ShodhKosh: Journal of Visual and Performing ArtsISSN (Online): 2582-7472
CHALDA MAHASU FOLK DEITY AS A CULTURAL HERITAGE OF JAUNSARI TRIBE OF UTTARAKHAND उत्तराखंड की जौनसारी जनजाति के सांस्कृतिक धरोहर के रूप में चालदा महासू लोक देवता 1 Assistant Professor, Department of
Painting, Harsh Vidya Mandir (PG) College, Raisi,
Haridwar, U.P., India
उत्तराखंड
के देवता दो प्रकार
के होते हैं, पौराणिक
एवं लोक
देवता।
उत्तराखंड
में जनजातीय
संस्कृति में
लोकदेवता का
अर्थ है सर्वशक्तिमान।
दिव्य शक्ति
जो सर्वज्ञ है, सर्व
समर्थ है, वह
सबका कल्याण
करती है और
अन्न,
धन, जन
सभी प्रकार से
समृद्धि करती
है। रोग, शोक, भूत-प्रेत
आदि सब प्रकार
की आपदाओं का
परिहार अर्थात
नष्ट करती है, अपराधी
को दंड दे
सकती है।
उत्तराखंड के
जनजातीय
क्षेत्र
जौनसार बाबर
तथा रवाई
जौनपुर एवं
हिमाचल
प्रदेश के
बहुमान्य
सर्वोच्च
देवता है
महासू देवता।
महासू शब्द का
अर्थ होता है
महान देवता, महा
अर्थात महान
और शू अर्थात
देवता। महासू
का मुख्य
मंदिर हनोल
जौनसार बावर
में है। जब
साक्षी ना
मिलने से
अपराधी दंडमुक्त
हो जाता है
वहां सर्वज्ञ, सर्वव्यापी
महासू देवता
उसे दंडित कर
सकते हैं, यह
इस क्षेत्र के
परम पूजनीय
इष्टदेव हैं। उद्देश्य
- 1) वर्तमान
में जौनसारी
परम्परा एवं
लोकदेव संस्कृति
को दर्शाना। 2) जौनसारी
समाज में
जनजातीय
लोकदेवता की
स्थिति का
अध्ययन करना। 3) जनजाति
लोगों के लिये
गये
साक्षात्कारों
के माध्यम से
आँकडें
एकत्रित कर
जौनसारी
परम्परा लोक
देवता चालदा
महासू की
धार्मिक
संस्कृति पर
प्रकाश
डालना। 4) वर्तमान
में जौनसारी
समाज में
प्रचलित सांस्कृतिक
लोक देवता
चालदा महासू
का महत्व दर्शाना। शोध
पद्धति: प्रस्तुत
शोध पत्र में
वर्णनात्मक
शोध पद्धति का
प्रयोग किया
गया है। इसका
प्रयोग लोक देवता
की धार्मिक
संस्कृति
बताने के लिये
किया गया है
वर्णनात्मक
शोध पद्धति की
3 श्रेणियाँ हैः-
1)
अवलोकन
करना 2)
विषय का
अध्ययन 3) सर्वेक्षण
शोध
पत्र लेखन
हेतु
वर्णनात्मक
शोध पद्धति की
3 श्रेणी
सर्वेक्षण का
प्रयोग किया गया
है। जिसके
माध्यम से
जनजातीय
क्षेत्र का सर्वेक्षण
कर
प्रश्नावली
अनुसूची के
माध्यम से
साक्षात्कार
लिया गया हैं।
जिससे वर्तमान
की जौनसारी की
लोक देवता
चालदा महासू
संस्कृति पर
स्थिति पर
प्रकाश डाला
गया है। 2. महासू देवता का इतिहास महासू
देवता को
उत्तराखंड के
साथ साथ
हिमाचल में भी
न्याय के
देवता के रूप
में पूजा जाता
है। इनके अनेक
देवालय तथा
पूजा स्थल है
क्योंकि यह एक
चलायमान
देवता है।
परंपरागत रूप
से हर 12 वर्षों
में इनकी
अलग-अलग
क्षेत्रों
में पूजा की
जाती है। एक
बार साठी
(कौरव)
क्षेत्र, जैसे-जौनसार
