ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts
ISSN (Online): 2582-7472

CONCEPT OF BEAUTY AND CHANGE WITH SPECIAL REFERENCE TO PAINTING सौन्दर्यावधारणा के बदलते मानक: चित्रकला के विशेष संदर्भ में

Concept of Beauty and change with Special Reference to Painting

सौन्दर्यावधारणा के बदलते मानक: चित्रकला के विशेष संदर्भ में

Dr. Shruti Khanna Kakkar 1Icon

Description automatically generated

 

1 Guest Assistant Professor, Department of Drawing and Painting, Maharaja Surajmal Brij University, Bharatpur

 

A picture containing logo

Description automatically generated

ABSTRACT

English: According to Indian concept of art, the only purpose of art is to provide experience of rasa to spectators or conossiurs. This is applicable on all fine arts. The aesthetic concept of ancient fine arts is mentioned in the Chitrasutra of Vishnudharmottar Puran, Samarangan Sutradhar, and Kamasutra but in modern period due to the change in format of fine arts, the concept of beauty has also changed because the concepts of beauty and fine arts are interdependent. In modern Period colour, theme, limbs of art, form etc. have changed. Today form has been distorted, as well as, conceptual art has evolved in visual form which includes installation, performance, new media art, etc. But there is no change in the Process of Rasa Anubhuti and its Nishpatti. After the distortion of form, Rasa and bhava is to be experienced by the spectator.

 

Hindi: भारतीय विचारधारा के अनुसार कला का एकमात्र उद्देश्य रसानुभूति है। यह सभी ललित कलाओं पर प्रयोज्य है। प्राचीन ललित कलाओं की सौन्दर्य-अवधारणा के मानक तत्वों का उल्लेख हमें विष्णुधर्मोत्तर पुराण, के चित्रसूत्र, समरागंणसूत्रधार तथा कामसूत्र में मिलता है, परन्तु आधुनिक युग में ललित कलाओं के मानकों में परिवर्तन होने से सौन्दर्य की अवधारणा में भी परिवर्तन हो गया है, क्योंकि सौन्दर्य की अवधारणा और ललित कलाएँ परस्पर आश्रित है । आधुनिक युग में वर्तना के क्रम, षडंग, रूप, आकार, आदि के मानक बदल गये है। आज रूप, रूप न रहकर उसका विरूपण हो गया है, साथ ही दृश्य रूपों में कान्सेप्च्युअल कला आ गई है, जिसमें इंस्टालेशन, परफॅार्मेंस, न्यू मीडिया आर्ट, आदि आ गये है। लेकिन फिर भी रसनिष्पत्ति की प्रक्रिया में कोई परिवर्तन नहीं आया है, रूप के विरूपण में भी भाव व रस की अनुभूति होती है।।

 

Received 03 June 2023

Accepted 07 November 2023

Published 14 November 2023

Corresponding Author

Dr. Shruti Khanna Kakkar, shrutikakkar280@gmail.com

DOI 10.29121/shodhkosh.v4.i2.2023.514  

Funding: This research received no specific grant from any funding agency in the public, commercial, or not-for-profit sectors.

Copyright: © 2023 The Author(s). This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.

With the license CC-BY, authors retain the copyright, allowing anyone to download, reuse, re-print, modify, distribute, and/or copy their contribution. The work must be properly attributed to its author.

