्य के
साथ-साथ
मेलघाट की
कोरकू
जनजातियों और
सतपुड़ा
पहाड़ियों की
पावरा जनजातियों
के पारंपरिक
ज्ञान से मेल
खाता है। ये
जनजाति
नियमित रूप से
विभिन्न शोथ
संबंधी विकारों
के उपचार के
लिए
बृहत्पंचमूल
चूर्ण और
लघुपंचमूल
चूर्ण का
उपयोग करती
हैं Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010), Nagarkar et al. (2013)।
2. सामग्री और विधि
दशमूल का
सम्पूर्ण
विवेचन करने
के लिये चरक संहिता, सुश्रुतसंहिता, शालीग्राम
निघण्टुभूषणम, सोढ़्ल
निघण्टु, प्रिय
निघण्टु, मदनपाल
निघण्टु, धनवंतरी
निघण्टु, कैयदेव
निघण्टु, अष्टांग
हृदयम,
भवप्रकाश
निघण्टु, राजनिघण्टु, चंद्रनिघण्टु, लघु-निघण्टु
आदि प्राचीन
ग्रंथों साथ
ही साथ अन्य
नवप्रकाशित
शोध पत्रों का
अध्ययन किया गया
है।
महत्वपूर्ण
औषधीय पौधों
का विस्तृत वानस्पतिक
विवरण,
प्राप्ति
स्थान,
पारिस्थितिकी
टिप्पणी एवं
औषधीय गुणों
और प्रयोगों
के विषय में
इस शोधपत्र
में उल्लेख किया
गया है। सभी
पादपों की
हर्बेरियम
संख्या (Accession number), पारिस्थितिकी
टिप्पणी (Ecological
notes), पुष्पन
एवं फलन काल (Flowering and Fruiting time) सहित
हर्बेरियम
शीट (Herbarium sheet) पतंजलि
अनुसंधान
संस्थान के
हर्बेरियम
विभाग से
उपलब्ध हुई
हैं।
दशमूल के
दस
महत्वपूर्ण
औषधीय पादपों
का विवरण-
·
बृहत्
पंचमूलः
1) बेल
वानस्पतिक
नामः Aegle marmelos (L.) Corrêa
कुलः Rutaceae
सामान्य
नामः बिल्व Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010)
वैदिक
नामः Bilvakaḥ triparṇaḥ
Balkrishna (2022), Balkrishna (n.d.)
वानस्पतिक
विवरणः वृक्ष
मध्यम आकार से
16 मी. तक ऊँचा
होता है।
शाखाओं पर
सीधे,
मोटे,
तीक्ष्ण 2.0
से.मी. तक
लम्बे काँटे
होते हैं। त्रिपत्र-
कसौंदी के
पत्रों के
आकार वाले एवं
अंडाकार-भालाकार
होते हैं।
पुष्प-
हरे-पीले रंग
के होते हैं, जिनमें
मधु के समान
मन्द गन्ध
निकलती है।
फल- गोलाकार 7.0-25
से.मी. व्यास
के, हरिताभ
एवं पकने पर
पीताभ-भूरे
रंग में बदलने
वाले एवं
चिकने होते
हैं।
बहिर्भिति
एपिकार्प से
बाह्य कठोर
काष्ठमय
छिलका बनता है
जो करीब 3 मि.मी.
मोटा,
रक्ताभ रंग
का एवं अन्दर
से रेशेदार
तथा गूदेदार
होता है। बीज 10-15
समूहों में, बिनौले
के सदृश सफेद
रोमों से
युक्त एवं
चिकने तथा
रंगहीन गोंद
से लिपटे रहते
है Chunekar & Pandey (2010)।
पारिस्थितिकी
टिप्पणीः
यह पादप वनों
में, शुष्क
पहाड़ियों एवं
सड़कों के
किनारों पर
पाया जाता है।
प्राप्ति
स्थानः यह
बांग्लादेश, भारत, नेपाल, पाकिस्तान
एवं पश्चिमी
हिमालय का मूल
पादप है।
पुष्पन
एवं फलन कालः
मार्च-अगस्त
गुण एवं
प्रयोगः
कच्चा बेल कटु
(3), तिक्त
(3), कषाय
(3), स्निग्ध
(3), उष्ण
(3), दीपन
(3), ग्राही
(3), वात-कफनाशक
(3) एवं आंत्र को
बल देने (3) वाला
होता है। बेल
का उपयोग
अतिसार,
प्रवाहिका, संग्रहणी, मधुमेह, कर्णरोग, वातरोग, वमन, कामला, अर्श, शोथ
एवं ज्वर में
किया जाता है।
बेल की जड़ शामक
होने के कारण
हृदयविकार, उदासीनता, निद्रानाश
तथा उन्माद
में दी जाती
है। विषमज्वर
में इसके जड़
की छाल का
क्वाथ पिलाया
जाता है Chunekar & Pandey (2010)।
मात्राः
चूर्ण 2-8 ग्राम; प्रवाहीसत्व
2-8 मिली;
क्वाथ 10-50 मिली Chunekar & Pandey (2010)
2) अग्निमन्थः
वानस्पतिक
नामः Clerodendrum phlomidis L.f.
कुलः
स्ंउपंबमंम
सामान्य
नामः
गनिपर्णिका Chunekar & Pandey (2010)
वैदिक
नामः Māyāpuṣpakam agnimantham Balkrishna (2022), Balkrishna (n.d.)
वानस्पतिक
विवरणः
वृक्ष मध्यम
आकार का होता
है। शाखाएं
प्रसरणशील
एवं टहनियाँ
हल्के खाकी
रंग की तथा
मृदुरोमश
होती हैं।
पत्र- विपरीत, चैड़े
लट्वाकार
अथवा कुछ-कुछ
तिर्यगायताकार, अखण्ड
या दूर-दूर
गोलदन्तुर, सवृन्त
तथा चिकने
होते हैं।
पुष्प- श्वेत
वर्ण के तथा
सुगंधित होते
हैं। फल-
अष्ठिल,
करौंदे के
समान बड़े, शीर्ष
पर दबे हुए
परन्तु अन्त
में शुष्क होकर
चार खण्डों
में फट जाने
वाले होते हैं
(3)।
पारिस्थितिकी
टिप्पणीः
यह मैदानी
क्षेत्रों
एवं शुष्क
पर्णपाती वनों
में पाया जाता
है।
प्राप्ति
स्थानः यह
बांग्लादेश, भारत, जावा, पाकिस्तान, श्रीलंका
एवं पश्चिमी
हिमालय का मूल
पादप है।
पुष्पन
एवं फलन कालः अगस्त-फरवरी
गुण एवं
प्रयोगः
अग्निमन्थ
कटु (3,
8), तिक्त
(3, 8, 9, 10, 11), कषाय
(3, 8, 10), मधुर
(3, 8), उष्ण
(3, 8, 10, 12), दीपन
(3), लघु
(11), गुरू
(9), सारक
(3), बल्य
(3), रसायन
(3), शोथहर
(3, 10, 12, 13, 14), एवं
वात-कफहर (3, 10, 12), वातशमक
(3, 9), कफशमक
(8, 11)
होता है। इसका
उपयोग वायु, कफ
तथा शोथजनित
रोगों में
किया जाता है।
आमवात तथा
आंतरिक ज्वर
में इस पादप
की जड़ सोंठ
एवं मिरिच के
साथ दी जाती
है। इसके मूल
का क्वाथ सोजाक, आमवात
तथा नाड़ीशूल
में देते हैं।
पत्र तथा काण्ड
का उपयोग
मधुमेह में
किया जाता है Chunekar & Pandey (2010)।
जड़ का उपयोग
शोथ Nripa (1998), Pandeya & Chaturvedi (2009), Sharma (1973) हृदयविकार
Sharma (2004), Nripa (1998) खांसी, दमा, कुष्ठ
रोग, त्वचा
विकार,
अपच,
पेट फूलना, कब्ज
आदि रोगों में
किया जाता है Chunekar & Pandey (2010)।
मात्राः
चूर्ण 1-2 ग्राम Chunekar & Pandey (2010)।
विशेषः
भवप्रकाश
निघण्टु एवं
कुछ अन्य
निघण्टुओं ने
अग्निमंथ के
लघु एवं बृहद्
दो भेद दिये
हैं। दोनों के
गुणों में
विशेष अंतर
नहीं है किंतु
लघु अग्निमंथ
को लेप,
उपनाह एवं
शोफ में विशेष
उपयोगी लिखा
गया है। आधुनिक
ग्रन्थकारों
ने Premna integrifolia L. Syn. Premna serratifolia L. Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010)
(बृहद्
अग्निमंथ) तथा
Clerodendrum phlomidis L.f. Chunekar & Pandey (2010)
(लघु
अग्निमंथ) का
वर्णन किया है, जो
दोनों एक ही
वर्ग के हैं
तथा इनके
गुणों में
समानता होने
के कारण इन्हे
एक-दूसरे के
स्थान पर
प्रयोग किया
जा सकता है Chunekar & Pandey (2010)।
3) गम्भारी
वानस्पतिक
नामः Gmelina arborea Roxb. ex Sm.