बावर में तथा
अगले 12 वर्षों
में पासी
(पांडव)
क्षेत्र
जैसे-फतेह
पर्वत,
बंगाण एवं
इससे संलग्न
हिमाचल
प्रदेश के क्षेत्रों
में। Sharma (2023) महासू
किसी एक देवता
का नाम नहीं
बल्कि चार
भाइयों के नाम
से महासू बंधु
विख्यात है।
इनका मुख्य
मंदिर
देहरादून से 190
किलोमीटर दूर
तमसा नदी के
पूर्वी तट पर
जौनसार बावर
क्षेत्र के
हनोल नामक
स्थान पर प्राचीन
काल से ही
स्थापित है।
यह मंदिर
अद्भुत काष्ठ
कला एवं
पत्थरों
निर्मित हुण
स्थापत्य
शैली की कला
और संस्कृति
की अनमोल
धरोहर है।
समुद्र तल से 1250
मीटर की ऊंचाई
पर बने मंदिर
का निर्माण
नवीं शताब्दी
के आसपास का
बताया जाता है
जबकि,
एएसआइ
(पुरातत्व
सर्वेक्षण
विभाग) के
रिकार्ड में
मंदिर का
निर्माण 11वीं
व 12वीं सदी का
होने का वर्णन
है। वर्तमान
मे इसका
संरक्षण भी
पुरातत्व
सर्वेक्षण
विभाग ही कर
रहा है।
हूणा भाट
ब्राह्मण के
नाम पर ही इस
स्थान का नाम
हनोल पड़ा इससे
पूर्व इस
स्थान को चकरपुर
के नाम से
जाना जाता था।
Ujala (2017) महासू को
चारों भाइयों
के संयुक्त
नाम से जाना
जाता हैं जो
मैंद्रथ नामक
स्थान पर
प्रकट हुए थे, परंतु
फिर भी इनके
अलग-अलग नाम
शक्ति और
मंदिर थान है
जैसे- 1) बाशीक
महासू 2) बोठिया
महासू (बौठा
महासू) 3) पबासी
महासू 4) चालदा
महासू इनमें
बाशीक महासू
सबसे बड़े हैं, जबकि
बौठा महासू
दूसरे नंबर पर
तथा पबासी महासू
तीसरे एवं
चालदा महासू
सबसे छोटे
चैथे नंबर के
है। हनोल
स्थित मंदिर
में मुख्य रूप
से बोठिया
महासू (बौठा
महासू) की
पूजा होती है।
यह मंदिर
अद्भुत
शक्तियों तथा
कलाओं से
परिपूर्ण
महाराज बोठा
महासू देवता
का सिद्धपीठ
मुख्य मंदिर
है। मैंद्रथ
नामक स्थान पर
बाशीक महासू
की पूजा होती
है। पबासी
महासू का
मंदिर टोंस
नदी के दायें
तट पर बंगाण
क्षेत्र के
ठडियार
(उत्तरकाशी)
खत पंचगांव के
तहुन में व
देवटी-देववन
पर्वत में है।
जबकि सबसे
छोटे भाई चालदा
महासू हमेशा
जौनसार-बावर, बंगाण, किरण
क्षेत्र
फतह-पर्वत व
हिमाचल
क्षेत्र के प्रवास
पर रहते हैं। Chauhan (2023) एक
किवदंती
प्रसिद्ध है
कि कलयुग के 3000
वर्ष पूर्व
कुरु कश्मीर
में एक सरोवर
के समीप विमल
देव जी का
राज्य हुआ
करता था। विमल
देव जी की उत्पत्ति
भगवान
कार्तिक के जी
के अंश से
मानी जाती है।
एक बार भगवान
कार्तिक ने
अपने
माता-पिता से
क्रोधित होकर
कुरु कश्मीर
स्थित
क्षेत्र में
पहुंचकर अपने
चार अंगों को
काट डालें। इन
चारों अंगों
के मांस से
चार देवता
प्रकट हुए जिनमे
तीन देवता तो
पताल को चले
गए और विमल
देव जी धरती
पर रह गए
क्योंकि विमल
देव जी
कार्तिकेय के
मांस से प्रकट
हुए थे इसीलिए
उन्हें मासु
(महासू) कहा
जाता था। विमल
देव जी
धर्मपत्नी
देवलाड़ी थी।
टौंस नदी के
आसपास के
क्षेत्रों