 

Keywords: Concept of Beauty, Installations, Performance, New Media Art, Rasa, Bhava, रसानूभूति, सौन्दर्य-अवधारणा, इंस्टालेषन, परफॅार्मेंस, न्यू मीडिया आर्ट

 


1.  प्रस्तावना

भारतीय विचारधारा के अनुसार कला का एकमात्र उद्देश्य दर्शक या पाठक को रसानुभूति अथवा रसास्वाद कराना है, जिसे जनसामान्य आनन्द के समकक्ष समझ सकता है। यह सभी ललित कलाओं पर प्रयोज्य है, क्योंकि भरत ने नाट्य के अन्तर्गत सभी कलाओं का अन्तर्भाव मानकर प्रामाणिक रूप से रससूत्र की रचना की थी, जिसकी व्याख्या व प्रयोग चित्रकला पर भी किया जाने लगा। चित्रकला में रस के अंग-उपांगों का निर्णय प्राचीन शिल्प ग्रन्थों अर्थात् कामसूत्र, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, तथा समरांगण सूत्रधार, में वर्णित कला के अंग, गुण, तत्व, आदि के आधार पर किया जा सकता है। Sakhalkar (2017). चित्रों के अंग के संदर्भ में यदि विवेचन किया जाये तो यही सिद्ध होता है। कलागत सौन्दर्य के सभी अंगों की अवधारणा का स्वरूप यद्यपि प्राचीन काल से आधुनिक व उत्तर आधुनिक युग में परिवर्तित होता रहा है परन्तु दर्शक को अन्ततः होने वाली अनुभूति में परिवर्तन नहीं हुआ है। यह चिरन्तन, नित्य नवीन एवं मनोहारी है। कालिदास की उक्ति इस संदर्भ में अत्यन्त उपयुक्त तथा उल्लेखनीय है। ‘‘क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूपं रमणीयतायाः’’अर्थात् सौन्दर्य या रमणीयता का स्वरूप वही है जो प्रतिक्षण नवीन लगे। हर बार दर्शक देखकर आनन्दित हो। Mishra (n.d.)

कामसूत्र पर यशोधर पंडित द्वारा लिखित जयमंगला टीका में चित्रकला के छः अंगों का उल्लेख है। Chaturvedi (2020)  रूपभेद, प्रमाण, भाव, लावण्य, सादृश्य और वर्णिका भंग यह छः अंग एक चित्र को सम्पूर्ण होने के लिये आवश्यक हैं। विष्णुधर्मोत्तर पुराण, में चित्र के आठ अंग बताये गये है। Dwivedi (2011) तथा समरागंण सूत्रधार के लेखक राजा भोज ने चित्रकला तथा सौन्दर्यशास्त्र अर्थात् रस के बीच के गहरे संबंध का ‘‘रसदृष्टिलक्षणम्’’ नामक अध्याय में उल्लेख किया है, जिसमें रस तथा रस दृष्टियों का उल्लेख है। इसमें भी रस के आठ अंगों का ही उल्लेख है। (समरांगण सूत्रधार 71/14-15)

आधुनिक चित्रकला में इन अंगों के प्रयोग एवं चित्र की प्रस्तुति में अन्तर दिखाई पड़ता है, जिसका कारण है ‘परिवर्तन’, जो कि एक शाश्वत नियम है, चूंकि सौन्दर्य की अवधाारणा तथा ललित कलाएँ अन्योन्याश्रित होती है तो जब कलाओं के स्वरूप में परिवर्तन होता है तो सौन्दर्य की अवधारणा भी बदल जाती है। अतः परिवर्तन के मानक बदलने का कारण सौन्दर्य के आधार अर्थात् ललित कलाओं के मानक में परिवर्तन। यह परिवर्तन स्वाभाविक है तथा देश व काल के अनुरूप बदलता रहता है।