कुलः Lamiaceae
सामान्य
नामः कासमर Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010)
वैदिक
नामः Gambhārikā śrīparṇī Balkrishna (2022), Balkrishna (n.d.)
वानस्पतिक
विवरणः
वृक्ष मध्यम
आकार से 20 मी. तक
ऊँचा होता है।
छाल सफेद रंग
की एवं ताजी
छाल सफेदी
लिये भूरे रंग
की होती है।
छाल पर काले
चिह्न अथवा
छोटे-छोटे गोल
दाने होते
हैं। शाखाएँ
श्वेताभ एवं
रोमश होती
हैं। पत्र-
लट्वाकार, चैड़े, प्रायः
नुकीले,
5-15 से.मी. लम्बे
एवं सवृन्ती
होते हैं। फल-
बहेड़े के समान
परन्तु कुछ
लम्बाई लिये
अष्ठिल,
अभ्यण्डाकार, लगभग
25 मि.मी. व्यास
वाले और 1-2 कोश
तथा बीज वाले
होते हैं Chunekar & Pandey (2010)।
पारिस्थितिकी
टिप्पणीः
यह सामान्यतः
वनों एवं
सड़कों के
किनारों पर पाया
जाता है।
प्राप्ति
स्थानः यह
बांग्लादेश, कम्बोडिया, चीन, भारत, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका, थाईलैंड
तथा वियतनाम
का मूल पादप
है।
पुष्पन
एवं फलन कालः
फरवरी-अगस्त
गुण एवं
प्रयोगः यह
मधुर (3),
तिक्त (3), कषाय (3), उष्ण
(3), गुरू
(3), त्रिदोषशामक
(17) होता है।
इसके कोमल
पत्र शीतल, फल
तृषाहर,
दाहशामक, रक्तपित्तघ्न, मूल
कटु, दीपन, बल्य, वातानुलोमक, पुष्प
बल्य,
वृष्य एवं रक्तपित्तनाशक
बीजतैल कफ एवं
पित्त का शमन
करने वाला
होता है।
गम्भारी का फल
हृदय विकारों
को नियंत्रित
करने और हृदय
की कार्यप्रणाली
को सुचारू रूप
से चलाने में
सहायक है।
इसके मूल का
क्वाथ ज्वर, अपचन
तथा शोथ में
दिया जाता है।
रक्तपित्त
में मधु के
साथ इसके फल
की मज्जा का
प्रयोग किया
जाता है Chunekar & Pandey (2010)।
मात्राः मूलचूर्ण
3-6 ग्राम;
फल 1-3 ग्राम Chunekar & Pandey (2010)।
4) श्योनाक
वानस्पतिक
नामः Oroxylum indicum (L.) Kurz
कुलः Bignoniaceae
सामान्य
नामः सोनपाठा Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010)
वैदिक
नामः Śyonākaḥ asthivṛntaḥ Balkrishna (n.d.)
वानस्पतिक
विवरणः
वृक्ष मध्यम
आकार का तथा
कम शाखाओं से
युक्त होता
हैं। इसकी छाल
6 मि.मी. तक मोटी, कार्कयुक्त
तथा बादामी
सफेद रंग की
चिकनी,
हल्की तथा
कोमल होती है।
पत्र- 60-120 से.मी.
तक लम्बे, द्विपक्षवत्
सदल तथा
शाखग्रों पर
प्रायः समूहबद्ध
होकर पाये
जाते हैं।
पर्णक- 5.5-12.5 से.मी.
लम्बे,
3-10 से.मी. चैड़े, लट्वाकार
या अंडाकार, लम्बाग्र
तथा अखण्ड
होते हैं।
पुष्प- बहुत
बड़े, मांसल
और
पीले-जामुनी
रंग के तथा
अग्रज मंजरियों
में
सवृन्तकाण्डज
क्रम से निकले
रहते हैं।
इनकी गन्ध
अच्छी नहीं
होती। फलियाँ-
चैड़ी,
चिपटी,
तलवार के
समान टेढ़ी एवं
कठोर होती
हैं। बीज-
सफेद,
चपटे,
गोल,
5-7.5 से.मी. व्यास
वाले तथा आधार
के अतिरिक्त
चारों ओर से
पंखयुक्त
होते हैं Chunekar & Pandey (2010)।
पारिस्थितिकी
टिप्पणीः
यह कम ऊँचाई
वाले खुले
वनों,
ढलानों एवं
सड़कों के
किनारों पर
पाया जाता है।
प्राप्ति
स्थानः यह
दक्षिणी चीन
से
उष्णकटिबंधीय
एशिया (बांग्लादेश, कम्बोडिया, चीन, जावा, लाओस, मलाया, म्यांमार, भारत, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका, थाईलैंड, वियतनाम
तथा पूर्वी
एवं पश्चिमी
हिमालय) का मूल
पादप है।
पुष्पन
एवं फलन कालः
जून-मार्च
गुण एवं
प्रयोगः
श्योनाक
तिक्त (3,
8, 17, 18), कषाय
(3, 8, 12, 18), कटु
(3, 12, 18), शीत
(3, 8, 17, 18), उष्ण
(3), कफपित्तशामक
(3, 8, 17), वातपित्तशामक
(8), वात-कफहर
(3)
त्रिदोषशामक
(8, 18), शोथहर
(3, 13), विषघ्न
(3), शीतप्रशमन
(3) होता है।
इसकी मूल की
छाल उत्तम
स्वेदजनन, अल्प
वेदनास्थापन, दीपन, बस्तिरोगहर, स्तम्भन, व्रणरोपन
एवं शोथहर है।
इसके बीज रेचक
होते है। इसकी
छाल का प्रयोग
आमवात,
अतिसार, कास, अरूचि एवं
ज्वर,
मिर्गी में
किया जाता है।
इसकी छाल से
सिद्ध तैल का
उपयोग
कर्णस्राव
एवं कर्णशूल
में किया जाता
है (3)।
मात्राः चूर्ण
1-2 ग्राम
त्रिकटु के
साथ Chunekar & Pandey (2010)।
5) पाटला
वानस्पतिक
नामः Stereospermum chelonoides (L.f.) DC.
कुलः Bignoniaceae
सामान्य
नामः पाढ़ल, पोडल
Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010)
वैदिक
नामः Tūryapuṣpakam pāṭalam Balkrishna (n.d.)