में एक किरमिर
नाम का राक्षस
हुआ करता था, जिसका
काफी आतंक था।
इस राक्षस से
पूरी जनता परेशान
थी, लेकिन
कुछ कर नहीं
पा रही थी।
छुटकारा
दिलाने के लिए
हुणाभाट नाम
के एक
ब्राह्मण ने
भगवान शिव और
शक्ति की
आराधना की।
पूजा से भगवान
शिव काफी
प्रसन्न हुए।
जौनसार बावर
का ब्राह्मण हूणा
भाट अर्थात
हूणा योद्धा
के स्वप्न में
प्राप्त
निर्देशानुसार
महासु कुल के
राजकुमारों
को आमंत्रित
करने के लिए
कश्मीर गया और
वहां से इन
चार भाई को
आमंत्रित
करके यहां ले
आया। यहां आने
पर उसे आदेश
मिला कि गांव
में जाकर उनके
नाम से भूमि
पर हल से पांच
रेखाएं उन
चारों भाइयों
के नाम की और
पांचवी उनकी
माता देवलाडी
के नाम की
बनाएँ। चारो
देवता
हुणाभाट के
द्वारा खेत को
चांदी के हल
तथा सोने के
जूते पहनकर जोताई
करते समय
मैंद्रथ नामक
स्थान पर
प्रकट हुए।
परंतु
मुहूर्त काल
से पूर्व खेत
जोतने के कारण
यह बताया जाता
है कि इन
रेखाओं के
नीचे जिन पांच
मूर्तियां का
आविर्भाव हुआ
उनमें प्रथम
तीन अर्थात
बासक,
पिबासी और
बौथा की
मूर्तियां हल
के फाल से हल्की
सी
क्षतिग्रस्त
हो गई जिनमें
बासक की जंघा, पिबासी
का कान और
बौथा की आंख
क्षतिग्रस्त
हो गए लेकिन ये
अद्भुत शक्ति, बुद्धि
और कलाओं से
परिपूर्ण थे
इसीलिए उनकी पूजा
मंदिरों के
अंदर ही की
जाती है किंतु
चालदा महाराज
सर्वदा
स्वस्थ थे
इसीलिए चालदा
को बारी-बारी
से वह अपने
भक्तों की
समस्याओं का समाधान
करने के लिए
क्षेत्र की
यात्रा करके
वहां की न्याय
व्यवस्था का
कार्य
प्राप्त हुआ। महासू
ने किरमिक
राक्षस का वध
किया। Tulsidas (n.d.) महासू चार
भाइयों एवं
उनकी माता
देवलाडी बासक
का मंदिर टौंस
नदी के बाएं
जौनसार बाबर
के रनोर में, और
बौठा का मंदिर
हनोल में
स्थापित है।
चांदी के पट्ट
पर उत्कीर्ण
चारों भाई
महासू तथा माता
देवलाडी की
मूर्तियां
गर्भगृह में
रखी गई है। इन
चारों भाइयों
के साथ उनके
चार वीर शेरकुड़िया, रंगबीर, कायलूवीर
तथा
लाकुडावीर की
भी पूजा की
जाती है।
मंदिर में
गर्भगृह में
पुरोहित के
अतिरिक्त कोई
भी प्रवेश
नहीं कर सकता
है। मंदिर के
भीतर गुप्प
अंधेरा रहता
है। यह बात आज
भी रहस्य है
कि मंदिर में
हमेशा एक अखंड
ज्योत जलती
रहती है जो कई
वर्षों से जल
रही है। मंदिर
के गर्भ गृह
में पानी की
एक धारा भी
निकलती है
लेकिन वह कहां
से जाती है और
कहां निकलती
है यह आज भी
अज्ञात है। Pal (2022) चालदा
महासू जोकि
मुख्य रूप से
खत में निवास
करते है सभी
खतों में
बारी-बारी से
भ्रमण करते रहते
है यद्यपि
इनका मूल
स्थान हनोल
में है किंतु
यह समाल्टा, उदपल्टा, कोरू, दसऊ, सेरी
आदि खतों में
भी यात्राएं
करते है। यह
अपने पूरे
दलबल के साथ
निकलते हैं और
गांव वालों के
उनके भोजन और
आवास की
