ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts
ISSN (Online): 2582-7472

ENVIRONMENTAL IMPACT OF MUSICAL SOUNDS सांगीतिक ध्वनियों का पर्यावरण पर प्रभाव

ENVIRONMENTAL IMPACT OF MUSICAL SOUNDS

सांगीतिक ध्वनियों का पर्यावरण पर प्रभाव

 

Dr. Preeti Gupta 1

 

1 Assistant Professor, Performing Arts, NBSCFF, Swami Vivekanand Subharti University, Meerut, India

 

 

 

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Received 04 August 2021

Accepted 26 August 2021

Published 26 September 2021

Corresponding Author

Dr. Preeti Gupta, drpreetigupta24@gmail.com

 

DOI 10.29121/shodhkosh.v2.i2.2021.30

Funding: This research received no specific grant from any funding agency in the public, commercial, or not-for-profit sectors.

Copyright: © 2021 The Author(s). This is an open access article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution License, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.

 

 

 


ABSTRACT

 

English: Human beings have been interested in the environment around them since the beginning of history. Man learned to use fire and other instruments to change the environment. The things around an organism which affect its life activities, form the environment. In reality, the organism and the environment are dependent on each other. It is impossible to imagine the existence of one separate from the other. The existence of all living beings depends on the surrounding environment.

 

Hindi: मानव इतिहास के प्रारम्भ से ही अपने चारों ओर के पर्यावरण में रूचि रखता आया है। मनुष्य ने अग्नि तथा अन्य यन्त्रों का प्रयोग पर्यावरण को परिवर्तित करने के लिए सीखा। जीवों के चारों ओर की वस्तुऐं जो उसकी जीवन-क्रियाओं को प्रभावित करती हैं, वातावरण का निर्माण करती हैं। यथार्थ में जीव और पर्यावरण एक दूसरे पर आश्रित हैं। एक की दूसरे से पृथक सत्ता की कल्पना करना असम्भव है। सभी जीवों का अस्तित्व चारों ओर के पर्यारण पर निर्भर करता है।

 

Keywords: Environmental, Impact, Musical Sounds, पर्यावरण, प्रभाव, संगीतमय ध्वनियाँ

 

1.    प्रस्तावना  

          अन्य जीवों की भांति मानव भी पर्यावरण का एक अंग है। परन्तु अन्य जीवों की तुलना में मानव में अपने चारों ओर के पर्यावरण को प्रभावित तथा कुछ अर्थों में नियन्त्रित कर पाने की पर्याप्त क्षमता है।

        पिछले सौ वर्षों में मानव ने आर्थिक, भौतिक तथा सामाजिक जीवन के प्रत्येक पक्ष में प्रगति के लम्बे लम्बे कदम उठाए हैं। उसकी इन क्षेत्रों में प्रगति का एक मात्र उददेश्य था-उसका स्वंय का हित। उसने इस प्रगति के कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया।

       जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की प्रगति का मूल्य स्वंय मानव ने पर्यावरण की वृहद समस्याऐं उत्पन्न करके चुकाया है, जो जल प्रदूषण, धुएं द्वारा प्रदूषण, घटते वन्य जीवन पर्यावरण के पेस्टनाशियों द्वारा विषकरण विकिरण के जैवीय दुष्प्रभावों अस्थिर पारिस्थितिक तन्त्रों, प्राकृतिक सम्पदा के दुरूपयोग, जनसंख्या में असामान्य वृद्धि, शहरीकरण, लोगों की छोटे-छोटे क्षेत्रों में बढ़ती भीड़ के रूप में दिखाई देती है।

         मानव द्वारा निर्मित पर्यावरण को संस्कृतिक पर्यावरण या सांस्कृतिक भूदृश्य कहा जाता है। इसके अन्तर्गत मानव तथा उसके विभिन्न क्रियाकलाप जैसे व्यवसाय, अधिवास, परिवहन, व्यापार, वाणिज्य, रीति रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, धर्म, भाषा, प्रजाति आदि सम्मिलित है।.

 

      

 


        पर्यावरण अर्थात जीव मण्डल में उपस्थित सजीवों में मानव, जन्तु, वनस्पति तथा सूक्ष्म जीव सम्मिलित हैं। सृष्टि के जीवों में मानव एकमात्र प्राणी है जिसे यह उपलब्धि प्राप्त है कि आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और तकनीकी क्रिया के द्वारा पर्यावरण के भौतिक परिवेश में परिवर्तन सामाजिक, राजनीतिक और तकनीकी क्रिया के द्वारा पर्यावरण के भौतिक परिवेश में परिवर्तन करके सांस्कृतिक परिवेश की रचना करता रहा है। यही मानव पारिस्थितिकी का गुणात्मक पक्ष है। इसी गुण के कारण पर्यावरण में मानव की श्रेष्ठता विद्यमान है।

