ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts
ISSN (Online): 2582-7472

ILLUSTRATION OF NATURE IN THE BANDS OF KATHAK RAIGAD GHARANA कत्थक रायगढ़ घराने की बन्दिशों में प्रकृति का चित्रण

ILLUSTRATION OF NATURE IN THE BANDS OF KATHAK RAIGAD GHARANA

कत्थक रायगढ़ घराने की बन्दिशों में प्रकृति का चित्रण

 

Dr. Bhawna Grover 1

 

1 Head of Department, Department of Performing Arts, Swami Vivekananda Subharti University, Meerut (U.P.), India

 

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Received 04 August 2021

Accepted 28 August 2021

Published 26 September 2021

Corresponding Author

Prof. Dr. Bhawna Grover, siffmusic13@gmail.com

 

DOI 10.29121/shodhkosh.v2.i2.2021.31

Funding: This research received no specific grant from any funding agency in the public, commercial, or not-for-profit sectors.

Copyright: © 2021 The Author(s). This is an open access article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution License, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.

 

 

 


ABSTRACT

 

English:  It is a matter of the beginning of the twentieth century when the artists of the Kathak world did not have shelter because the patronage of the Nawab of Awadh, Wajid Ali Shah, had ended. It was well decorated; it was decorated by Kathak artists under the protection of their ancestors and Nawab Sahib. After the 19th century, there was silence in the last phase. In the Kathak world. The artistes lost their prestige and started wandering to earn their living as the Nawab Sahib was no more.

 

Hindi: यह बात है बीसवी शताब्दी के आरंम्भ की जब कत्थक जगत के कलाकारो को आश्रय नही था क्योंकि अवध के नवाब वाजिद अली शाह का सरपरस्ती खत्म हो गई थी। खूब सजाया था, संवारा था कत्थक कलाकारो ने अपने पूर्वजों और नवाब साहब के संरक्षण में। 19वीं शताब्दी के बाद अन्तिम चरण में सन्नाटा छा गया था। कथक जगत में। कलाकारों को शान-शौकत खत्म हो गई और वे जीवीकापार्जन के लिए भटकने लगे क्योंकि नवाब साहब नही रहे थे।

 

Keywords: Illustration, Nature, Kathak, चित्रण, प्रकृति, कथक

 

1.    प्रस्तावना  

          महाराज बिन्दादीन, कालका प्रसाद व उनके तीनों पुत्र अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और शम्भू महाराज, ऐसे अनगिनत कलाकार आश्रय हीन होकर अवध छोडने लगे, कुछ कलाकार रामपुर दरबार में नौकरी करने लगे। ऐसा ही कुछ हाल था जयपुर घराने के कलाकारों का। स्व. जयलाल जी, नारायण प्रसाद जी, सुन्दर प्रसाद जी, शिवलाल जी, जिन कलाकारों के नृत्य का कोई सानी नही था, अपनी जीवीका की खोज में घूमते फिरते थे। ऐसे मे इन कलाकारों की डूबती नैया को पार लगाने के लिए जन्म हुए रायगढ़ के छत्तीस गढ़ के राजा भूपदेव जी के सुपुत्र श्री चक्रधर सिंह का जन्म सन् 1905 में हुआ जो नन्हें महाराज के नाम से जाने जाते थे। राजा भूपदेव सिंह स्वयं भी संगीत के प्रेमी, सहृदय व रसिक थे। उनके समय में गणंश मेला उत्सव प्रति वर्ष मनाया जाता था। जिसमें राज दिन लोक नर्तक अपनी कलाओं का प्रदर्शन करते थे और स्वर व ताल से वातावरण गुंजायमान रहता था। देश भर से अनेक संगीतकार आमन्त्रित किये जाते थे और फिर शास्त्रीय संगीत की महफिले जमती थी। कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन कर राजा भूपदेव सिंह द्वारा इनाम पाकर मालामाल होकर जाते थे। ऐसे ही संगीतमय वातावरण मे बचपन बीता। नन्हें महाराज का उन्हे संगीत व नृत्य कलाओं से विशेष प्रेम था। उन्हें प्रकृति, पशु-पक्षी, से भी विशेष प्रेम था। चक्रधर सिंह सन् 1924 में रायगढ़ की गद्दी पर विराजमान हुए। यह समय कथक नृत्य के कलाकारों के लिए स्वणयुग था क्योंकि राजा चक्रधर सिंह का कत्थक नृत्य से अगाध प्रेम था। रायगढ़ दरबार मे अनेक कत्थक नर्तको को राजाश्रय प्राप्त हुआ। रायगढ़ के आस - पास के गांवो से ’’गम्मत’’      