आधुनिक चित्रों में भी षडंग का प्रयोग होता है, परन्तु उनके प्रयोग तथा क्रमिक महत्व में परिवर्तन आ गया है। यह षडंग न रहकर कला के तत्व व संयोजन के सिद्धान्त कहे जाते है तथा रेखा, रूप, वर्ण, तान, पोत, अन्तराल, सहयोग, सामंजस्य, संतुलन, प्रभाविता, प्रवाह तथा प्रमाण द्वारा इनका अभिज्ञान होता है। चित्रकला के पारम्परिक षडंग में तकनीक, माध्यम तथा सामग्री से सबंद्ध अंगों को कम महत्व दिया गया है, इसके विपरीत आधुनिक कला में तकनीक व सामग्री को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। उदाहरण के लिये सामंजस्य, संतुलन तथा प्रभाविता उत्पन्न करने के लिये रेखा, रूप, वर्ण, तान तथा पोत को महत्व दिया जाने लगा है। लावण्य तथा सादृश्य आधुनिक कला के क्षेत्र में उतने आवश्यक अंग नहीं माने जाते, जितना महत्व इन्हें पारम्पारिक कला में प्राप्त है। इसका परिणाम यह हुआ कि, सौन्दर्य का स्थान चमत्कार एवं अलंकरण ने ले लिया है। अधिकांश आधुनिक चित्रों का उद्देश्य मात्र अलंकरण तथा दृष्टि को रंगों की आभा से चमत्कृत करना या उत्तेजित करना प्रतीत होता है।

प्राचीन कला में चित्रकला ने त्रिआयामी रूप ले लिया था जो यथार्थ का भ्रम उत्पन्न करता है। परन्तु वर्तमान चित्रकार यथार्थ रूप को न चुनकर उसके सरलीकृत आकार को अधिक वरीयता देता है। अर्थात् प्रकृति में पाई जाने वाली वस्तुएँ अथवा प्रकृति के अंग अर्थात् गैस, वायु, जल, आकाश, आँधी, कोहरे, आदि सभी रूपों के अतंर्गत आते हैं, जिनका सरलीकरण किया जाये तो इनमें ज्यामितिक आकार अर्थात् त्रिकोण, चतुष्कोण, अष्टकोण, वर्गाकार, गोलाकार, बेलनाकार, आदि रूप दिखाई पड़ते हैं, जिन्हें आधुनिक चित्रकार चित्रित करके अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है। इस प्रकार की अभिव्यक्ति में विभिन्न आकारों को सतुंलित रूपों में संयोजित किया जाता है जिसमें से यदि किसी आकार को हटा दें तो चित्र असंतुलित प्रतीत होने लगेगा। अतः आधुनिक चित्र में व्यवस्था, क्रम तथा अन्विति प्रमुख मानक मान्य हैं, जिनके आधार पर उसका मूल्यांकन किया जाता है। Roger (1957)

आधुनिक चित्रकला में अनुपात, क्षय, वृद्धि, संतुलन, आदि को प्रमाण की अपेक्षा वरीयता दी जाती है। इस प्रकार संयोजित चित्र को संतुलित बनाने के लिए आकारों, रंगों तथा तान, पोत, आदि का प्रयोग किया जाता है। इसके लिये चित्रित आकार के निश्चित अनुपात का ध्यान, रंगतो का उनके बल के अनुरूप  पर प्रयोग तथा पुनरावृत्ति, अन्विति और प्रभाविता पर ध्यान दिया जाता है। यद्यपि कलाकार आज भी अपने चित्र में प्रमाण का प्रयोग करता है, परन्तु कई बार अपनी कृति को असाधारण बनाने की इच्छा से कलाकार प्रमाण में इतना अधिक परिवर्तन कर देता है कि चित्रित आकृति का स्वरूप ही परिवर्तित हो जाता है।

पारम्परिक चित्रण में भाव को अधिक महत्व दिया गया है, क्योंकि चित्र में रस उत्पन्न करने के लिये भाव महत्वपूर्ण तत्व है। Dwivedi (2011)  इन भावों के चित्रण के लिये शिल्प शास्त्रों में रस-दृष्टियों, मुख-मुद्राओं, हस्त-पाद-मुद्राओं व शारीरिक मुद्राओं का विस्तार से अध्ययन, रंगों की भावात्मकता, रूपभेद से उत्पन्न भाव अभिव्यंजना, प्रमाण का काल्पनिक प्रयोग, आदि का अध्ययन किया गया है। इस ज्ञान के पश्चात आकृति किस भाव को अभिव्यक्ति कर रही है, यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। आधुनिक कला में भी चित्रकार चित्र के इस अंग को ध्यान रखते हुये संयोजन के विभिन्न सिद्धान्तों का कलात्मक प्रयोग करते हुए दर्शक को चित्र की ओर आकर्षित करने का प्रयास करता है जिसके लिये रेखा, रंग, पोत, आदि के माध्यम से भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है। इन चित्रों में भावानुभूति से अधिक चमत्कार की अनुभूति होती है। Sakhalkar (2017)

