ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts
ISSN (Online): 2582-7472

GERJATHHA FOLK DANCE OF MEGHWAL COMMUNITY OF RAJASTHAN राजस्थान के मेघवाल समुदाय का गेरजत्था लोकनृत्य

GERJATHHA FOLK DANCE OF MEGHWAL COMMUNITY OF RAJASTHAN

राजस्थान के मेघवाल समुदाय का गेरजत्था लोकनृत्य

Arsi Prasad Jha 1 Icon

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1 Research Associate, Anthropological Survey of India, Pratap Nagar, Udaipur-313001 (Raj), India

2 Senior Research Fellow, Anthropological Survey of India, Pratap Nagar, Udaipur-313001 (Raj), India

 

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ABSTRACT

English: The purpose of this research paper is to study the Gerjattha (Jatha Ger) folk dance of Meghwal community living in Motisara village, Siwana Tehsil in Barmer district, Rajasthan. Semi-participant observation, unstructured interview, case study and photographic analysis have been used as a research methodology. The summary of the research indicate that the Gerjattha (Jatha Ger dance) is the main traditional folk dance of the Meghwal community. Meghwals play instruments like Dhol, Thali, Satiya, etc, during performance of this folk dance. They wear Dhoti-Kurta, Kamarpatta, Golsafa, Ghungroo, Mojhari, Moje, Panasia, etc during the performance of folk dance. At present, it is taking the form of their religious and recreational activities. Some of the Meghwals also earn their livelihood from the traditional dance practice. Very little enthusiasm has been seen for this dance form among the younger generation of the community. It is due to decreasing interest, limited income through dance performance and unemployment etc, that the folk dance is not able to reach its full potential. Therefore, there is a need to document this folk dance and preserve the valuable heritage of this folk-dance form of the Meghwal community.

 

Hindi: प्रस्तुत शोध पत्र का उद्येश्य राजस्थान के बाड़मेर जिला के सिवाणा तहसील के मोतीसरा गाँव में रहनेवाले मेघवाल समुदाय के गेरजत्था (जत्था गेर) लोकनृत्य का अध्ययन करना है। शोध पद्धति के रूप में अर्द्धसहभागी अवलोकन, असंरचित साक्षात्कार, व्यक्ति वृत और छायाचित्र विश्लेषण का उपयोग हुआ है। शोध के सारांश इंगित करते हैं कि गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य मेघवालों का प्रमुख पारम्परिंक लोक नृत्य है। मेघवाल अपनी लोकनृत्य की प्रस्तुति के समय ढोल, थाली, सटीया, आदि वाद्ययंत्र बजाते हैं। ये लोकनृत्य प्रस्तुति की अवधि में धोती-कुर्ता, कमरपट्टा, गोलसाफा, घुंघरू, मोजडी, मोजे, पणसिया, आदि पहनते हैं। वर्तमान समय में गैर जत्था नृत्य इनके धार्मिक एवं मनोरंजनात्मक कार्य का रूप ले रहे हैं। कुछ मेघवाल अपनी इस पारंपरिक लोकनृत्य से जीवनयापन कर रहे हैं। मेघवाल समाज की वर्तमान युवा पीढ़ी में इस नृत्य को लेकर उत्साह बहुत कम देखने को मिला है। बढता हुआ असंतोष, नृत्य के माध्यम से सीमित आय का होना व बेरोजगारी आदि के कारण यह अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त नहीं कर पा रहा है। अतः इन लोकनृत्य को दस्तावेजीकरण व इस परंपरागत लोकनृत्य के बहुमूल्य धरोहर को संजोने की आवश्यकता है।

 

Received 31 October 2022

Accepted 28 February 2023

Published 25 March 2023

Corresponding Author

Arsi Prasad Jha, arsiprasadjha@yahoo.com

DOI 10.29121/shodhkosh.v4.i1.2023.272  

Funding: This research received no specific grant from any funding agency in the public, commercial, or not-for-profit sectors.

Copyright: © 2023 The Author(s). This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.

With the license CC-BY, authors retain the copyright, allowing anyone to download, reuse, re-print, modify, distribute, and/or copy their contribution. The work must be properly attributed to its author.