 


नाचने, वाले बाल कलाकारों को ढूंढ निकाला गया। जिनमें अनुज राम कार्तिक राम, फिरतू दास, कल्याण दास महन्त, बर्मना लाल जी जैसे प्रतिभावान व निष्ठावान शिष्य श्रेष्ठ गुरूओं को प्राप्त हुए। गुरू जयलाल महाराज अच्छन, द्वारा घंटो नृत्य का रियास कराया गया। अभिनय व लास्य अंग की शिक्षा गुरू लच्छू महाराज जी द्वारा हुई । इस प्रकार रायगढ़ दरबार मे कत्थक नृत्य का सर्वागीण विकास हुआ। प0 भगवान दास माणिक लिखते है कि ’’ राजा चक्रधर सिंह के दरबार मे कर्मचारी या तो संगीत कार थे या फिर विद्वान लेखक और कवि। यह कहना मुश्किल है कि उस समय रायगढ़ दरबार या कि उस समय रायगढ़ राज दरबार या संगीत विश्वविद्यालय।’’ Bhagwan Das Manik Mahant (n.d.) और यहीं से सिलसिला शुरू हुआ कत्थक नृत्य की बन्दिशो को रचने का। “महाराजा चक्रधर सिंह ने अनेकों बोल-परणों की रचना की जो नर्तनसर्वस्वम और मुरजपर्णपुष्पाकर में दर्ज है। बोलों की रचना कर लेने के बाद दरबार के सभी नर्तकों से इन बोलों की प्रस्तुति करवाई जाती है। एक ही बोल को अनेकों प्रकार से किया जाता था और जब सर्वसम्मति से किसी नर्तक द्वारा प्रस्तुत विशेष अंग को स्वीकृति मिल जाती थी तब उसे अन्तिम रूप दे दिया जाता था।“Bhagwan Das Manik Mahant (n.d.) यूँ तो रायगढ़ घराने का नृत्य लखनऊ व जयपुर घराने की मिला-जुला स्वरूप है किन्तु रायगढ़ घराने की विशेष बन्दिशे इसे सभी घरानों से भिन्न कर देती है और  रायगढ़ घराना सर्वथा ही विशिष्ट स्थान बना पाता है। “रायगढ़ घराने की प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ की रचनाओं मे नाट्य के तत्वों का समावेश देखने को मिलता है। प्रत्येक रचना मे शब्दों का चयन इतना सटीक और सुन्दरतापूर्वक किया गया है कि उसकी अनुकूल प्रस्तुति से उस रचना के नाम में निहित भाव साकार हो उठते है। “Bhagwan Das Manik Mahant (n.d.) ‐‐‐‐‐‐” यहाँ की सभी रचनायें शब्दात्मक, काव्यात्मक, ध्वन्यात्मक, दृश्यात्मक, भावात्मकता और रसात्मक है। “Bhagwan Das Manik Mahant (n.d.)