वर्तमान में रस की अवधारणा में भी परिवर्तन हुआ है। भरत मुनि ने रसों की संख्या आठ बताई थी फिर रस की संख्या नौ हुई और आधुनिक युग में विभिन्न रसों की अभिव्यंजना एक ही भाव में मानी जाती है जैसे रति भाव में वात्सल्य, श्रृंगार, करुणा, मार्धुय आदि रूप भी जुड़े हैं।

आकार में परिवर्तन आ गया है। दृश्य व मूर्त आकार से अमूर्त आकार और अमूर्त आकार से आभासी आकार का विकास हो गया है। हमने आभासी जगत का निर्माण कर लिया, अब हम डिजिटल आकारों का उपयोग करने लगे हैं। कंप्यूटर का प्रयोग करते हैं, जिसमें अनुभव से भी परे एक जगत का निर्माण करते हैं ।

दृश्य रूपों में इस्टांग्राम, मोनोग्राम, इंस्टालेशन, परफॅार्मेंस, न्यू मीडिया आर्ट, आदि आ गये हैं। इन सभी परिवर्तनों के कुछ ऐतिहासिक कारण हैं, इनमें पाश्चात्य कला का अनुसरण हैं। बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में हमनें पाश्चात्य शैली का अनुकरण किया व उस अनुकरण से बहुत कुछ सीखा तथा उसे आत्मसात भी किया, परन्तु वर्तमान मे भारतीय संस्कृति ने औद्योगिक, वैज्ञानिक क्षेत्र में इतनी उन्नति की है कि आज वह पाश्चात्य जगत से भी आगे बढ़ गई और इस उन्नति से कला व समाज का प्रत्येक वर्ग प्रभावित हुआ है। पाश्चात्य जगत में बाह्य स्वरूप को महत्व दिया गया है, जबकि  भारतीय कला में आत्मगत स्वरूप को अंकित किया है। सूजन लैंगर ने कला सिद्धान्त के तत्वों व कला की भाषा के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि सभी कलाओं में अन्तः सम्बन्ध होता है तथा दृश्य व श्रव्य कलाओं में सृजन की प्रक्रिया एक समान होती है। सृजन का अर्थ है आन्तरिक दृश्य को बाहर लाने का प्रयास। कलाकार तैल, रंग, कैनवास, शब्द, ध्वनि, भाषा, आदि के माध्यम से हमारे आन्तरिक भावों को सृजन का रूप देता है। यद्यपि कला का रूप वर्तमान में बदल गया है, जिसके लिये रोजर फ्राई ने कहा है, कि चित्र को देखते समय हमें वास्तविक जगत के आयाम को भूलकर चित्र में वर्णित काल्पनिक आयामों के साथ तदाकारता स्थापित करनी चाहिए।

प्राचीन काल में किसी चित्र के उत्कृष्ट होने के जो मानक थे, उनमें भी आधुनिक युग के मानकों में परिवर्तन आ गया है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र, समरागंण सूत्रधार, तथा शिल्प शास्त्र में सौन्दर्य के प्राचीन मानक मिलते है जिनमें तकनीक की शुद्धता पर बल दिया जाता था तथा सहज व सौन्दर्यपूर्ण अनुभूति को उत्तम माना जाता था, जबकि आधुनिक युग में तोड़ मरोड़कर, चमत्कार युक्त आकार जिनके रंगों में उत्तेजना हो को उत्तम माना जाता है जिसके लिये मल्टीमीडिया का प्रयोग किया जाता है।