व्यवस्था
करनी होती है।
हनोल में
भद्र पक्ष की
शुक्ल पक्ष की
तृतीय और
चतुर्थी को
इनका जागड़ा
मनाया जाता है।
चालदा के
मंदिर में यह
उत्सव
चतुर्थी को
मनाया जाता है
किंतु बौठा के
मंदिर में
तृतीया को
मनाया जाता
है। तृतीया को
यदि बुधवार पड़
जाए तो बौठा
का जागरण भी
चतुर्थी को ही
मनाया जाता
है। पूजा
अर्चना करने
का भी इनका
अपना विधि-विधान
है। चित्र 1 जागड़ा
अर्थात
रात्रि जागरण- इसमें
देवता की
पालकी बाहर
निकाली जाती
है और गाजे-बाजे
के साथ स्नान
कराया जाता
है। कहा जाता
है कि डोली को
एक बार उठाने
के बाद फिर
उसको जमीन पर
नहीं रखते
हैं। पालकी
मंदिर में प्रवेश
के समय ढढयाडो
(ढ़ोल बजाने
वालों) की महिलाएं
नृत्य
प्रस्तुत
करती हैं। इस
उत्सव के
परिवेश में
सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और
पौराणिक
सूत्र
विध्यमान है 3. चालदा महासू लोकदेवता इनकी माता
देवलाडी ने
व्यवस्था की
कि चालदा महासू
विभिन्न
स्थानों में
जाकर लोक
कल्याण का
कार्य करेंगे
इसीलिए यह सदा
चलायमान रहते
हैं और उनके
आने-जाने का
समय का
निर्धारण
इनका माली
(देवता द्वारा
नियुक्त
व्यक्ति) और
घांड़वा (देव
बकरा) चित्र 2 करता
है। यात्रा
में आगे-आगे
काड़का कनाल
(तांबे का बड़ा
बर्तन), उसके पीछे
छत्र,
उसके पीछे
पालकी तथा
उसके पीछे
जनता चलती है।
जिस गांव में
जाते हैं, उस
दिन की यात्रा
की व्यवस्था
का
उत्तरदायित्व
उस गांव के
लोगों का होता
है। ·
30 नवंबर 2018
को कोटी कनासर
गांव में ·
23 नवंबर 2019
मोहना गांव ·
23 नवंबर 2021
को समाल्टा
गांव ·
1 मई 2023 को
दसऊं गांव में
विराजमान हुए चित्र 3 एक ओर तो
गांव के लोगों
में महाराज के
आगमन की खुशी
होती है, तो वहीं
दूसरी ओर
दूसरे गांव के
लोगों में उनके
जाने का दुख
होता है। पूरा
क्षेत्र
चारों ओर
छत्रधारी
चालदा महासू
देवता के
जयकारों से गुंजयमान
होता है और
चालदा महासू
महाराज की विदाई
और अगुवानी
में डूबा हुआ
होता है।
अपनें अराध्य
की विदाई के
दौरान भक्तों
की आंखे छलछला
जाती है और वे
बिलख-बिलखकर
रो देते हैं।
भक्तों की
आंखो से बहती
अविरल आंसुओ
की धारा अराध्य
महाराज से
बिछुडने की और
उनके प्रति
गहरी आस्था को
चरितार्थ
करती है।
समाल्टा गांव
से छत्रधारी
चालदा महासू
महाराज की
विदाई में
उमड़ा आस्था का
जन सैलाब
शोधकर्ती ने
स्वयं देखा
है। चित्र 5 चालदा
महासू बहुत
दानवीर देवता
है। महाभारतकालीन
कर्ण के समान
बड़े ही दानी।
जब कोई याचक उनके
दरबार में
जाता है और
अपनी कामना
पूर्ति के लिए
देव स्थल पर
धरना देकर बैठ
जाता है तब यह
उस मंदिर के पुजारी
की भूख प्यास
को खत्म देते
हैं एवं कामना
पूर्ति होने
पर खुल जाती
है। इससे पता
चलता है कि
देवता ने
कामना को पूरा
कर दिया है।
ब्राह्मण और