वानस्पतिक
विवरणः
वृक्ष 18 मी. तक
ऊँचा एवं
सुंदर होता
है। काण्ड- सीधा, बहुत
ऊँचा एवं मोटा
होता है तथा
उस पर अनेक शाखा-प्रशाखाएँ
होती हैं।
छाल- भूरे रंग
की, मोटी
तथा खुरदुरी
होती है। इसके
नवीन भाग
चिपचिपे, रोमश एवं
ग्रंथिमय
होते है।
पत्र- 30-45 से.मी.
लम्बे, अयुग्म
पक्षाकार
होते हैं।
पत्रक- संख्या
में 7-11,
चिकने,
अंडाकार तथा
प्रायः
मृदुरोमश
होते हैं। पुष्प-
तूर्याकृति, पीले
तथा गुलाबी
रंग के,
सुगन्धित
एवं रुचिकर
होते हैं।
फलियाँ- 30-90 से.मी.
लम्बी,
पतली,
घेरे में गोल
न होकर सपक्ष
या चार उभरी
हुर्इ रेखाओं
से युक्त होती
हैं। बीज-
सपक्ष तथा 3-3 से.मी.
चैड़े होते हैं
Chunekar & Pandey (2010)।
पारिस्थितिकी
टिप्पणीः
यह नम
पर्णपाती
वनों में पाया
जाता है।
प्राप्ति
स्थानः यह
बांग्लादेश, कम्बोडिया, पूर्वी
हिमालय,
भारत,
लाओस,
म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका
एवं पश्चिमी
हिमालय का मूल
पादप है।
पुष्पन
एवं फलन कालः
सितम्बर-जनवरी
गुण एवं
प्रयोगः यह
कषाय (3,
8, 12, 18, 20), मधुर
(12), तिक्त
(3, 17, 18, 20), अनुष्ण
(3, 18), उष्ण
(12, 17, 20), गुरु
(17), कफवातहर
(14 20), पिŸाकफहर
(20), त्रिदोषशामक
(3, 9, 18), पाचनतंत्र
क्रिया
सुचारू करने
वाला (3,
21), ज्वरनाशक
(11), मधुमेहनाशक
(11), शोथहर
(3, 12, 17, 18)
होता है। इसके
पुष्प वाजीकर, पौष्टिक
एवं शीतल होते
हैं। इसकी छाल
कफघ्न,
वातहर,
अधोभाग
दोषहर,
त्रिदोषघ्न, विषघ्न
एवं शोथहर
होती है।
मस्तिष्क तथा
वातनाडी पर
इसकी अवसादक
क्रिया होती
है। इसके मूल
का फांट ज्वर
में रोगी को
शांतता देने
के लिये देते
हैं। इसके
पुष्पों का रस
पाचनतंत्र क्रिया
सुचारू करने
के लिये दिया
जाता है Chunekar & Pandey (2010)।
मात्राः
चूर्ण 1-3 ग्राम Chunekar & Pandey (2010)।
विशेषः
विभिन्न
ग्रंथकार
पाटला के
भिन्न-भिन्न
भेद लिखते हैं, जैसे
कि
भावप्रकाशकार
चुनेकर,
(2013) पाटला के दो
भेदः पाटला (Stereospermum
suaveolens (Roxb.) DC.) एवं सित
पाटला (S. chelonoides (L.f.) DC.)
एवं
भाग्यश्री
तथा अन्य, (2013) S.
colais Mabb. को जबकि
तारू तथा अन्य
(2022) S. suaveolens (Roxb.) DC. को पाटला
लिखते है।
किंतु
अधिकांश
ग्रंथों के
अनुसार Stereospermum chelonoides (L.f.)
DC. को ही
पाटला माना
गया है।
आधुनिक
नामकरण पद्धति
में होने वाले
बदलाव के कारण
आज के समय में पाटला
तथा सितपाटला
को एक-दूसरे
का पर्याय माना
गया है। अतः S.
chelonoides (L.f.) DC. ही
स्वीकार्य
नाम (Accepted name) है। Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010), Nagarkar et al. (2013)
·
लघु
पंचमूलः
6) बृहती
वानस्पतिक
नामः Solanum indicum L.
कुलः Solanaceae
सामान्य
नामः बड़ी
कटेरी,
वनभंटा Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010)
वैदिक
नामः Yukpañcakam nāraṅgam Balkrishna (n.d.)
वानस्पतिक
विवरण: क्षुप 1-2 मी.
तक ऊँचा, ठीक बैंगन
के क्षुप के
समान होता है।
शाखाएँ श्वेत
रोमश और
किंचित् टेढ़े
तथा मृदु
काँटों से भरी
रहती हैं।
पत्र- 7.5-15 से.मी.
तक लम्बे तथा 2.5-10
से.मी. तक चैड़े, कटे-फटे
किनारों वाले
या लहरदार, बैंगन
के पत्तो के
आकार के
लट्वाकार या
आयताकार होते
हैं। अधरतल पर
रोमश होने के
कारण ये मैले
सफेद रंग के और
ऊपरी तल पर
ताराकार
रोमों के कारण
कुछ-कुछ खुरदुरे
होते हैं।
नीचे के तल पर
मध्यपर्शुक पर
अथवा शिराओं
पर मृदु
कंटकों से
युक्त होते हैं।
पुष्प- बैंगनी
वर्ण के या
कभी-कभी
श्वेताभ एवं
पाँच दल वाले
होते हैं। फल-
गोल, कच्ची
अवस्था में
हरे, पकने
पर पीले एवं
प्रायः चिकने
होते हैं Chunekar & Pandey (2010)।
पारिस्थितिकी
टिप्पणीः
यह खेती योग्य
भूमि,
ऊसर भूमि एवं
सड़कों के
किनारों पर
बहुतायत पाया
जाता है।
प्राप्ति
स्थानः यह
बांग्लादेश, कम्बोडिया, पूर्वी
हिमालय,
भारत,
लाओस,
म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका, फिलीपीन्स, साउदी
अरब, ताइवान, यमन
एवं पश्चिमी
हिमालय का मूल
रूप से पाया
जाता है।
पुष्पन
एवं फलन कालः
सितम्बर-अक्टूबर
गुण एवं
प्रयोगः यह
तिक्त (3,
8, 18), कटु
(3, 8, 18), उष्ण
(3, 8, 9, 12, 18), दीपन
(3), पाचन
(3), ग्राही
(3), वातघ्न
(3), कफघ्न
(3), कण्ठय:
(3), हिक्कानिग्रहण
(3), शोथहर
(3, 13), तथा
अंगमर्द
प्रशमन (3), कफवातहर (3, 8, 12, 17, 18), शूलहर
(3, 8, 12, 17, 22)
है। इस पादप
का मूल कफ
रोगों में
दिया जाता है
(3)। इससे ज्वर, श्वासावरोध
कम होता है।
इसके प्रयोग
से उदरगत् वात
कम होने से
शूल एवं मरोड़
दूर होती है।
त्वक् रोगों
में इसके
पत्रों का लेप
किया जाता है।
वमन रोकने के
लिये पत्रों
का स्वरस
आद्र्रक के
साथ पिलाते
हैं। इसके फल
अग्निदीपक
माने जाते हैं
तथा शिरःशूल
में इसका लेप
लाभदायक माना
जाता है Chunekar & Pandey (2010)।
मात्राः
चूर्ण 1-2 ग्राम Chunekar & Pandey (2010)।
7) शालपर्णी
वानस्पतिक
नामः Pleurolobus gangeticus (L.) J.St.-Hil. ex H.Ohashi &
K.Ohashi
कुलः Fabaceae
सामान्य
नामः सरिवन, सालवण
Chunekar & Pandey (2010)
वैदिक
नामः Pārśvasandhikaḥ dīrghapatraḥ Balkrishna (n.d.)