 

Keywords: Gerjathha, Jathha Ger, Meghwal, Rajasthan, Folkdance, गेरजत्था, जत्था गेर, मेघवाल, राजस्थान, लोकनृत्य

 


1.  प्रस्तावना

नृत्य संगीत की परंम्परा आदिकाल से रही है। भाषा के विकास से पूर्व आदिम मानव अपने भावों को व्यक्त करने के लिए सांकेतिक भाषा का प्रयोग करते थे एवं इसके बाद उनकी कला निखरती चली गयी। संगीत मनुष्य के आंतरिक हदय से किसी विशेष परिस्थिति में स्वत़ः प्रसुफुटित बहुतंरग है जो सुख-दुख, आनंद उमंग और समय व स्थिति के अनुसार घटने वाली अनेक घटनाओं के साथ प्रस्फुटित होती है। ऐसी घटना या परिस्थिति हँसना, रोना, गाना सुख, तथा दुखः आदि है। लोकसंगीत में किसी भी समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास, उनकी मान्यताओं व स्थानीय देवी-देवताओं, भूगोल, मौसम, दर्शन एवं सामाजिक विशेषताओं का पता चलता है (नरेश, अतिथ्य)। Singh (2014) ने बताया है कि लोकनृत्य का आयोजन सामाजिक उत्सवों, शिशुजन्म, विवाह, पर्व, त्यौहार, आदि के अवसरों पर किया जाता है। Banarjee (2014) का भी कहना है कि लोकसंस्कृति सर्वधर्म समन्वय, अंतरराष्ट्रीय, आध्यात्मिक चिंतन तथा परमेश्वरीय प्रेम की अमोघ प्रतिनिधि है जहां पर जाति, धर्म, उॅंच-नीच, बड़े-छोटे, आदि की कोई दीवार नहीं होती है। वर्तमान में वैश्वीकरण की प्रक्रिया में नृत्य कला, संगीत और अन्य प्रतिक्रिया से जैसे वैयक्तिक होने का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। वहीं दूसरी ओर, इंटरनेट, मल्टीमीडिया, इलेक्ट्रोनिक और प्रिंटमीडिया ने भी लोककला को ह्रास Shekhawat and Jha (2022) किया है ।

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चित्र 1 स्रोत: वर्तमान अध्यनकर्ताओं द्वारा लिए गए छायाचित्र

 

समुदाय आधारित लोक नृत्य पूरे भारतवर्ष के विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित है जो कि किसी विशेष समुदाय द्वारा विशेष क्षेत्र में प्रचलित है। सामान्य रूप से लोकनृत्य में किसी विशेष संबंधित समुदाय, समूह, जाति व स्थान की एक मिथक, विश्वास, भावना, आदि जुड़ी होती है। लोकनृत्य कुछ निश्चित क्षेत्रवासियों व समुदाय आधारित होते हैं। यही कारण है कि यदि कोई भी लोकनृत्य अधिक प्रचलित नहीं होता है तो वह सीमित स्थान तक ही सिमट कर रह जाता है। लेकिन, यही जब प्रचार-प्रसार व आमजन में प्रचलन में आ जाए तो ऐसे लोकनृत्य वैश्विक स्तर पर जनप्रभाव बनाते हैं। कालबेलिया लोकनृत्य अपनी नृत्य कला के बदौलत विश्व स्तर पर पहचान बनाया। वहीं अन्य कई लोकनृत्य हैं जो कि विश्व स्तर पर तो दूर अपने जिला में भी स्थान नहीं बना पाया। आज के परिप्रेक्ष्य में बात किया जाए तो मुश्किल से कुछ गिने-चुने लोग अपने पारंपरिक लोकनृत्य को जानते हों व इसे संजोकर रखे हों।

Jha (2018) ने गुजरात के सीदी समुदाय के धमाल लोकनृत्य का अध्ययन किया और पाया कि लोकनृत्य अब राष्ट्रीय स्तर पर उभर कर आ रहा है। अब लोकनृत्य धार्मिक कार्यों, होटलों व अन्य समारोहों, मनोरंजन व  स्वरोजगार  के माध्यम से आकर्षण का केन्द्र उभर रहा है। Pradhan (2018) ने उड़ीसा के जनजातियों के लोकनृत्य, लोकसंगीत व वाद्ययंत्र का अध्ययन किया और बताया कि उड़ीसा के जनजातियों में जुआंग नृत्य (चांगु नृत्य), गडाबा नृत्य, कंधा नृत्य, दांता नृत्य, करमा नृत्य, काठी नृत्य, मादिली नृत्य, गोतर परब नृत्य, धांगडी नृत्य, रिनजुदी नृत्य, धेमसा नृत्य इनका प्रमुख लोकनृत्य है। लोकनृत्य का निष्पादन समूह में गीत गाकर, विभिन्न पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाकर व नृत्य कर किया जाता है। लोकनृत्य करना इनका सांस्कृतिक विरासत है। Shekhawat and Pareek (2018) ने पाया कि अधिकतर मामलों में लोककला को महिलायें प्रोत्साहित करती हैं। Pradhan (2018) ने इस विरासत को संरक्षण व संजोने के लिए कहा।