रायगढ़ घराने की रचनाये 15 श्रेणीयों में विभक्त है। जिनमें से प्रकृति प्रधान रचनायें, प्रणी प्रधान रचनाये व वनस्पति प्रधान रचनाएं रायगढ़ घराने को अन्य सभी कथक घरानों से प्रथक करती है। डॉ भगवान दास माणिक लिखते है कि ’’ जहां एक ओर प्रकृति में घटित घटनायें प्राकृतिक वातावरण, वनस्पति आदि से संबोधित रचनाये है वहीं दूसरी और प्रकृति में स्वछन्द रूप से विचरण करते पशु-पक्षियों के गुण, धर्म, स्वभाव और आचरण आदि से संबोधित रचनायें भी देखने को मिलती है पर राजा चक्रधर सिंह ने इन रचनाओं को नर्तन सर्वस्वम और मुरज पर्णपुष्पाकर मे दर्ज किया है। राजा साहब को प्रकृति से बेहद लगाव था। प्रकृति में घटित सभी घटनाओं का ध्यानपूर्वक चिन्तन मनन करने के उपरान्त उन्होंने प्राकृतिक घटनाओं से संबोधित अनेको रचनाये की है।

 

2.    दल बादल परन

दल बादल परत की खास विशेषता है कि इसका प्रथम बोल ’नगन’ है जो अन्य किसी परन मे देखने को नही मिलता । धेत, तधेत, तडन्न, धाधा बादलों का गरज को दर्शाता है। तिहाई की दुत गति संभवतः वर्षा की बूंदो को दर्शाती है। धेतधेत दिगिन्नाडधित बोल से दम को भरा गया है। जो संभवतः बादलो की गड़गड़ाहट है। सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ पी0 डी0 आर्शीवादम का विचार है कि “दलबादल का अर्थ बादलों का समूह है। वर्षा ऋतु में आकाश की ओर देखें तो काले बादलों का समूह मे चलते हुए देखा जा सकता है। “

                                                       

 

 

 

 

 

 

दलबादल

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3.    घुमड़ बादल परन

जिस प्रकार वर्षा ऋतु का आगमन होता है। घुमड बादल परन में काले-काले बादलों का चित्रण गर्जना, बिजली की चमक से आन्नद व श्रृंगार रस की अनूभूति होती है।          

घुमड़बादल

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4.    गीतांगी सावनी परन

मिश्र जाति के छनद में रचित इस परन में सावन के महीने में बादलों की गरज की गीतमर्या प्रतिध्वनि का चित्रण इस बन्दिश मे दिखाई देता है। इसी प्रकार प्रकृति की रचनाओं में चमक बिजली कड़क बिजली परन भी उतकृष्ट रचना है। इसी श्रंखला मे एक विशेष परन ’’ जिसका नाम बादल, बिजली पक्षी परन है।, की रचना भी राजा साहब की प्रकृति संबोधित अनुपम रचनाओं में से एक ही इसकी पहली पंक्ति में बादलों की गरज, दूसरी पंक्ति में बिजली की कड़कड़ाहट का साथ चमकना, तीसरी पंक्ति में वर्षा और चैथी पंक्ति में मेंढक, मोर, पपीहा आदि पक्षियों की हर्षाेल्लास के साथ किलकारी अथवा बातचीत का सुन्दर वर्णन देखने को मिलता हैं। प्रस्तुत है। बादल बिजली पक्षी परन ।

 

 

गीतांगी सावनी (मिश्र जाति)

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रायगढ़ घराने ने उपरोक्त सभी परने घराने के नर्तको द्वारा विशेष आदर के साथ नाची जाती है। और नर्तक परन की विशेषता बताकर ही पढन्त कर प्रस्तुति देते है।

रायगढ़ घराने मे राजा चक्रधर सिंह ने पशु-पक्षियों से संबोधित भी अनेक रचनायें की है। इनकी इस रचनाओं से भी ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति को प्रत्येक चल अचल से उन्हें प्रेम था। कुछ रचनाये पढ़कर तो ऐसा लगता है कि पशु-पक्षियों की इन परनों को रचने से पूर्व उनकी दिनचर्या की कितनी सूक्ष्मता से अध्ययन किया होगा। राजा साहब ने रायगढ़ घराने में बहुत सिद्ध परन गज विलास परन इसी का धोतक है। गज विलास परन के ही अनेक प्रकार रागयढ़ के नर्तको द्वारा प्रस्तुत किये जाते है। कुछ परन हाथी के चित्र पर आधारित है। कुछ परनों मे हाथी की सूंड से लेकर पूंछ तक का वर्णन है। निम्नलिखित परन हाथी की मंदमाती चाल पर आधारित है।