वानस्पतिक
विवरण: पादप
झुकी और फैली
हुई शाखाओं से
युक्त होते
हैं। काण्ड-
किंचित्
कोणयुक्त
होते हैं।
पत्र-
भिन्न-भिन्न
चैड़ाई के
भालाकार-आयताकार
या कम चैड़े और
लट्वाकार तथा
क्रमशः तीक्ष्णाग्र
होते हैं।
पुष्प-
श्वेताभ गुलाबी
या जामुनी रंग
के, विरल, पतली
तथा मंजरियों
में लगते हैं।
फली- टेढ़ी और
टेढ़े सूक्ष्म
रोमों से
युक्त होने के
कारण कपड़ों
में चिपक जाने
वाली होती है।
इसके पत्रों का
आकार शालपर्ण
सदृश होने के
कारण इसे
शालपर्णी
माना जाता है ।
Chunekar & Pandey (2010)
पारिस्थितिकी
टिप्पणीः
यह शुष्क एवं
पहाड़ी ढलानों
में पाया जाता
है।
प्राप्ति
स्थानः यह
उष्णकटिबंधीय
अफ्रिका, एशिया एवं
उत्तरी ऑस्ट्रेलिया
का मूल निवासी
है।
पुष्पन
एवं फलन कालः
फरवरी-दिसम्बर
गुण एवं
प्रयोगः यह
तिक्त (3),
मधुर (3),
उष्ण (12),
गुरु (12),
ज्वरघ्न (3, 12, 23), शोथघ्न
(3, 23), मूत्रजनन
(3), बल्य
(3), रसायन
(3), व्यस्थापन
(3), बृंहण
(3), सर्वदोषहर
(12 13), अंगमर्द
प्रमशन (3) तथा
विषघ्न (3) है।
इससे मूत्रदाह
कम होता है।
इसका प्रयोग
ज्वर,
वातरोग, अतिसार, वमन, शोथ, प्रमेह, अर्श, कृमि, राजयक्ष्मा
एवं क्षत कास
में किया जाता
है। श्वासनलिकाशोथ, फुफ्फुसशोथ
तथा
सूतिकाज्वर
में इससे
विशेष लाभ
होता है। इसके
पंचांग के
क्वाथ में
कालीमिर्च
मिलाकर
रक्तविकार
में प्रयोग
करते है। सांप
का काटना और
बिच्छू का डंक
इत्यादि में भी
इसका उपयोग
किया जाता है
(3)।
मात्राः
चूर्ण 5-10 ग्राम Chunekar & Pandey (2010)
विशेषः आधुनिक
नामकरण
पद्धति के Desmodium
gangeticum (L.) DC. तथा Pleurolobus gangeticus (L.)
J.St.-Hil. ex H.Ohashi & K.Ohashi
एक-दूसरे के
पर्याय है।
शालपर्णी एवं
पृश्निपर्णी
के विषय में
भी वैद्यों
में मतभेद है।
कहीं- कहीं के
वैद्य
शालपर्णी को
पृश्निपर्णी एवं
पृश्निपर्णी
को शालपर्णी
मानते है। पृश्निपर्णी
के पर्याय में
क्रोष्टुविन्ना
शब्द आया है, जिसे
न्तंतपं जाति
की पुच्छाकार
मंजरी वाले क्षुपों
के लिये ही
उपयुक्त माना
गया है। अतः Uraria
picta (Jacq.) Desv. ex DC. को ही
पृश्निपर्णी
मानना उचित
है। कुछ लोग
शालिपर्णी से
शालिधान्य के
क्षुप जैसे
पत्र वाले
क्षुप मानते
हैं । Chunekar & Pandey (2010)
8) कंटकारी
वानस्पतिक
नामः Solanum virginianum L.
कुलः Solanaceae
सामान्य
नामः कंटकारी, भटकटैया
Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010)
वैदिक
नामः Yukpañcakam pītaprakaṇṭam Balkrishna (n.d.)
वानस्पतिक
विवरणः
क्षुप-
बहुवर्षायु
तथा अत्यन्त
काँटेदार होता
है।
काण्ड-टेढ़े-मेढ़े
एवं अनेक
शाखाओं से युक्त
होते हैं।
काँटे- सीधे, चिकने, चमकीले
एवं 15 मि.मी. तक
लम्बे होते
हैं। पत्र- 5-8 से.मी.
लम्बे,
2.5-7.5 से.मी. चैड़े, लट्वाकार
आयताकार या
अंडाकार, गहरे कटे
हुए या
पक्षवत्
खण्डित होते
हैं। पुष्प-
गहरे नीले रंग
के होते हैं।
फल- गोल,
चिकने और
पीले या
कभी-कभी सफेद
तथा हरी
धारियों से
युक्त होते
हैं।
बीज-चिकने एवं
छोटे होते हैं
Chunekar & Pandey (2010)।
पारिस्थितिकी
टिप्पणीः
यह खुले
क्षेत्रों
एवं सड़क के
किनारों पर
पाया जाता है।
प्राप्ति
स्थानः यह
अफगानिस्तान, ईरान, जापान, मलाया, नेपाल, पाकिस्तान, भारत, कम्बोडिया, उत्तरी
अफ्रीका, दक्षिण
एवं दक्षिण
पूर्वी एशिया, ऑस्ट्रेलिया
एवं पोलिनेशिया
का मूल पादप
है।
पुष्पन
एवं फलन कालः नवम्बर-मार्च
गुण एवं
प्रयोगः यह
कटु (3,
8, 10, 17), तिक्त
(3, 8, 10, 17), उष्ण
(3, 8, 10, 17, 21), लघु
(3, 8, 24), रूक्ष
(3, 8, 24), होता
है। इसका
उपयोग
कासनाशक (3, 25), कृमिनाशक
(3), शोथरोधी
(3, 13), वातनाशक
(3, 25), क्षुधावर्धक
(3, 8, 11), जठरनाशक
(3), ज्वरनाशक
(3, 8, 10, 25), कफनाशक
(3, 8, 10, 21), रेचक
(3, 8), उत्तेजक
(3), मूत्रवर्धक
(3), वमनरोधी
(3), हृद्रोग
(3, 8, 11), आध्मान
(3), विबंध
(3) तथा अश्मरी (3)
में किया जाता
है। यह उत्तम
मूत्रल (3), कफनिसारक
(3) एवं ज्वरहर (3, 8, 10, 25)
है। इसके बीज
वेदनास्थापक
है। गुडुच एवं
इसकी जड़ का
क्वाथ ज्वर
एवं कास में
बल्य रूप में दिया
जाता है। इससे
श्वासनलिका
की शुष्कता कम
होकर कफ ढीला
होने लगता है, इसलिये
कण्ठशोथ, स्वरयंत्रशोथ
एवं
श्वासनलिकाशोथ
इनकी प्रथमावस्था
में इससे
अच्छा लाभ
होता है। कास, श्वास
तथा स्वरभेद
में इससे
सिद्ध घृत का
उपयोग लिखा
है। इसके मूल
का स्वरस मद्य
में मिलाकर पिलाने
से वमन बंद हो
जाती है। इसके
मूल का क्वाथ
मूत्रकृच्छ्र, बस्तिगत
अश्मरी एवं
जलोदर में
देते है। गले
की सूजन में
फलों का स्वरस, सोजाक
में पंचांग का
क्वाथ पिलाते
हैं Chunekar & Pandey (2010)।
मात्राः
पत्रस्वरस 2-2.5
मिली,
मूलक्वाथ 20-40
मिली,
मूलचूर्ण 1-2
ग्राम Chunekar & Pandey (2010)
विशेषः
प्राचीन
ग्रंथों मे Solanum surattense Burm. f. को
एवं कुछ
शोधपत्रों
में S. xanthocarpum Schrad. को
कंटकारी का
भेद माना गया
है परंतु
आधुनिक नामकरण
पद्धति के
अनुसार ये
दोनों Solanum virginianum L.