आज मानव समृद्धि की मृगतृष्णा में विश्व के पर्यावरण को आपदा की गर्त में गिराये जा रहा है। औद्योगिक देशों में अम्ल वर्षा, नई-नई बीमारियां, पुरानी बीमारियों की गहनता, ऊर्जा संकट, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, स्थल प्रदूषण, सांस्कृतिक प्रदूषण और संसाधन भण्डारों का तेजी से घटाव सामान्य चर्चा के विषय बन गये हैं। मौसम का बिगड़ता स्वभाव विविध प्राकृतिक प्रकोप और जीवन के आधार तत्वों की गुणवत्ता में ह्यास के सामने घुटने टेकना ही उपाय दिखाई देता है।

मानव के चारों ओर जिस प्रकार पर्यावरण है उसी प्रकार पर्यावरण के समस्त अंगों में संगीत की ध्वनियां विद्यमान है। व्यापक दृष्टि से देखने पर संगीत सम्पूर्ण विश्व में दिखाई देता है, सम्पूर्ण सृष्टि में संगीत व्याप्त है। झरनों और नदियों का कल-कल निनाद, वृक्षों की सर-सर ध्वनि, पशु-पक्षियों का कलरव प्रागैतिहासिक काल से ही संगीत के प्रमाण उपलब्ध होते हैं।

नीरवता का भी एक अपना संगीत होता है जो मन-प्राणों को एक अदभुत शांति प्रदान करता है, आनन्द देता है। आज के युग में नीरवता, निःशब्दता या शांति अत्यन्त दुर्लभ है। अंग्रेजी में जिसे ‘पिनड्रॉप साइलेंस’ या ‘हीयरिंग द ग्रास-ग्रो’ कहते हैं, वह शान्ति नीरवता अब कहाँ है। चारों ओर उमड़ता हुआ तेज शोर का सागर हमारे अस्तित्व को झकझोरता रहता है। वैसे तो ध्वनि या आवाज पैदा करना मानव और जीव जन्तुओं का प्राकृतिक गुण है। ये ध्वनियां निरर्थक भी हो सकती हैं और सार्थक भी।

ध्वनि एक प्रकार की तरंग है, कम्पन्न है। जब किसी वाद्य के तंत्र झंकृत होते हैं, वे चारों ओर की वायु को पहले संकुचित करते हैं फिर उसे विस्तार देते हैं। इससे जो ध्वनि लहरे उत्पन्न होती हैं, वे 300 मीटर प्रति सैकेण्ड दर से चलती हैं। तरंगों के रूप में आने वाली ध्वनि पहले हमारे कान के पर्दे से टकराती है, फिर कुछ सूक्ष्म सरचनाओं से होती हुई श्रवण-तंत्रिका तक पहुंचती है। यह तंत्रिका इस मस्तिष्क के श्रवण केन्द्र तक पहुंचाती है और तब हमें आवाज सुनाई दे जाती है। कर्ण-कुहरों के भीतर की सूक्ष्म संरचनाओं में अत्यन्त बारीक रेशे होते हैं, जो अत्याधिक तेज आवाज के कारण नष्ट हो जाते हैं तथा बधिरता का कारण बनते हैं। ध्वनि की तीव्रता को डेसीबल से मापा जाता है। डेसीबल एक भौतिक इकाई है, जो उस हलकी से हलकी ध्वनि पर आधारित है, जिसे मनुष्य सुन सकता है। ‘‘हमारे कान अधिक से अधिक 80 डेसीबल तक की ध्वनि तीव्रता सहन कर सकते हैं इससे अधिक तीव्र ध्वनि कानों के लिए व स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। श्रवण शक्ति के लिए सुरक्षित ध्वनि 45-60 डेसीबल तक की है। 80 डेसीबल की ध्वनि अप्रिय होती है। 140 डेसीबल की तो कर्ण-कटु होती है। 180 डेसीबल की ध्वनि से व्यक्ति मानसिक संतुलन खो सकता है एवं 180 डेसीबल से अधिक ध्वनि की तीव्रता से तो मृत्यु तक हो सकती है।’’   Saxena (2004)

इस प्रकार ध्वनि प्रदूषण से मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं का ह्यास होता है। बधिरता, अनिद्रा, सिर दर्द, रक्तचाप, चिड़चिड़ापन, जैसे अनेक रोगों के मूल में ध्वनि प्रदूषण का हाथ होता है। केवल मनुष्य ही नहीं, पशु पक्षियों, पेड़ पौधों तथा जड़ पदार्थों तक पर ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव होता है। सर सी0वी0 रमन ने अपने शोध में यह सिद्ध किया है कि ध्वनि की तरंगे किस प्रकार मानव की इन्द्रियों को प्रभावित करती हैं। यदि मधुर संगीत प्राणदायक औषधी है तो शोर शराबा प्राणघातक सिद्ध हो सकता है। ‘‘प्रो0 टी0सी0एन0 सिंह द्वारा किए गए एक प्रयोग में उन्होनें केले व धान के पौधों को सांगीतिक स्वरों का श्रवण कराया जिसके परिणामस्वरूप इन पौधें के उत्पादन व स्वास्थ्य में वृद्धि हुई।’’ Music Magazine (2006)