कन्याओं को
देवता की ओर
से भोजन भी कराया
जाता है। आषाढ़
और भाद्रपद
मासों की संक्रांतियों
को इसके
देवस्थल में
लोकोत्सव का और
कंदूक (गेंद)
क्रीड़ा का
आयोजन होता
है। Sharma (2023)
कामना पूर्ति
तक पुजारी की
भूख और प्यास
खत्म
होने का श्री
सरदार सिंह
तोमर जी खंडन करते
है कि जौनसार
में इस तरह की
कोई मान्यता नही
है, इसी
प्रकार दसऊ
मंदिर के
पुजारी श्री
हरिओम डोभाल
भी भूख प्यास
खत्म होने की
बात को मना करते
है। चित्र 4 संभवतः
हिमाचल में हो
सकता है
क्योंकि
कहावत भी है- ’’कोस-कोस
पर बदले पानी, कोस-कोस
पर बदले बानी’’ श्री
चालदा महासू
मंदिर सेवा
समिति के
अध्यक्ष श्री
सरदार सिंह
तोमर जी ने
बताया कि जो
श्रद्धालु
अपनी कामना के
लिए चालदा
महाराज के मंदिर
में चावल लेकर
आता है और
वहां रखता है
तो उन चावलों
को देव माली
से पूछवाया
जाता है। वह
देवमाली कुछ
समय की अवधि
बता देता है।
उसके पश्चात
मंदिर पुजारी
द्वारा
देवजिन्न
(घांडवा) पर
पानी डालकर
उससे कामना को
या प्रश्न को
पूछवाया जाता
है। यदि देव
जिन्न अपने
शरीर को हिलाकर
या कंपन करके
स्वीकार करता
है तो पता चलता
है कि कामना
स्वीकार कर ली
गई है और यदि
देव जिन्न
घुटने टेक
देता है या सो जाता
है तो इसका
अर्थ यह होता
है कि वह
कामना स्वीकार
नहीं की गई।
मंदिर में जो
भी चढ़ावा आता
है उसको सेवा
कार्यों में
खर्च किया
जाता है। श्री
चालदा महासू
मंदिर सेवा
समिति के
सदस्य डॉ अनिल
सिंह तोमर जी
ने बताया कि
देवता महाराज
के साथ-साथ
देवलाड़ी माता
भी रहती है।
मन्दिर में
नजर दोष
उतारने के लिए
तांबे के
सिक्के का
प्रयोग किया
जाता है।
प्रजा के
कष्टों को सुनने
तथा उनका
निराकरण करने
के लिए और
अपराधियों को
दंडित करने और
पीड़ितों को
न्याय दिलाने के
लिए चालदा
महासू पूरे
वर्ष संपूर्ण
क्षेत्र में
भ्रमण करते
रहते हैं। इसीलिए
जौनसार के
निवासियों की
उनके न्याय के
प्रति प्रगाढ़
आस्था है कि
वे न्यायालय
की शरण में ना
जाकर देवता के
दरबार में
जाते हैं तथा
न्याय मिल
जाने पर देवता
की विशेष भेंट
पूजा करने की
प्रतिज्ञा
करते हैं।
परंपरागत देव
न्याय
व्यवस्था के
अंतर्गत वादी
प्रतिवादी को
देव स्थल में
जाकर देव
प्रतिमा के
समक्ष शपथ लेनी
होती है।
लोगों में देव
दंड का ऐसा भय
होता है कि
कोई भी अपराधी
झूठी शपथ लेने
का दुस्साहस
नहीं करता।
यहां तक की
जमीन जायदाद
संबंधी विवादों
का निर्णय भी
यही होता है। Polit (n.d.) मंदिर की
पूजा
व्यवस्था:
मंदिर में
पूजा
व्यवस्था के
लिए निम्न
पदाधिकारी
नियुक्त होते
हैं जो पूर्ण
ईमानदारी और निष्ठा
से अपना
कर्तव्य
निर्वहन करते
हैं- 1)
मुखिया
(बजीर): बजीर का
पद
सर्वश्रेष्ठ
होता है।
देवता के पश्चात
बजीर का ही
स्थान होता है
और बजीर
पद वंशानुगत