के पर्याय है ।
Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010), Nagarkar et al. (2013)
9) गोक्षुर
वानस्पतिक
नामः
ज्तपइनसने
जमततमेजतपे
स्ण्
कुल: Zygophyllaceae
सामान्य
नामः गोखरू, हाथीचिकार
Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010)
वैदिक
नामः Gokṣurakaḥ trikaṇṭaḥ
Balkrishna (n.d.)
वानस्पतिक
विवरणः
इसका प्रसार 45-120
से.मी. के घेरे
में भूमि पर
फैला हुआ रहता
है। मूल- पतली, गोल
एवं हल्के
भूरे रंग की
एवं सुगंधित
होती हैं।
शाखाएँ- रोमश
तथा जमीन पर
फैली हुई रहती
हैं। पत्र-
विपरीत,
5-7.5 से.मी. लम्बे, प्रायः
असम तथा जोड़ी
में आते हैं।
पत्रक- आयताकार, 4-7
जोड़े,
0.8-1.2 से.मी. लम्बे, आधार
की तरफ कुछ
तिरछे एवं
इनका अग्र
रोमश होता है।
पुष्प- छोटे, पाँच
दलवाले,
पीले रंग के
होते हैं। फल-
छोटे,
गोल किंचित
चिपटे होते
हैं और उन पर
पाँच जोड़े बड़े
काँटे लगे
रहते हैं Chunekar & Pandey (2010)।
पारिस्थितिकी
टिप्पणीः
यह अपशिष्ट
जगहों,
शुष्क
स्थानों एवं
सड़कों के
किनारों पर
पाया जाता है।
प्राप्ति
स्थानः यह
दक्षिणी
यूरेशिया और
अफ्रीका में
गर्म समशीतोष्ण
और
उष्णकटिबंधीय
क्षेत्रों का
मूल पादप है।
पुष्पन
एवं फलन कालः
जुलाई-
दिसम्बर
गुण एवं
प्रयोगः यह
मधुर (3,
8, 9, 12, 13, 23, 24), शीतल
(3, 8, 12, 13, 24), स्नेहन
(3)
मूत्रविरेचनीय
(3), शोथहर
(3), वाताहर
(3, 8, 13, 22, 24), बल्य
(3), वृष्य
(3) एवं
वेदनास्थापन
(3) है। इसका
उपयोग वृक्कविकार
(3, 8, 12, 13, 22, 23, 24), मूत्रकृच्छ्र, सोजाक, अश्मरी, बस्तिरोग, प्रमेह, स्वप्नदोष, नपुंसकता
एवं
वीर्यक्षीणता
में किया जाता
है (3)। इसके
फलों का फांट
वृक्कविकार, अश्मरी
तथा वातरक्त
में मूत्रल
औषधि के रूप में
बहुत उपयोगी
है। बस्तिशोथ
या वृक्कशोथ
में जब मूत्र
क्षारीय, दुर्गंधयुक्त
एवं वर्णहीन
रहता है तब
इसके क्वाथ
में शिलाजीत
देते हैं।
इसके चूर्ण को
मधु के साथ
खाकर ऊपर से
बकरी का दूध
सात दिन पीने से
अश्मरी में
लाभ होता है।
गर्भाशय शोधन
हेतु भी इसका
प्रयोग किया
जाता है Chunekar & Pandey (2010)।
मात्राः 3-6
ग्राम Chunekar & Pandey (2010)
10) पृश्निपर्णी
वानस्पतिक
नामः Uraria picta (Jacq.) Desv. ex DC.
कुलः Fabaceae
सामान्य
नामः पिठवन Taru et al. (2022), Chunekar & Pandey (2010)
वैदिक
नामः Pṛśniparṇakam bhallaparṇam Balkrishna (n.d.)
वानस्पतिक
विवरणः
क्षुप अल्प
शाखाओं वाला
होता है।
पत्र- नीचे के
पत्र छोटे और
लगभग वृत्ताकार
और इनके साथ
कभी-कभी
बड़े-बड़े
आयताकार, भालाकार, बड़े
अपत्रक पर्ण
भी लगे रहते
हैं। पर्णकों
के मध्य में
पीलापन लिये
भूरे या पीले
सफेद रंग की
धारियां होती
हैं। पुष्प-
छोटे, सघन, रंभाकार
मंजरियों में
निकले रहते
हैं। फलयुक्त
होने पर ये
मंजरियाँ
पुच्छाकार हो
जाती हैं।
शिम्बी- छोटी
तथा 3-6 संधियों
वाली होती हैं।
Chunekar & Pandey (2010)
पारिस्थितिकी
टिप्पणीः
यह घास के
मैदानों और झाड़ीदार
वनों आदि में
पाया जाता है।
प्राप्ति
स्थानः यह
उष्णकटिबंधीय
अफ्रीका, उष्णकटिबंधीय
और
उपोष्णकटिबंधीय
एशिया से क्वींसलैंड
का मूल पादप
है।
पुष्पन
एवं फलन कालः
अगस्त-नवम्बर
गुण एवं
प्रयोगः यह
मधुर (3,
11, 12, 17, 18), कषाय
(11), तिक्त
(8, 11, 23), कटु
(8, 23), उष्ण
(3, 5, 10, 12, 17, 23, 24), लघु
(12, 23, 24), त्रिदोष्घ्न
(3, 10, 18, 23, 24), वातहर
(13), कफपित्तहर
(9), दीपनीय
(3), संग्राही
(3), संधानीय
(3), शोथहर
(3), अंगमर्द
(3), प्रशमन
(3) तथा
जीवाणुनाशक (3)
है। इसका
उपयोग ज्वर (3, 8, 12, 14, 17, 18, 23), कास
(8, 17, 23, 24), रक्तातिसार
(3), रक्तार्श
(3), तृषा
(3) एवं दाह (3) में
किया जाता है।
अस्थिभग्न में
मांसरस के साथ
इसकी मूल का
चूर्ण 21 दिन तक
सेवन करना
चाहिये। इसके
पंचांग का
स्वरस फुर्सा
नामक सर्प के
विष में
लाभदायक माना
जाता है (3)।
मात्राः 5-10
ग्राम (3)
तालिका
1
तालिका 1 दशमूल
के औषधीय
पादपों का
संरक्षण
स्तर IUCN. (2022) |
||
1. |
Aegle marmelos
(L.) Corrêa |
संकटग्रस्त (Near Threatened) |
2. |
Clerodendrum
phlomidis L.f. |
न्यूनतम
संकटासन्न (Least Concern) |
3. |
Gmelina arborea
Roxb. ex Sm. |
न्यूनतम
संकटासन्न (Least Concern) |
4. |
Oroxylum indicum
(L.) Kurz |
लुप्तप्राय (Endangered) |
5. |
Pleurolobus
gangeticus (L.) J.St.-Hil. ex H. Ohashi & K. Ohashi |
आंकलनरहित (Not Assessed) |
6. |
Solanum indicum
L. |
न्यूनतम
संकटासन्न (Least Concern) |
7. |
Solanum
virginianum L. |
न्यूनतम
संकटासन्न (Least Concern) |
8. |
Stereospermum
chelonoides (L.f.) DC. |
न्यूनतम
संकटासन्न (Least Concern) |
9. |
Tribulus
terrestris L. |
न्यूनतम
संकटासन्न (Least Concern) |
10. |
Uraria picta (Jacq.)