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चित्र 2 स्रोत: वर्तमान अध्ययनकर्ताओं द्वारा लिए गए छायाचित्र

 

Nagauri and Raw (2019) ने बताया है कि लोकनृत्य देखना, घूमने जाना, क्लब व अल्पाहार गृह में जाना, नुक्कड़  नाटक में जाना, कवि सम्मेलन सुनने जाना, संचार के साधनों का उपयोग, मित्रों व संबंधियों के साथ मिलना-जुलना, अपने शौक पूरे करना, रेडियो व टेलिविजन का आनंद लेना, आदि व्यक्ति की स्वतंत्र पसंद है और व्यक्ति इसी वरीयता के अनुसार अवकाश के समय इसका उपयोग करता है। Nagauri and Raw (2019) के परिणाम यह भी इंगित करते हैं कि कार्पोरेट क्षेत्र के कर्मचारी (महिला व पुरूष कर्मचारी सहित) लोकनृत्य, नुक्कड़ नाटक, कवि सम्मेलन आदि देखने-सुनने कम जाते हैं क्योंकि इनके पास समयाभाव होता है। उन्होंने यह भी बताया है कि आज के समय में लोकसंगीत सुनने का प्रचलन कम हुआ है और आधुनिक संगीत (कामकाजी समूह के 81 प्रतिशत इसके पक्ष में) सुनने का प्रचलन बढा है। इसी प्रकार, कार्पोरेट क्षेत्र में कार्यरत 86 प्रतिशत महिला व पुरूष रंगमंचीय नाटक को देखने व अन्य  कार्यक्रमों (जैसे-प्रदर्शनी, मेले, जादूगरी, धार्मिक स्थल, मिमिक्री, रिएलिटी शो, आदि) में भाग लेते हैं। लोकनृत्य व सांस्कृतिक कार्यक्रमों को देखने के लिए 64 प्रतिशत व्यक्ति कभी-कभी, खाली समय व सुविधानुसार जाते हैं। दक्षिणी राजस्थान की मुख्य लोकनृत्य ’गरबा नृत्य’ में व्यक्ति अपने अवकाश का समय व्यतीत करते हैं। इस नृत्य में पुरूषों की तुलना में महिलाओं की सहभागिता कम होती है।

Sutradhar (2019) ने बताया है कि बिहार का तत्कालिक व आधुनिक नृत्य ’लोंडा डांस’ एक समय में बहुत चर्चित था जो कि इस नृत्य का शुरूआत किन्नर (हिजरा) द्वारा हुआ था। शुरूआती दौर में इस नृत्य को प्रसिद्ध करने के लिए बंगाल के कलाकार गए थे। अतः परिणाम यह इंगित करते हैं कि नर्तक अपने नृत्य कलाओं को जब तक घूम-घूम कर लोगों को नहीं बतायेंगे तब तक उस नृत्य का प्रचार-प्रसार संभव नहीं है। संभवतः लोकनृत्य को फलने-फूलने व आगे नहीं बढने का कारण प्रचार-प्रसार की कमी हो सकता है।

Census of India (2011) के आंकड़े कहते हैं कि राजस्थान में मेघवाल की कुल जनसंख्या 30,60,418 है जिनमें 15,94,940 पुरुष व 14,65,478 महिला हैं। इसी प्रकार, राजस्थान के शहरी क्षेत्र में इनकी कुल जनसंख्या 2,99,024 है जिनमें 156879 पुरुष व 142145 महिला है। राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र में इनकी कुल जनसंख्या 2,76,1394 है जिनमें 1438061 पुरूष व 1323333 महिला है। मेघवाल का अन्य नाम चमार भी है। ये मुख्य रूप से राजस्थान के बाड़मेर, गंगानगर, जोधपुर, बीकानेर, चुरू, पाली, उदयपुर, सिरोही, नागौर और जैसलमेर जिलों में रहते हैं।

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चित्र 3 स्रोत: वर्तमान अध्यनकर्ताओं द्वारा लिए गए छायाचित्र

 