होता है
अर्थात बजीर
एक ही रहता है, अन्य
पदाधिकारी
बदल सकते हैं। 2)
देव
पुजारी:
चारों महासू
देवता के देव
पुजारी एक ही
होते हैं जो
चार गांव के
ही नियुक्त
किए जाते हैं
जिनमें
पुटराड,
मैन्द्रथ, जात्रा
और निनोस गांव
के होते हैं
जो बारी-बारी
से वर्ष भर
पूजा अर्चना
करते हैं। 3)
भंडारी:
जौनसार बाबर
के 24 खतों के
प्रमुख
परिवारों के व्यक्तियों
को भंडारी का
कार्य सौंपा
जाता है।
इन्हें भी
चार-चार महीने
का कार्य दिया
जाता है इनका
कार्य सारी
व्यवस्था की
जिम्मेदारी
होता है। 4)
ठानी:
ठानी का कार्य
सेवक का होता
है। कहीं
यात्रा में
महाराज के साथ
जाते हैं, इन्हें
पुजारी,
भंडारी आदि
का भोजन तैयार
करना होता है।
5)
ढढ़ीयारी:
इनका कार्य
ढोल बजाना
होता है
इन्हें देयाड
भी कहा जाता
है। उक्त पूजा
व्यवस्था से
प्रतीत होता
है कि चालदा
महासू देवता
के प्रति
जौनसारी
लोगों की विनम्र
में श्रद्धा
और निष्ठा है
और वह अपने
देवता के
प्रति जरा सी
भी लापरवाही
नहीं करते हैं
और पूर्ण
नियमों का
पालन करते
हैं। न्याय
व्यवस्था
हेतु माली, देव
घाणडवा आदि
होते हैं।
दसौऊ में
विराजमान चालदा
महाराज का
छायाचित्र Chauhan (2023)
दर्शनीय है। Panthari (2019) धार्मिक
मान्यताएं:
जौनसार बावर
के सामाजिक
एवं
सांस्कृतिक
जीवन शैली में
पौराणिक
मान्यताओं
एवं रूढ़िवादी विचार
धाराओं के
चलते
देवी-देवताओं
को प्रसन्न
करने की अनेक
मान्यताएं
प्रचलित है।
जैसे-जातर
चढ़ाना,
घांडवा
चढ़ाना,
छतर चढ़ाना, टीका
चढ़ाना,
रोटाड़ी
चढ़ाना आदि। Dobal (2016) 1)
जातर
चढ़ाना: रुका
हुआ कार्य
पूर्ण होने पर
सपरिवार
दर्शन करने
आना, जातर
चढ़ाना कहलाता
है। 2)
घांडवा
चढ़ाना: मनोकामना
एवं रुका हुआ
कार्य पूर्ण
होने पर जीवित
बकरा चढ़ाना, घांडवा
चढ़ाना कहलाता
है, यह
बकरा देवता के
दरबार में ही
रहता है। 3)
छतर चढ़ाना:
बड़े कार्य के
निर्विघ्न
संपन्न होने
पर छतर चढाया
जाता है। 4)
टीका
चढ़ाना: मनौती
पूर्ण हो जाने
पर सोने व
चाँदी के
छोटे-छोटे गोल
दाने देवता को
चढ़ाना टीका
चढ़ाना कहलाता
है। 5)
रोटाड़ी
चढ़ाना: देवता को
प्रसन्न करने
की यह सबसे
सरल विधि है, सवा
मुठ्ठी आटा
चढ़ाना रोटाड़ी
चढ़ाना कहलाता
है। 4. दैवीय चिकित्सा (जड़ी-बूटी एवं तंत्र-मंत्र) जौनसार
में सुख, शांति एवं
निरोग
रहने के लिये
औषधि,
जड़ी-बूटी, तंत्र-मंत्र
और ज्योतिष का
अद्भुत
समन्वय है।
जौनसार में
जड़ी-बूटी की
व्यापक
उपलब्धता है, इन
जड़ी-बूटी के
विशेष जानकार
है जिन्हें
‘जड़ीयारे’ कहा
जाता है।
व्याधियां
दैहिक,
दैविक एवं
भौतिक मानी
जाती है जिनके
उपचार के लिये
दैवीय
शक्तियों की
पूजा की जाती
है। रामचरितमानस
में भी वर्णन
मिलता है कि- दैहिक, दैविक
भौतिक तापा, रामराज
नहि काहूहि