‘‘वनस्पति शास्त्री सर जे0सी0 बोस की प्रयोगशाला में एक दिन पं0 ओंकार नाथ ठाकुर ने एक प्रयोग किया। वे कहते हैं-उनकी प्रयोगशाला में जाकर हमने राग भैरवी गायी थी। गाने से पूर्व यन्त्र द्वारा पौधों के पत्तों की अवस्था देखी गई थी और गाने के बाद उन पत्तों पर आई हुयी नई चमक का दर्शन भी किया था। इसी प्रयोग से यह अनुभूति हुई थी कि इन वनस्पतियों पर नाद तत्व का और भिन्न-भिन्न रागों का असर अवश्य होता है।’’  Music Magazine (2008)

वनस्पति के अतिरिक्त पशु-पक्षियों पर भी सांगीतिक ध्वनियों का साकारात्मक प्रभाव प्रमाणित किया गया है।

‘‘तानसेन के ‘टोड़ी’ राग गाने पर, उसकी स्वर लहरियों को सुनकर मृगों का एक झुण्ड वहंा दौड़ता हुआ चला आया। भाव-विभोर तानसेन ने अपने गले में पड़ी माला एक हिरन के गले में डाल दी। इस क्रिया से संगीत प्रवाह रूक गया और सारे के सारे हिरन जंगल में भाग गए।’’   Influence of Music Kiran Mishra Music (2008)

‘‘मैहर के उस्ताद अलाउददीन खां साहब एक बार अपने मकान पर जब सरोद लेकर किसी राग की अवतारणा करने लगे तो एक काला सांप उनके निकट आया और कुण्डली लगाकर बैठ गया। जब उन्होनें अपना सरोद वादन समाप्त किया तो सर्प शांति से अपने स्थान को लौट गया।’’  Sharma (2010)

इस प्रकार सांगीतिक ध्वनियों के सुप्रभाव न केवल मनुष्य अपितु वनस्पति तथा पशु-पक्षियों आदि पर भी देखे गये हैं। अनेक वनस्पति शास्त्रियों ने संगीत के श्रवण से पेड़-पौधों के स्वास्थ्य वर्धन व रोगोपचार हेतु प्रयोग किए हैं तथा उसके सकारात्मक परिणाम भी पाए हैं। अनेक प्रयोगों से गाय के दुग्ध विसर्जन में वृद्धि उन्हें संगीत श्रवण कराने के तत्पश्चात देखी गयी।

हमारे जीवन में ध्वनि प्रदूषण इस सीमा तक व्याप्त हो गया है कि उसे पूर्ण रूप से दूर कर पाना हमारे नियंत्रण में नहीं है। किन्तु सांगीतिक ध्वनियों का उचित प्रयोग नगरीय कोलाहल की ध्वनियों पर विजयी होकर शोरगुल से उत्पन्न मानसिक व्याधियों व मानसिक व्याधियों से उत्पन्न शारीरिक व्याधियों का हास करता है।इस विषय पर निरन्तर शोध कार्य सम्पूर्ण विश्व में चल रहे हैं।

हरिद्वार में स्थित शातिकुंज, ब्रहमवर्चस संस्थान व महर्षि गांधर्व वेद विश्व विद्यापीठ, नोएडा इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि संगीत पर्यावरणीय आपदाओं में सुधार करने में सक्षम है। पर्यावरणीय परिवर्तन के कारण नष्ट हुए विश्व के प्रकृति सौन्दर्य से दुखी होकर प्रकृति सौन्दर्य प्रेमी कवि रविन्द्रनाथ ठाकुर लिखते हैं-

 

आज जाने क्या हुआ, जग उठे मेरे प्राण।

ऐसा लग रहा, मानो महासागर घुमड़कर

गा रहा जो गान दूर दिगंत के उस पार,

उसको सुन रहा हूँ।

अरे, चारों ओर मेरे दिख रहा कैसा भयावह

घोर कारागार-इसको तोड़ चकनाचूर कर दे

दे प्रचंडाघात बारंबार।

हाय रे, यह आज कैसा गान गाया पक्षियों ने

आ गई रवि की किरण द्युतिमान।

 

Refrences

Saxena, P. (2004, November 51). Music Monthly Magazine.

Influence of Music Kiran Mishra Music (2008). Monthly Magazine 4.

Sharma, S. (2010, October 14). Effect of Music on Variable Beings. Sangeet Kala Vihar.

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