बाड़मेर वर्तमान अध्ययन का अध्ययन क्षेत्र रहा है। बाड़मेर जिला राजस्थान के पश्चिमी भाग अवस्थित है और राजस्थान के बाड़मेर जिले में इनकी कुल जनसंख्या 336002 है जिनमें शहरी क्षेत्र में 7639 है जिनमें 3999 पुरूष  व 3640 महिला है व बाड़मेर के ग्रामीण क्षेत्र में कुल 328363 है जिनमें 1,72,334 पुरूष व 1,56,029 महिला है।

मेघवाल मांसाहारी खाना खाते हैं। ये बावन गोत्र में बंटे हैं। ये हिंदू धर्म को मानते हैं। राजस्थान में मेघवाल अनुसूचित जाति की श्रेणी में आते हैं। इनके जीविकोपार्जन का स्रोत खेती, मरे हुए जानवरों के चमड़े निकालना व जूते बनाना है। इनकी हस्तशिल्प व कलायें विख्यात रही हैं। कालांतर में कुछ मेघवाल आज भी इस पेशा को अपनाए हुए हैं Wiswas (1998)। Sharma (2019) ने बताया है कि वर्तमान समय में राजनैतिक गतिशीलता, सरकारी योजना, सांवेधानिक प्रावधान, शैक्षणिक सुविधाओं व आरक्षण मिलने के कारण मेघवाल समुदाय अपने परंपरागत चमडे़ के व्यवसाय को पूर्ण रूप से परिवर्तित कर चुकी है व इस समाज में सभी (महिला सहित) शिक्षित हो रहे हैं। Brigs (1920) ने भी उत्तर प्रदेश के चमार (राजस्थान में मेघवाल के नाम से चर्चित) ने भी बताया है कि चमार की जीवनशैली में परिवर्तन आया है।

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चित्र 4 स्रोत: वर्तमान अध्यनकर्ताओं द्वारा लिए गए छायाचित्र

 

2.  उद्देश्य

इस शोध का मुख्य उद्देश्य मेघवाल समुदाय के गेरजत्था (जत्था गेर) लोकनृत्य का अध्ययन करना है। समय के साथ इस कला में उत्पन्न हुए नवाचार को विश्लेषित करना व तुलनात्मक अध्ययन करना भी वर्तमान अध्ययन का उद्येश्य है। संक्षेप में, बाड़मेर के सिवाणा तहसील के मोतीसरा गाँव के रहनेवाले मेघवाल जाति के द्वारा किये जाने वाले गेरजत्था (जत्था गेर) की प्रासंगिता का अध्ययन मानवशास्त्रीय उपागम के द्वारा सूक्ष्म रूप से अध्ययन करना है।

 

3.  शोधविधि

वर्तमान अध्ययन राजस्थान के बाड़मेर जिला के सिवाणा तहसील के मोतीसरा गाँव में रहनेवाले कुल 15 मेघवाल पुरूष नर्तकों पर शोध कार्य किया गया है। वर्तमान शोध हेतु क्षेत्र कार्य उनके नृत्य कार्यक्रम स्थल पर व उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलकर शोध किया गया है। वर्तमान शोध कार्य के लिए अध्ययनकर्ताओं द्वारा पश्चिमी सांस्कृतिक केंद्र उदयपुर द्वारा आयोजित शिल्पग्राम उत्सव में बुलाये गये मेघवाल जाति के गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य कलाकारों के मध्य रहकर तथ्यों का संकलन किया है। शिल्पग्राम का यह उत्सव प्रतिवर्ष 21-30 दिसम्बर शिल्पग्राम परिसर, उदयपुर (राजस्थान) में आयोजित होता है। यहाँ विभिन्न राज्यों के कलाकार इस उत्सव में भाग लेते हैं। वर्तमान अध्ययन के प्रतिदर्श व उत्तरदाता 15 गेरजत्था (जत्था गेर) मेघवाल पुरूष कलाकार (नर्तक) रहे हैं। इनके चयन का आधार उद्देश्यात्मक प्रविधि रहा है। इस अध्ययन के लिए अधिकांशतः कार्य प्राथमिक स्तोत्र पर आधारित है। यह अध्ययन मुख्यतः क्षेत्र कार्यों पर आधारित है। तथ्यों के लिए अद्र्वसहभागी अवलोकन (सेमीपार्टीसिपेंट ऑब्ज़र्वेशन), असंरचित साक्षात्कार (अनस्टक्चर्ड इंटरव्यू), व्यक्ति वृत (केस स्टडी) एवं छायाचित्र विश्लेषण (फोटोग्राफिक एनालाइसिस) प्रविधि का प्रयोग किया है व आंकड़ों का विश्लेषण गुणनात्मक विधि से किया गया। शोध आचार नीति (रिसर्च इथिक्स) के सभी नियमों का पालन किया गया एवं उत्तरदाताओं से स्वीकृति के उपरांत ही इस शोध कार्य में संबंधित सूचना व छायाचित्र का उपयोग किया गया है। शोध आचार नीति (रिसर्च इथिक्स) के अंतर्गत उत्तरदाताओं के नाम की गोपनीयता रखी गई है।