जैसा कि आधुनिक युग में वर्तना के क्रम, षडंग, रूप, आदि में परिवर्तन हुए हैं फिर भी रसनिष्पति की प्रक्रिया में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, चाहे रूप के अपरूपण या विरूपण  से ही रस को ग्रहण करना पड़े।

कला के मूलभूत सिद्धान्त चेतना की अनुभूति के आधार पर बनते हैं। भारतीय रस सिद्धान्त विश्व की सभी कलाओं पर समान रूप से लागू होता है चाहे वह किसी भी देश की कला हो क्यों कि कला में रस की अनुभूति सार्वभौमिक होती है साथ ही वह आन्तरिक होती है अर्थात भावों पर आधारित होती है तथा  संसार के सभी मनुष्यों में समान रूप से होती है। यह सम्भव है कि संस्कृति, आयु आदि के कारण अभिव्यक्ति का स्तर योग्यता अलग-अलग हो सकता है। जैसे आधुनिक कला में अमूर्त चित्रण अधिक हुआ है यदि हम पिकासो की कला को देखे तो पिकासो ने अपने विकृत स्वभाव के अनुसार अपने चित्रों में भी विकृतिकरण का चित्रण किया है चित्र 1 पिकासो ने यह पेंटिंग अपने अफ्रीकी काल में बनाई है जिसमें उसने महिला के आदिम रूप को चित्रित किया । इस चित्र का निर्माण उन्होंने अफ्रीकी मूर्तिकला की एक प्रदर्शनी को देखने के पश्चात् किया जिसमें उन्होंने केवल लकड़ी की मूर्तियों की सजावट को ना देखकर उसमें छिपे भावों का चित्रण किया है। इसमें महिला को एक कुर्सी पर बैठा हुआ दिखाया है जिसके एक हाथ में पंखा व दूसरे हाथ में एक सुंदर छाता है इस चित्र में प्रत्येक ऑब्जेक्ट को एक विशेष संदर्भ में दर्शाया गया है, सम्पूर्ण चित्र में एक विशेष लय का अहसास करवाता है। महिला के चेहरे को एक आदिवासी मुखौटे के रूप में दिखाया गया है जो कि किसी साथ ही चित्र में प्रकाश की व्यवस्था और चेहरे के भाव एक रहस्यात्मकता को प्रदर्शित करते हैं ।

 चित्र 1

                                                                      

चित्र 1 एक प्रषंसक के साथ महिला साभार

Source https://hi.uobjournal.com/1686-description-of-the-painting-by-pablo-picasso-woman-wi.html#:~:text

 

CONFLICT OF INTERESTS

None. 

 

ACKNOWLEDGMENTS

None.

 

REFERENCES

Chaturvedi, M. (2020). Saundarya Shastra, Rajasthan Hindi Granth Academy, 222 -229.

Dwivedi, P. S. (2011). Chitrasutram (Vishnudharmottara Purana Mein Chitra Kala). Kala Prakashan Varanasi, 1, 127-136.

Mishra, P. (n.d.). Bhartiya Saundarya Shastra v Lalit kalayen. Para Prakashan.

Roger, F. (1957). An Essay in Aesthetics, Vision and Design, 17-32.

Sakhalkar, R.V. (2017). Aadhunik Kala-Roop V Abhivyakti. Kala ke Antardarshan, 124- 127.

Sakhalkar, R.V. (2017). Bhartiya Saundarya Bodh va Aadhunik Kala. Kala Ke Antardarshan, 81- 83.     

 

 

 

Creative Commons Licence This work is licensed under a: Creative Commons Attribution 4.0 International License

© ShodhKosh 2023. All Rights Reserved.