व्यापा।। रोगी के
जन्मचक्र-कुनले, कुंडली
का ध्यान रखा
जाता है। लोक
मान्यता के अनुसार
कोई भी बीमारी
तब आती है, जब
प्रचलित
धार्मिक
नियमों का
पालन न किया
गया हो। ऐसे
कार्य जानें
अनजाने हो
जाते है। मौसम
के अनुसार एवं
गलत खान-पान
से भी रोग
युक्त हो जाते
है, लोगों
का विश्वास है
कि उनका देवता
उन्हें हर परेशानी
से निकाल देता
है। देवता का
अवतार माली
लोगों की
समस्या को
सुनकर उसको
दूर करने का
उपाय बता देता
है। यदि कोई
जड़ी -बूटी, औषधि
लेनी हो तो
जड़ियारों के
पास जाने की
सलाह देता है।
बुरी
शक्तियों को
साधने के लिए
जंतर-मंतर, झाड़-फूंक, गंडा-ताबीज, जादू-टोना
का उपाय है।
भूत-प्रेत, परी-आंचरी, डाग-डायन
की काट करने, घात
करने को
भूत-प्रेत का
मारण-वशीकरण-उच्चाटन
है। दैवीय व
तांत्रिक
उपचारों के
साथ जड़ी-बूटियों
की लोक
चिकित्सा
पद्धति का
विषद अनुभव प्रचलित
परम्पराओं के
अनुसार
जड़ियारे करते हैं, जो
यह मानते हैं
कि बीमारी
कमजोरी का
कारण दैवीय
प्रकोप है।
जड़ी बूटियों
से औषधि बनने
व रोगी को
देने के काम
भी उचित समय
देखकर किए
जाते हैं। 1)
नजर
उतारना: जब
कोई बच्चा
बीमार हो जाता
है तो लाल
मिर्च एवं
कच्चे आटे का
गोला बनाकर उसे
पीड़ित के ऊपर
से घूमाकर
गांव के बाहर
चैराहे पर रखा
जाता है। 2)
ताबीज
बनाना: भोजपत्र
या लाल कपड़े
के अंदर मंत्र
बोलकर ताबीज
बनाया जाता है
इसे पीड़ित
व्यक्ति को
दिया जाता
है।
3)
दोष लगाना: जौनसारी
विचारधारा के
लोग किसी
व्यक्ति के बीमार
होने पर रात
को सोते हुए
बड़बड़ाने पर या
शरीर में
कुष्ठ के
निशान होने पर
दैवीय प्रकोप मानते
हैं। देव
व्यक्ति
द्वारा पंडित
के पास भेजने
पर
पंडित के
द्वारा पोथी
खोलकर उसकी गणना
की जाती है।
गणना के लिए
कस्तूरी मृग
के दांत का
पासा बना होता
है, जिसे
फेंककर
संख्या ज्ञात
की जाती है।
पंडित उस
संख्या का
पृष्ठ खोलकर
पोथी में लिखा
उपाय यजमान को
उपचार के तौर
पर बताता है। 4)
उंजा: इसमें
बीमार
व्यक्ति के
ऊपर गाय के
दूध और मूत्र
का मिश्रण
करके मोर पंख
या दूब घास से
मंत्र का
उच्चारण करके
छीटे मार जाते
हैं। यह विधि
ऊंजा कहलाती
है। Rana (2000) 5)
बायथा: इस
प्रक्रिया
में भूत-प्रेत
आदि आत्माओं
को संतुष्ट
करने के लिए
तांत्रिक को
बुलाकर बीमार
व्यक्ति के घर
के सदस्य गांव
के बाहर
चैराहे पर
मुर्गी व बकरी
के बलि चढ़ाते
हैं।
6)
भानी: तांत्रिक
द्वारा मंत्र
पढ़ते हुए कासी
की ताली बजाकर
भूत-प्रेत या
किसी भटकती
आत्मा को बीमार
व्यक्ति के
ऊपर से भगाया
जाता है। 7)
मशाण: अकाल
मृत्यु हो
जाने पर
व्यक्ति की
मृत आत्मा परिवार
के किसी सदस्य
पर अवतरित
होकर रोते हुए
अपनी इच्छा
व्यक्त करती
है। पुरोहित
द्वारा मृत
व्यक्ति की
मसान (आत्मा)
को बातचीत
करके पूजा पाठ