 

4.  तथ्य विश्लेषण

मेघवाल अपने लोकनृत्य ’’गेरजत्था’’ को जत्था गेर भी कहते हैं। बहुत ही कम मेघवाल अपने लोकनृत्य के लिए जाने जाते हैं। मेघवाल पुरूषों द्वारा किया जाने वाला यह नृत्य इनका मूल नृत्य है। मेघवालों की यह नृत्य इनकी ग्रामीण सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश व इनकी पहचान को दर्शाता है। Basu (2014) ने भी अपने अध्ययन में बताया कि प्राकृतिक वातावरण, फूल, पत्ति, खुले आकाश, आदि में प्रदर्शित नृत्य अधिक मनमोहक होता है। गेरजत्था नृत्य आज भी अपना स्वरूप बनाये हुए है। थार की ग्राम्य संस्कृति से ओतप्रोत एवं सांस्कृतिक सौहाद्र्र घोलने वाला मेघवाल समुदाय का यह पारम्परिक लोक नृत्य बहुत ही अनोखा है। गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य में मेघवाल समुदाय के पुरूष अपनी स्थानीय भाषा (बाड़मेरी/मारवाड़ी भाषा) में गाते हैं जिसमें हिंदी व राजस्थान का समावेश होता है। नृत्य प्रदर्शन के समय आम दर्शक को भाषा समझ में नहीं आने पर भी यह नृत्य सभी दर्शक के आत्मा को छू लेता है व दर्शक को भावविभोर कर देता है।

यह लोक नृत्य राजस्थान के विशेषकर बाड़मेर जिला (पश्चिमी राजस्थान) के ग्रामीण अंचलों में होली पर्व के अवसर पर मेघवाल पुरूषों द्वारा किया जाता है। गाँवों में होली के अवसरों पर होली के 15 दिन पहले व होली के पन्द्रह दिन बाद अर्थात् एक महीने तक चलता है। यह नृत्य पूरा होने पर या नृत्य खत्म होने पर वहाँ के स्थानीय लोगों को गुड़ बाँटा जाता है। यह कार्यक्रम धार्मिक क्रियाकलाप (सूण) का प्रतीक होता है। स्थानीय लोग इस गेर जत्था (जत्थागेर) नृत्य में भाग लेते हैं। इस नृत्य में तीन पीढ़ियों का समागम देखने को मिलता है। अर्थात् इस गेर जत्था (जत्थागेर) नृत्य में बेटा-बाप-दादा एक साथ इस लोक नृत्य में हिस्सा लेते हैं। मेघवाल का एक साथ हिस्सा लेना नृत्य की गरिमा को और भी ग़ौरवान्वित कर देता है। यह नृत्य इनके जनजीवन में एकजुटता का संदेश देता है। लोकनृत्य में मेघवाल समुदाय के लोग घूम-घूम कर एक गोलाई में नृत्य करते हैं। इसमें एक या दो व्यक्ति गोलाई के एक भाग में स्थित होते हैं। मेघवाल अपने वाद्ययंत्र से इन गेर जत्थाईयों को नृत्य संकेत देते हैं। ये लोग अपनी ताल व सुर के अनुसार एक गोलाई में नृत्य करते हैं। इस लोकनृत्य में नृत्य करते हुए गीत भी गाते हैं। मेघवाल के गाए गीत धार्मिक क्रियाकलापों से जुड़े होते हैं जो कि नृत्य के साथ लोकगीतों का प्रवाह बड़ा दर्शनीय होता है। मेघवाल नृत्य के समय अपने परंपरागत वाद्ययंत्रों को बजाते हैं। जिसमें मुख्य वाद्ययंत्र साटिया (दो सूखी लकड़ी), ढोल और थाली हैं। मेघवाल नृत्य के समय डांडिया, ढोल की थाप ओर थाली की मधुर टणकार से सबको मोहित करते हैं। ये इस समय बड़े जोश उत्साह व उमंग से एक साथ जत्था बनाकर गोला बनाकर नृत्य करते हैं। इस लोकनृत्य में पुरूषों द्वारा घेरे में नाचते हुए ढ़ोल की ठणकार के अनुरूप गैरिये अलग-अलग नृत्य शैलियों, एक बड़ी, बेवड़ी व खोड़ी टांग में स्फूर्ति से अपने आजू व बाजू नृतकों से सटिया (लकड़ी) टकराते हुए अपना हुनर दिखाते है। ये नृत्य करते समय धिरकते यकायक बैठ जाना और पलक झपकते ही खड़े होकर नाचते रहना अपने आप में यह निराला नृत्य है। Basu (2014) ने भी कहा है कि नृत्य के समय हाथ और पैर की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। मेघवाल समुदाय भी नृत्य के समय हाथ और पैर का उपयोग करते हैं। मेघवाल समुदाय के लोग जहाँ भी रहते हैं अपनी परम्परा को जिंदा रखते हैं। ये अपने नृत्व को परंपरा का मुख्य भाग मानते हैं न कि आजीविका के रूप में। कारण है कि गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य लगभग सभी मेघवाल जानते हैं। यह गैरिये अपनी लोककला को प्रदर्शित करने के लिए जाने जाते हैं।