Desv. ex DC. |
न्यूनतम
संकटासन्न (Least Concern) |
तालिका 2
तालिका
2
दशमूल के
औषधीय
पादपों के
वैदिक नाम की
व्युत्पत्ति
Balkrishna (2022), Balkrishna
(n.d.) |
|||
क्रमांक |
वैदिक
नाम |
वंश नाम
की व्युत्पत्ति |
प्रजाति
नाम की व्युत्पत्ति |
1. |
Bilvakaḥ triparṇaḥ |
यह नाम
प्राचीन
संस्कृत नाम
के आधार पर
दिया गया है। |
यह नाम
तीन पर्णकों
से युक्त
पादप के आधार
पर दिया गया
है। |
2. |
Māyāpuṣpakam agnimantham |
यह नाम
पुष्पों के
भ्रमकारक
होने के
संदर्भ में
दिया गया है, क्योंकि
दलों के झड़ने
के बाद
बाह्यदल
लालवर्ण के
होकर पुष्प
का भ्रम
कराते हैं। |
यह नाम
संस्कृत नाम
पर आधारित है, जो
प्राचीन समय
में इसकी
काष्ठ के
परस्पर मन्थन
(घर्षण) से
अग्नि
उत्पन्न
करने के
संदर्भ में
है। |
3 |
Gambhārikā śrīparṇī |
यह नाम
प्राचीन
संस्कृत नाम
के आधार पर
दिया गया है, जो
पत्रों के
आकर्षक होने
के संदर्भ
में है। |
यह नाम
प्राचीन
संस्कृत नाम
के आधार पर
दिया गया है, जो इसके
शीघ्र बढ़ने
के सन्दर्भ
में हैं। |
4. |
Śyonākaḥ asthivṛntaḥ |
यह नाम
प्राचीन
संस्कृत नाम
के आधार पर
दिया गया है, जो इसके
औषधीय गुणों
के संदर्भ
में है। |
यह नाम
अस्थि सदृश
पर्णवृन्त
के आधार पर
दिया गया है। |
5. |
Pārśvasandhikaḥ dīrghapatraḥ |
यह नाम
दीर्घ
पत्रों के
आधार पर दिया गया
है। |
यह नाम
शिम्बी का एक
पाश्र्व की
ओर संधित
होने के आधार
पर दिया गया
है। |
6. |
Yukpañcakam nāraṅgam |
यह नाम दल, बाह्यदल
और पुंकेसर
आदि के
संख्या में पाँच
होने तथा आपस
में जुड़े
होने के आधार
पर दिया गया
है। |
यह नाम
नारंगी रंग
के फलों के
आधार पर दिया
गया है। |
7. |
Yukpañcakam pītaprakaṇṭam |
यह नाम दल, बाह्यदल
और पुंकेसर
आदि के
संख्या में पाँच
होने तथा आपस
में जुड़े
होने के आधार
पर दिया गया
है। |
यह नाम
पादपगत
पीतवर्णी
प्रकण्टों
के आधार पर
दिया गया है। |
8. |
Tūryapuṣpakam pāṭalam |
यह नाम
दुन्दुभि-सदृश
पुष्पों के आधार
पर दिया गया
है। |
यह नाम
पादप के
पुष्प
गुलाबी रंग
के होने के आधार
पर दिया गया
हैं। |
9. |
Gokṣurakaḥ trikaṇṭaḥ |
यह नाम
प्राचीन
संस्कृत नाम
के आधार पर
दिया गया है। |
यह नाम
तीन कंटकों
युक्त फलों
के आधार पर
दिया गया है। |
10. |
Pṛśniparṇakam bhallaparṇam |
यह नाम
प्राचीन
संस्कृत नाम
के आधार पर
दिया गया है। |
यह नाम
शीर्षस्थ
पर्णक के
भालाकार
होने के आधार
पर दिया गया
है। |
3.
परिणाम
एवं व्याख्या
दशमूल की
अत्याधिक
मांग एवं
पूर्ति को
देखते हुए इन
पादपों के
संरक्षण की ओर
विशेष ध्यान दिया
जाना चाहिये।
शोधपत्र में
किये गये अध्ययन
के अनुसार
दशमूल के दस
पादपों में से
एक प्रजाति
लुप्तप्राय (Oroxylum
indicum), एक
प्रजाति
संकटग्रस्त (Aegle
marmelos), सात
प्रजातियां
न्यूनतम
संकटासन्न (Clerodendrum phlomidis,
Gmelina arborea, Solanum indicum, Solanum virginianum, Stereospermum
chelonoides, Tribulus terrestris and Uraria picta)
तथा एक
प्रजाति अभी
तक आकलनरहित (Pleurolobus
gangeticus) है। दशमूल के
सभी पादप
सम्पूर्ण
भारत में लगभग
वर्षपर्यंत, वनों
में, घास
के मैदानों, शुष्क
पहाड़ियों एवं
सड़कों के
किनारों पर
पाये जाते
हैं। अतः इन
पादपों की
संवर्धन
तकनीकों को
विकसित करके
इन्हे सुगमता
से संरक्षित किया
जा सकता है।
दशमूल के घटक
सभी दस पादप
अनेक औषधियों
गुणों से भरपूर
हैं, जिनमे
बृहत्
पञ्चमूल
कफवातनाशक, श्वास
तथा कास को
दूर करने वाला, उष्णवीर्य, लघु
एवं
अग्निदीपक
तथा लघु
पञ्चमूल
बलकारक,
वातपित्तनाशक, बृंहणं, ग्राही
एवं ज्वर, श्वास
तथा पथरी को
दूर करने वाले
होते हैं। एक
घटक के रूप
में प्रयोग
किये जाने पर
दशमूल वात, पित्त
एवं कफ तीनों
दोषों का शमन
करने वाला
माना गया है।
4. निष्कर्ष
देश में
आयुर्वेदिक
औषधियों के
निर्माण में प्रयोग
होने वाले 93
प्रतिशत
जंगली औषधीय
पौधे
संकटग्रस्त
हैं और सरकार
उनकी रक्षा के
लिए उन्हें
उनके सामान्य
आवास से
स्थानांतरित
करने का
प्रयास कर रही
है। अत्याधिक
औषधीय गुणों
के कारण दशमूल
के मिश्रण में
प्रयोग होने
वाले पादपों
को उनके अत्याधिक
दोहन के कारण
संरक्षण
प्रदान किये जाने
की आवश्यकता
है, जिससे
एक लम्बे समय
तक इन पादपों
को उपचारार्थ
प्रयोग में
लाया जा सके।
सामान्य जनों
में इन पादपों
के प्रति
जागरूकता
पैदा करने के
लिये निम्न
स्तरों पर
विभिन्न
प्रकार के
कार्यक्रमों
का संचालन
करना इस
क्षेत्र में
महत्वपूर्ण
रहेगा। पशुओं
द्वारा
अत्याधिक
चराई,
वनों की
अत्याधिक
कटाई एवं
बुनियादी
ढाँचे आदि के
निर्माण के
कारण भी इनका हास
हो रहा है
जिनके लिये
उचित कानूनी व्यवस्था
बनाये जाने की
और कदम उठाना
चाहिये। इन
पादपों का
औषधीय महत्व
अधिक होने के
कारण इनका
औषधीय प्रयोग
सावधानीपूर्वक
तथा चिकित्सकीय
परामर्श के
अनुसार ही
करना चाहिए।
5. अभिस्वीकृति
लेखकगण
पतंजलि
अनुसंधान
संस्थान में
अनुसंधान
कार्य की
सुविधायें
प्रदान करने
के लिये परम
पूज्य स्वामी
रामदेव जी का
आभार प्रकट करते
हैं जिनकी
प्रेरणा से यह
कार्य संपन्न
किया गया।
None.