 

5.    गज विलास परन

एक अन्य रचना नागराज के आन्नद की अनुभूति कराती है। चाँदनी राम में नाग देव अपनी बांबी से निकलकर खुले मैदान में चारों तरफ इधर-उधर विचरण करते हुए बाद में अपनी बांबी में ही चले जाते है।

गजविलास

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6.    नागरंग परन

उपरोक्त परन में क्डान किततक तागंतित बोल पर नाग बांबी से निकलकर देखता है। धदिगन धदिगन बोल पर साँप की लहराती हुई पूंछ का वर्णन तथा तकधुमकिट तक धा तिहाई में स्वछंदता से नाग मैदान मे विचरण कर बांबी मे वापिस पहुचता है। इसी प्रकार पक्षियांे के चहचहाहट व कलख पर आधारित है। कलख  परन एक अन्य परन मतस्य रंगावली पर मतस्य रंगावली पर इस घराने की विशेषता है।

नागरंग

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7.    मतस्य रंगावली परन

उपरोक्त परन में पहली पंक्ति का में तेटे का अर्थ तट से है और तड़ाग का अर्थ झील से है। अर्थात अर्थ है। झील के तट से उपर। तदोपरान्त एक पक्षी जो एक मछली को पकडने के लिए झील में ताक रहा है। फिर मतस्य की चाल जो पानी के जैसी है। जो तीव्र गति से मुडना व आगे बढ़ना दर्शाता हैं अन्त में धरन मीन का अर्थ मछली पकडने व धडन्न धा का अर्थ मछली पकड़ कर उड़ जाने से हुआ है। रायगढ़ दरबाद के नर्तक गुरू प0 कल्याण दास महंत इस परन को अपनी प्रत्येक प्रस्तुति में किया करते थे।

मत्स्यरंगावली

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8.    मत्तमयूर परन

एक अन्य परन मयूर नृत्य व मयूर की चाल पर आधारित है। यह भी रायगढ़ घराने की प्रकृति पर ही आधारित एक अनुपम बंदिश है जो मत्त मयूर नाम से जानी जाती है। उक्त परन मे जो एक उन्नमत मयूर अपने पंखों को फैला कर इधर-उधर घूम रहा है। पैरो को उठा कर गर्दन को आगे-पीछे करता हुआ आन्नदमय होकर नृत्य कर रहा है, कभी कूदकर अपने स्थान से पलट जाता है और अन्त में तिहाई के बोल ऐसे प्रतीत होते है कि अब पक्षी उड़ा जा रहा है।

 

 

 

मत्तमयूर

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यह उनमत्त मयूर से सम्बन्धित रचना है। इसमें -

·        धात्रकधिकिटकत घेघेतिटकिटता

·        धा-नधिकिट धात्रकधिकिट कत

·        घेघेतिट घेघेतिट दिनदिन

·        धात्रकधिकिटकतघेघेतिटकिटता

 

इसके अतिरिक्त कुछ रचनाये ऐसी भी है जिनके केवल नाम मात्र से भी प्रकृति चित्रण हो उठता है। जैसे - रक्त पुष्पी परन। मुक्ता प्रष्प परन, सुरप्रिय, विजय सार, इच्छगंधा, जवाकुसुम, हेमपुष्प, गेंधपुष्पी आदि अनेक ऐसी परने है जो रायगढ़ के कथक के प्रकृति प्रेम को दर्शाती है।

रायगढ़ घराने के अतिरिक्त का ऐसा कोई भी घराना नही है कि जिसकी बंदिशो में प्रकृति के प्रति इतना लगाव हो। प्रत्येक बंदिश में ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रकृति स्वयं नाचने लगी हो। रायगढ़ घराने के नर्तक आज भी इन बंदिशो को नाचकर अपने दर्शक गण को प्रकृति के समीप ले जाते है।

 

Refrences

Mahant, B. D. M. (2015). Kathak Gharana Raigad. BR Rhythms, 8, 52, 54, 55.

 

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