 

5.  लोकनृत्य में उपयोग होने वाले वाद्ययंत्र

1)     ढोल - मेघवालों द्वारा किये जाने गेरजत्था (जत्था गेर) लोकनृत्य में ढोल का उपयोग किया जाता है। जिसकी धुन पर यह नृत्य को विशिष्टता प्रदान की जाती है। इस ढोल को एक गैरिया घेरे के बीच में ये स्वयं खड़े होकर बजाते हैं। ये ढ़ोल को एक धुन के अनुरूप बजाकर नृत्य करते हैं। ढोल बजाते समय ये लोग कुछ विशिष्ट शैली का प्रयोग करते हैं। इस शैली में ये लोग एक बड़ी, बेवड़ी, खोड़ी टांग नाचते हुए एक घेरा बनाते हैं। ढोल की आवाज से इनमें जोश व उमंग भर जाता है।

2)     थाली - मेघवाल द्वारा गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य करते समय ढोल के साथ थाली का भी उपयोग होता है। ढ़ोल वादन के साथ एक व्यक्ति थाली को ढ़ोल के साथ बजाता है। थाली को बनाने के लिए एक लकड़ी का छोटा सा टुकड़ा होता है जो थाली बजाने के काम आता है।

3)     सटीया - सटीया लकड़ी की बनी हुई होती है। इसकी जिसकी लम्बाई 1.5 से 2.5 फीट तक होती है। व 1.5” या 1” पतली होती है। इसको सभी गैरिये नृत्य करते समय अपने दोनों हाथों में दो सटिया लेकर एक साथ सटिया को बजाते हैं कभी स्वयं आगे पीछे कर गैरिये सटिये भिड़ाते है। गोल घेरे में घूमते हुए नृत्य करते समय ढोल व थाली की आवाज एक साथ जब टकराती है तो उससे निकलने वाली ध्वनि एक अलग तरह का आनंद प्रदान करती है।

 

6.  लोकनर्तक की वेशभूषा

नृत्य करते समय वेशभूषा में नर्तक धोती-कुर्ता, पायजामा, पगडी, आदि का उपयोग करते हैं Basu (2014)। इन वस्त्रों के प्रभाव से इनके नृत्य की प्रस्तुति और अधिक रोचक हो जाती है। संक्षेप में, मेघवाल नृत्य में निम्नलिखित वेशभूषा का प्रयोग करते हैं-

1)     धोती व कुत्र्ता - मेघवाल लोग गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य करते समय अपने शरीर पर धारण करते हैं जो सफेद रंग के होते हैं। कुत्र्ता के ऊपर एक कमर पट्टा होता है जो चमड़े का बना हुआ होता है। यह पट्टा दाँयी और से बाँयी ओर पहना जाता है इसका रंग लाल व मेहरून होता है।

2)     कमर पट्टा - बाड़मेर जिला के मेघवाल नृत्य करते समय कमर को सुरक्षित रखने के लिए कमर पट्टा पहनते हैं। ये कमर पट्टा दांयी से बांयी ओर पहनते हैं। ये चमड़े का बना होता है। यह लाल या मेहरून रंग का होता है। कमर पट्टा के पहनने से नृत्य करते समय नसां पर जोर नहीं पड़ता है क्योंकि नृत्य बहुत तेजी के साथ किया जाता है। इस पट्टे के विपरीत बांयी से दांयी तरफ एक पट्टा बंधा होता है। यह पट्टा कपड़ा का होता है जिस पर तीन रंग केसरिया, सफेद व हरा छपे होते हैं। यह पट्टा राष्ट्रप्रेम को समर्पित करता है। यह एकता और अखंडता का संदेश देता है।