करके संतुष्ट
किया जाता है।
यह विधि मशाण
कहलाती है। फुख्याण
और उलटाव काम
किए जाते हैं
पहले फुख्याण
में किसी को
भी अपनी बात
मनवाने के लिए
उसे अपनी ओर
आकर्षित किया
जाता है।
मन्त्रों
द्वारा उस पर
टोटका किया
जाता था और जब
वह पूरी
प्रक्रिया हो
जाती थी उसके
बाद मन्त्रों
की शक्ति से
उस पर उल्टाव
किया जाता था।
Rana (2000) वर्तमान
में केवल नजर
उतारना, मशाण आदि
ही
दृष्टिगोचर
है। 5. निष्कर्ष अतः कह
सकते है कि
जौनसारी
जनजाति की
संस्कृति
वर्तमान समय
में कुछ
परिवर्तन
अवश्य आये है जैसे-पहले
अनेक जादू, तंत्र
मंत्र,
टोना टोटका
अधिक होता था
परंतु आजकल
शिक्षा के
प्रभाव से
युवा वर्ग ने
केवल दैव्य
उपचार,
नजर दोष आदि
को मानते हैं
और जादू टोना
का प्रभाव कम
हुआ है। चालदा
महासू का
जौनसार में जो
महत्व पहले था
वही आज भी है
जागड़ा अथार्त
रात्रि जागरण
देवता की
प्रसन्नता के
लिए आज भी
किया जाता है
देवता
प्रसन्न होने
पर उनके
कष्टों का
निवारण करते है।
इस प्रकार हम
देखते हैं कि
जौनसारी
परंपरा में
लोक देव
संस्कृति का
एक विशिष्ट
स्थान है और
जौनसार में
सांस्कृतिक
लोक देवता
चालदा महासू
न्याय के
देवता के रूप
में आज भी
प्रतिष्ठित
है। चित्र 1
चित्र 2
चित्र 3
चित्र 4
चित्र 5
CONFLICT OF INTERESTSNone. ACKNOWLEDGMENTSमैं
भारतीय
सामाजिक
विज्ञान
अनुसंधान
परिषद,
नई दिल्ली का
भी सह्दय आभार
प्रकट करती
हूँ कि उनके
द्वारा जो वित्तीय
सहायता मुझे
प्रदान की गयी
है। उसके द्वारा
ही मेरा यह
शोधपत्र
पूर्ण हो पाया
है साथ ही शोध
का कार्य भी
प्रगति की ओर
अग्रसर है। अतः मैं भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा दी जा रही वित्तीय सहायता के लिए सदैव आभारी रहूंगी। REFERENCESChauhan, F. S. (2023, February 5). Himantar. Himantar. Chauhan, S. (2023, April 30). Religious Culture of Uttarakhand: “Chalda Mahasu Maharaj” will be Seated in Dasou Village, Know Who is this ‘God of Justice’ (Uttaraakhand Kee Dharm Sanskrti : Dasauoo Gaanv Mein Restaraanhoge "Chaalada Mahaasoo Mahaaraaj", Jaanie Kaun Hain Ye Nyaay Ke Devata). Dobal, D. D. (2016). Beliefs
and Folk Traditions of Jaunsar Bawar,
Tribal Area of Uttarakhand. Pravahini, 67-68. Pal, S. (2022). Natya Samavesh, Mahasu Devta, Delhi: SDR Innoways India Pvt. Ltd. Panthari, R. (2019, April 29). Four brothers Mahasu are the gods of justice in Uttarakhand (Uttaraakhand Mein Nyaay Ke Devata Hain Chaar Bhaee Mahaasoo). Polit, K. (n.d.). Lokesh Ohri, Till
Kingdom Come: Medieval Hinduism in the Modern
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