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Table 3
Properties of Bṛhat Pañcamūla and Laghu Pañcamūla Plants
According to Different Ancient Ayurvedic Treatise |
|||||||||||||||
Bṛhat Pañcamūla |
|||||||||||||||
Plants Name: |
Aegle marmelos
(L.) Corrêa |
Clerodendrum phlomidis L.f. |
Gmelina arborea Roxb. ex Sm. |
||||||||||||
Nighaṇṭu and Saṁhitā |
Rasa |
Guṇa |
Vīrya |
Vipāka |
Doṣaghnatā |
Rasa |
Guṇa |
Vīrya |
Vipāka |
Doṣaghnatā |
Rasa |
Guṇa |
Vīrya |
Vipāka |
Doṣaghnatā |
Bhāvaprakāśa Nighaṇṭu |
Tikta |
Laghu |
Ūṣṇa |
_ |
Vātakapha |
Kaṭu |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
Tikta |
Ūṣṇa |
Guru |
_ |
_ |
|
Kaṣāya |
|
|
|
Pittakapha |
Tikta Kaṣāya Madhura |
|
|
|
Vātaśāmaka Kaphaśāmaka |
Kaṣāya Madhura |
|
|
|
|
Śāligrāma
Nighaṇṭubhauṣaṇam |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaṭu Tikta Kaṣāya Madhura |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Vātaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Soḍhala Nighaṇṭu |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaṭu Tikta |
Guru |
|
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Priya Nighaṇṭu |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaṭu Tikta Kaṣāya |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Suśruta Saṁhitā |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaṭu Tikta |
Laghu |
_ |
_ |
Kaphaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Madanapāla Nighaṇṭua |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Caraka Sańhitā |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Mādhavadravyaguṇa |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Dhanvantari Nighaṇṭu |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
Kaiyadeva Nighaṇṭu |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Aṣṭāñga Hṛdayam |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Rājavallabha Nighaṇṭu |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Arkaprakāśa |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Rājanighaṇṭua |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Candranighaṇṭua |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Laghu Nighaṇṭua |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Madanapāla Nighaṇṭub |
Kaṭu Tikta Kaṣāya |
Laghu |
Ūṣṇa |
_ |
Vātaśāmaka Kaphaśāmaka Tridoṣaśāmaka |
_ |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
Madhura |
Ūṣṇa |
Guru |
_ |
Vātakārak Pittaśāmaka |
Rāja-nighaṇṭub |
Madhura |
Guru |
Ūṣṇa |
_ |
Pittaśāmaka |
Kaṭu |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphaśāmaka |
Kaṭu |
Ūṣṇa |
Guru |
_ |
Kaphaśāmaka |
|
Kaṣāya Kaṭu Tikta |
Laghu |
|
|
Kaphaśāmaka Tridoṣaśāmaka |
Tikta |
|
|
|
Vātaśāmaka |
Tikta |
|
|
|
Tridoṣaśāmaka |
Candra-nighaṇṭub |
Tikta Kaṣāya |
_ |
_ |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
Kaṣāya Tikta |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphaśāmaka Vātaśāmaka |
Kaṣāya Madhura |
_ |
_ |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
Laghu Nighaṇṭub |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Tikta |
Guru |
_ |
_ |
Vātaśāmaka |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
_ |
Vātaśāmaka Kaphaśāmaka |
|
Oroxylum indicum (L.) Kurz |
Stereospermum chelonoides (L.f.) DC. |
|||||||||||
Nighaṇṭu
and Saṁhitā |
Rasa |
Guṇa |
Vīrya |
Vipāka |
Doṣaghnatā |
Rasa |
Guṇa |
Vīrya |
Vipāka |
Doṣaghnatā |
|||
Bhāvaprakāśa
Nighaṇṭu |
Tikta |
_ |
Śīta |
Kaṭu |
Kaphapittasamaka |
Kaṣāya |
_ |
_ |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
|||
Śāligrāma
Nighaṇṭubhauṣaṇam |
Tikta |
_ |
Śīta |
_ |
Kaphapittaśāmaka |
Tikta |
_ |
_ |
_ |
_ |
|||
Soḍhala
Nighaṇṭu |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
|||
Priya Nighaṇṭu |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
|||
Suśruta Saṁhitā |
_ |
_ |
_ |
|
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
|||
Madanapāla
Nighaṇṭua |
Kaṣāya |
_ |
_ |
Kaṭu |
_ |
Kaṣāya |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
_ |
|||
Caraka
Sańhitā |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
|||
Mādhavadravyaguṇa |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
|||
Dhanvantari Nighaṇṭu |
Tikta |
_ |
Śīta |
_ |
Kaphapittasamaka |
_ |
Guru |
Ūṣṇa |
|
_ |
|||
Kaiyadeva Nighaṇṭu |
Tikta |
_ |
Śīta |
Kaṭu |
Tridoṣaśāmaka |
Kaṣāya |
_ |
_ |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
|||
Aṣṭāñga
Hṛdayam |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaṣāya |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
|||
Rājavallabha
Nighaṇṭu |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
|||
Arkaprakāśa |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
|||
Rājanighaṇṭua |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
|||
Candranighaṇṭua |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
|||
Laghu Nighaṇṭua |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
|||
Madanapāla
Nighaṇṭub |
Kaṭu Madhura |
Laghu |
Śīta |
_ |
Tridoṣaśāmaka
Kaphavātaśāmaka |
Kaṣāya |
_ |
_ |
_ |
Kaphaśāmaka Dāhaśāmaka Pittaśāmaka |
|||
Rāja-nighaṇṭub |
Kaṭu |
Laghu |
Śīta |
_ |
Tridoṣaśāmaka
Kaphaśāmaka Vātaśāmaka |
Kaṭu |
Ūṣṇa |
_ |
_ |
Kaphaśāmaka Vātaśāmaka |
|||
Candra-nighaṇṭub |
Kaṭu |
_ |
_ |
_ |
Kaphaśāmaka Vātaśāmaka |
Kaṣāya Tikta |
_ |
_ |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
|||
Laghu Nighaṇṭub |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaphaśāmaka Pittaśāmaka |
Laghu Pañcamūla |
|||||||||||||||
Plants
Name: |
Solanum indicum L. |
Tribulus terrestris L. |
Solanum virginianum L. |
||||||||||||
Nighaṇṭu
and Saṁhitā |
Rasa |
Guṇa |
Vīrya |
Vipāka |
Doṣaghnatā
|
Rasa |
Guṇa |
Vīrya |
Vipāka |
Doṣaghnatā
|
Rasa |
Guṇa |
Vīrya |
Vipāka |
Doṣaghnatā |
Bhāvaprakāśa
Nighaṇṭu |
Kaṭu |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
Madhura |
_ |
Śīta |
Madhura |
Vātaśāmaka |
Kaṭu |
Laghu |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
Śāligrāma
Nighaṇṭubhauṣaṇam |
Kaṭu |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka Vātaśāmaka |
Madhura |
_ |
Śīta |
_ |
Vātaśāmaka |
Kaṭu |
Laghu |
Ūṣṇa |
Kaṭu |
Kaphavātaśāmaka |
Soḍhala
Nighaṇṭu |
_ |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Vātaśāmaka |
Madhura |
_ |
_ |
Madhura |
Vātapittaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Priya Nighaṇṭu |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaṭu |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
Suśruta Saṁhitā |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Pittavātaśāmaka |
Madanapāla
Nighaṇṭua |
_ |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
Madhura |
_ |
Śīta |
_ |
Vātapittaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Caraka
Sańhitā |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Madhura |
Vātaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Mādhavadravyaguṇa |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Dhanvantari Nighaṇṭu |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaṭu Tikta |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
_ |
Kaiyadeva Nighaṇṭu |
Kaṭu |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Aṣṭāñga
Hṛdayam |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Rājavallabha
Nighaṇṭu |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
Arkaprakāśa |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Vātaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Rājanighaṇṭua |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Madhura |
_ |
Śīta |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Candranighaṇṭua |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Madhura |
_ |
Śīta |
_ |
Vātaśāmakas |
_ |
Laghu |
_ |
_ |
Vātaśāmaka |
Laghu Nighaṇṭua |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Vātaśāmaka |
Madanapāla
Nighaṇṭub |
_ |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
_ |
_ |
Śīta |
_ |
Vātaśāmaka |
Kaṭu |
Laghu |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphaśāmaka Pittaśāmaka |
Rāja-nighaṇṭub |
Kaṭu |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Vātaśāmaka |
Madhura |
_ |
Śīta |
_ |
_ |
Kaṭu |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Kaphavātaśāmaka |
Candra-nighaṇṭub |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaphaśāmaka |
Madhura |
_ |
Śīta |
_ |
Vātaśāmaka |
_ |
Laghu |
_ |
_ |
Kaphaśāmaka |
Laghu Nighaṇṭub |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Vātaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
Vātaśāmaka |
Plants
Name: |
Uraria picta (Jacq.) Desv. ex DC. |
Pleurolobus gangeticus (L.) J.St._Hil. ex H.Ohashi & K.Ohashi |
||||||||
Nighaṇṭu
and Saṁhitā |
Rasa |
Guṇa |
Vīrya |
Vipāka |
Doṣaghnatā
|
Rasa |
Guṇa |
Vīrya |
Vipāka |
Doṣaghnatā |
Bhāvaprakāśa
Nighaṇṭu |
Madhura |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
Tikta |
_ |
_ |
_ |
_ |
Śāligrāma
Nighaṇṭubhauṣaṇam |
Tikta |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
_ |
Tikta |
_ |
_ |
_ |
_ |
Soḍhala
Nighaṇṭu |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaphapittaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Priya Nighaṇṭu |
_ |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Suśruta Saṁhitā |
Madhura |
_ |
_ |
_ |
Vātapitta |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Madanapāla
Nighaṇṭua |
Madhura |
Laghu |
Ūṣṇa |
_ |
_ |
_ |
Guru |
Ūṣṇa |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
Caraka Sańhitā |
_ |
_ |
_ |
_ |
Vātaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
Mādhavadravyaguṇa |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Dhanvantari Nighaṇṭu |
Madhura |
Laghu |
Ūṣṇa |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Kaiyadeva Nighaṇṭu |
Madhura |
_ |
|
_ |
Tridoṣaśāmaka |
Tikta |
_ |
_ |
_ |
_ |
Aṣṭāñga
Hṛdayam |
_ |
_ |
|
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Rājavallabha
Nighaṇṭu |
_ |
_ |
|
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Arkaprakāśa |
_ |
_ |
|
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Rājanighaṇṭua |
Tikta |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Candranighaṇṭua |
Madhura |
Laghu |
Ūṣṇa |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Laghu Nighaṇṭua |
_ |
_ |
|
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
Madanapāla Nighaṇṭub |
Madhura |
Laghu |
Ūṣṇa |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
_ |
Guru |
Ūṣṇa |
_ |
Tridoṣaśāmaka |
Rāja-nighaṇṭub |
Tikta |
_ |
Ūṣṇa |
_ |
Vātaśāmaka |
Tikta |
Guru |
Ūṣṇa |
_ |
Vātaśāmaka |
Candra-nighaṇṭub |
Madhura |
_ |
_ |
_ |
Raktapittaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
Vātaśāmaka |
Laghu Nighaṇṭub |
_ |
Laghu |
_ |
_ |
Pittaśāmaka Vātaśāmaka |
_ |
_ |
_ |
_ |
_ |
बृहत्
पंचमूल
पादपों के
छायाचित्र, हर्बेरियम
संख्या सहित
हर्बेरियम
शीट एवं उनके
प्रमुख
रासायनिक घटक-
ऐगल
मार्मेलॉस [Aegle marmelos (L.) Corrêa] |
हर्बेरियम
संख्या- 5651 |
प्रमुख
रासायनिक
घटक-
मार्मेसिन Taru et al.
(2022), Chunekar & Pandey (2010), Pubchem: National Library of Medicine,
National Center for Biotechnology Information. (n.d.) |
क्लोरोडेंड्रम
फ्लोमिडिस [Clerodendrum
phlomidis L.f.] |
हर्बेरियम
स्रोत- & GBIF ¼15½ |
प्रमुख
रासायनिक
घटक-
क्लोरोडेंड्रिन
Pubchem: National Library of Medicine,
National Center for Biotechnology Information. (n.d.), Raja & Mishra (2010) |
मेलिना
आर्बोरीआ [Gmelina arborea
Roxb. ex Sm.] |
हर्बेरियम
संख्या- 4284 |
प्रमुख
रासायनिक
घटक-
मेलिनॉल Taru et al.
(2022), Pubchem: National Library of Medicine,
National Center for Biotechnology Information. (n.d.) |
ओरोजाइमल
इन्डिकम [Oroxylum indicum
(L.) Kurz] |
हर्बेरियम
संख्या- 11795 |
प्रमुख
रासायनिक
घटक-
ओरोजिंडिन Pubchem: National Library of Medicine,
National Center for Biotechnology Information. (n.d.), Nair & Joshi (1979) |
स्टेरिओस्पर्मम
कीलोनॉइड्स [Stereospermum
chelonoides (L.f.) DC.] |
हर्बेरियम
संख्या- 9779 |
प्रमुख
रासायनिक
घटक-
स्टेरोलेंसिन
Taru et al.
(2022), Pubchem: National Library of Medicine,
National Center for Biotechnology Information. (n.d.) |
लघु
पंचमूल
पादपों के
छायाचित्र, हर्बेरियम
संख्या सहित
हर्बेरियम
शीट एवं उनके
प्रमुख
रासायनिक घटक-
सोलेनम
इण्डिकम [Solanum
indicum L.] |
हर्बेरियम
संख्या- 1037 |
प्रमुख
रासायनिक
घटक-
सोलासोनिन Taru et al.
(2022), Pubchem: National Library of Medicine,
National Center for Biotechnology Information. (n.d.) |
प्ल्यूरोलोबस
गैंगेटिकस [Pleurolobus
gangeticus (L.) J.St.-Hil. ex H.Ohashi & K.Ohashi] |
हर्बेरियम
संख्या- 10916 |
प्रमुख
रासायनिक
घटक-
गैंगेटिनिन
Taru et al.
(2022), Pubchem: National Library of Medicine,
National Center for Biotechnology Information. (n.d.) |
सोलेनम
वर्जीनिएनम [Solanum
virginianum L.] |
हर्बेरियम
संख्या- 1604 |
प्रमुख
रासायनिक
घटक-
सोलानिन एस Taru et al.
(2022), Pubchem: National Library of Medicine,
National Center for Biotechnology Information. (n.d.) |
ट्रबुलस
टेरेस्ट्रिस
[Tribulus terrestris L.] |
हर्बेरियम
संख्या- 1321 |
प्रमुख
रासायनिक
घटक-
ट्रिबुलोसाइड
Pubchem: National Library of Medicine,
National Center for Biotechnology Information. (n.d.), Bhutani et al. (1969) |
यूरेरिया
पिक्टा [Uraria picta (Jacq.) Desv. ex DC.] |
हर्बेरियम
संख्या- 6361 |
प्रमुख
रासायनिक
घटक-
स्टिग्मैस्टा
4 Pubchem: National Library of Medicine,
National Center for Biotechnology Information. (n.d.), Taru et al. (2022) |
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