3)     गोल साफा - नृत्य के समय मेघवाल के सिर पर गोल साफा होता है जो कि बाड़मेर की पहचान को बताता है। मेघवाल समुदाय के अधिकतर गोल साफा लाल रंग का होता है इसमें युवा लोग लाल रंग का साफा व बुजुर्ग लोग सफेद रंग का साफा पहनते है। इन साफों पर सामने की तरफ ईमली या सिरपेज लगा होता है वह उस इमली या सिरपेज के ऊपर एक कंलगी केन्द्र में लगी होती है जो सफेद या गुलाबी रंग की होती है।

4)     घुंघरू - मेघवाल पुरूष नृत्य करते समय धोती के नीचे पैरो में घुंधरू पहनते हैं जो एक चमड़े के टुकड़े पर लगे होते हैं। इस चमड़े के टुकड़े पर नक्काशी की हुई होती है वह नक्काशी मखमल कपड़े की होती है जिससे वह सुन्दर प्रतीत होते हैं। मखमल के ऊपर ये घुंघरू लगे हुए होते हैं। ये घुंघरू कांसे के बने हुए होते हैं। जिन पर हाथों से कारीगरी होती है जो उसको मनोरम सुन्दरता प्रदान करती है। पैरां के नीचे मोजे जिन पर घुंघरू बंधे होते हैं।

5)     मोजडी (जूतियां) - मेघवाल पुरूष गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य के समय मोजडी (जूतियां) पहनते हैं। इनके ज्यादातर मोजडी कशीदाकारी वाली होती है। मोजडी के ऊपर भी कशीदाकरी की जाती है। कशीदाकारी भी हाथों से की जाती है। इनकी अलग-अलग आकृति की सजावट देखने योग्य है। मेघवाल समुदाय के अनुसार ’मोजडी’ या ’जूतिया’ एक ही हैं। कुछ मेघवाल इसे ’मोजडी’ व कुछ मेघवाल इसे ’जूतिया’ कहते हैं। इनके अनुसार, इन दोनों में कोई भेद नहीं है।

6)     मोजे - मेघवाल मोचड़ी (जूतियां) के अंदर मोजे पहनते हैं। मेघवालों के मोजे के रंग लाल होते हैं। मेघवालों का मानना है कि लाल रंग शुभ होने व दर्शकों को आकर्षक होने के कारण नृत्य के समय लाल मोजे पहनना पसंद करते हैं। ये मोजे कंपनी का बना हुआ स्थानीय स्तर पर मोजे खरीदते हैं। ये ब्रांडेड नहीं होकर सस्ते दामों में जो मोजे मिल जाए उसे खरीद लेते हैं। नृत्य के उपरांत इस मोजे को संजोकर रख लेते हैं व अगली नृत्य कार्यक्रम में ये इसे पुनः पहनते हैं। 

7)     पणसिया - मेघवालों द्वारा अपने हाथों मे कलाई के पास या अंगुलियों में एक रंग-बिरंगी धागों से लटकी हुई संरचना होती है जो नृत्य शैली में आकर्षण का केन्द्र होती है।

 

7.  गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य का वर्तमान स्वरूप

यह नृत्य वर्तमान में केवल गिनेचुने मेघवाल समुदाय द्वारा किया जाता है। लेकिन उनकी संख्या इस नृत्य में कम ही है। इस नृत्य में नृत्य करने की रूचि कम हो गई है क्यांकि ये लोग आर्थिक दृष्टि से कमजोर हो गये हैं। मेघवाल समुदाय के कुछ लोग इस नृत्य शैली को अपनी परंपरा मानते हुए बरकरार रखे हुए हैं।

कुछ गेरजत्था (जत्था गेर) नर्तक अर्थात गेरियों (मेघवाल के अनुसार जत्था गेर नृत्य करनेवाले नर्तक का नाम) ने द्वितीयक आर्थिक विकल्प के रूप में गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य को अपना रखा है। पहले के समय में यह आय का स्रोत नहीं था। इस पेश में अब कुछ लोग गेरजत्थाई पुरूष (चयनित अध्ययन स्थल के लगभग 15-20 गेरजत्थाई) समूह में गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य के लिए समूह में जाते हैं।

कुछ परिवारों के आय का साधन गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य है। इस पेशें से जुड़े गेरजत्थाई लोग अपने घर के निवास के पते, अपनी मोबाईल नंबर आदि देते हैं। मेघवाल लोकनर्तक धीरे-धीरे अपनी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना रहे हैं। कुछ मेघवाल नर्तक राजस्थान से बाहर अन्य राज्यों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अपनी प्रस्तुति भी दिए हैं। वर्तमान समय में गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य इनके धार्मिक कार्य, मनोरंजनात्मक कार्य एवं स्वरोजगार का रूप ले रहा है ताकि आवश्यक पड़ने पर बुलाया जाए। ये लोग कार्यक्रम को पूरा करने या समाप्त करने के पश्चात् अपने घर आ जाते हैं व सभी सदस्य राशि को बराबर बाँट लेते हैं। इस पेशे में लोगों की संख्या कम है। 300 रूपये से 600 रूपये तक प्रत्येक गेरजत्थाई प्रति कार्यक्रम पाते हैं।

मेघवाल समुदाय के लोग स्वीकारते हैं कि इन्हें नृत्य प्रदर्शन का अवसर कभी-कभी मिलता है वह भी किसी के बुलाने पर ही अवसर मिलता है। मेघवालों का कहना है कि नृत्य से प्राप्त आय की तुलना में मजदूरी करने पर अधिक आय मिल जाती है तो लोग नृत्य व्यवसाय को क्यों न छोड़े। कुछ मेघवाल नृत्य इसीलिए कर रहे हैं क्योंकि वे बेराजगारी को बचाने के लिए नृत्य कर रहे हैं। इनमें कुछ पढे़-लिखे मेघवाल युवा पढाई के साथ-साथ आंशिक खर्च निकालने के लिए अपनाए हुए हैं। संभवतः मेघवाल युवाओं को यदि अच्छी व मनपसंद रोजगार मिल जाए तो इसे छोड़ सकते हैं क्योंकि ये बेरोजगारी के हालात से मजबूर हैं। इस नृत्य में मुख्य रूप से युवी पीढ़ी में उत्साह बहुत कम देखने को मिला। ,उन के युवाओं में अपने पारम्परिक नृत्य को जानने की अभिलाषा कम हुआ है। वे इसको हीन भावना की दृष्टि से देखते हैं। उनका मानना है कि जितना रूपया यहाँ मिलता है वो कहीं भी कहीं अन्य क्षेत्र के कार्य कर भी अर्जित कर सकते हैं। पढ़े लिखे युवा इस पारम्पंरिक नृत्य में अपनी रूचि नहीं दिखाते है। जिससे नृत्य का विकसित रूप पूर्ण रूप में प्रकट नहीं हो पाता है।

 

8.  निष्कर्ष

गेरजत्था (जत्था गेर) नृत्य मेघवालों का प्रमुख पारम्परिंक लोक नृत्य है। कलाकार लोग धीरे-धीरे अपनी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना रहे है। वर्तमान समय में गैर जत्था नृत्य इनके धार्मिक कार्य, मनोरंजनात्मक कार्य एवं स्वरोजगार का रूप ले रहा है। मेघवाल समाज की वर्तमान युवी पीढ़ी में उत्साह बहुत कम देखने को मिला है। अतः मेघवाल समुदाय में बढता हुआ असंतोष, नृत्य के माध्यम से सीमित आय का होना व बेरोजगारी आदि के कारण यह अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं।

सरकारों द्वारा पारम्परिक लोकनृत्य से संबंधित योजना बनाकर युवा वर्ग को प्रशिक्षित करना चाहिए। मेधववाल समुदाय की लोकनृत्य को आर्थिक रूप से जोड़ने की आवश्यकता है। नृत्य के क्षेत्र में रोजगार के अवसर सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। सरकारी स्तर पर लोकनृत्य व लोकनर्तक के संरक्षण व इसे बचाने जरूरत है ताकि मेधववाल समुदाय की परंपरागत लोक नृत्य कला को जीवित रखा जा सके। इस लोकनृत्य के माध्यम से इनके युवा वर्ग को जोड़ने की आवश्यकता है ताकि पारम्परिक लोकनृत्य आगे बढ़ सके।

 

 

CONFLICT OF INTERESTS

None. 

 

ACKNOWLEDGMENTS

None.

 

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